क्रिस्टोफर नोलान की फिल्म Oppenheimer सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। उम्मीद के मुताबिक इस फिल्म ने लोगों पर अपना जादू चलाना शुरू कर दिया है। जितना बस रिलीज से पहले था, उससे ज्यादा चर्चा रिलीज के बाद देखने को मिल रही है। कोई इसे मास्टरपीस बता रहा है तो कई इसे अभी से ऑस्कर विजेता घोषित कर रहा है। लेकिन इस फिल्म से इतर उस फिजिसिस्ट रॉबर्ट ओपेनहाइमर की कहानी ज्यादा महान है जिसने दुनिया में युद्ध लड़ने का तरीका हमेशा के लिए बदल दिया था।

महान भी और विनाशकारी भी

Oppenheimer का नाम जब भी जहन में आता है, परमाणु परीक्षण ही दिमाग में सबसे पहले याद आता है। कारण सिंपल है- रॉबर्ट ओपेनहाइमर की जिंदगी में सबसे बड़ी सफलता ही ये रही कि उन्होंने दुनिया को पहला सफल परमाणु परीक्षण करके दिया। विश्व युद्ध 2 के समय उनकी तरफ से वो परीक्षण किया गया था, बाद में उसी एटम बम को जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में फेंक दिया गया था। यानी कि एक परीक्षण ने दो लाख के करीब लोगों की जान ले ली थी। लोगों के मन में सवाल जरूर आता है कि रॉबर्ट ओपेनहाइमर को एक विलेन की तरह याद रखा जाना चाहिए, या फिर उन्हें उनकी खोज के लिए महान वैज्ञानिक का तमगा दिया जाना चाहिए।

अब इस पर बहस हो सकती है, लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं कि रॉबर्ट ओपेनहाइमर ने समय से आगे चलकर दिखाया, विज्ञान के सिद्धांतों को उस तरह समझा जो शायद कोई दूसरा नहीं समझ सका। इसी का नतीजा रहा कि आगे चलकर उन्हें फॉदर ऑफ एटॉमिक बम कहा जाने लगा।

बचपन से तेज दिमाग, दूसरे बच्चों से आगे

रॉबर्ट ओपेनहाइमर का जन्म 22 अप्रैल 1904 को अमेरिका के न्यू यॉर्क में हुआ था। परिवार का कपड़ों का कारोबार अच्छा चलता था, ऐसे में पैसों की कमी नहीं और उनका जीवन शानो शौकत वाला रहा। लेकिन उस अमीरी के बावजूद भी कोई उन्हें ‘बिगड़ी औलाद’ नहीं कह सकता था। जैसा उनका व्यक्तित्व था, वे ज्यादा किसी से घुलते-मिलते नहीं थे। दूसरे बच्चे खेलने जाते, उनका शौक वहां भी नहीं था। लेकिन पढ़ाई में बहुत तेज थे, कह सकते हैं कि समय से आगे चल रहे थे। इसी वजह से जब वे 9 साल के थे, ग्रीक और लैटिन भाषा पर उनका पूरा पकड़ आ गया था।

छोटी उम्र में बड़ी खोज, चिट्ठियों वाला राज

इसके अलावा खनिज विज्ञान में उनकी जबरदस्त दिलचस्पी थी, माता-पिता तो मानकर चल रहे थे कि उनका बेटा जीनियस है। ऐसा हुआ भी क्योंकि जिस उम्र में लोग अपना करियर डिसाइड नहीं कर पाते थे, ओपेनहाइमर अपनी नई-नई खोजों को लेकर न्यूयॉर्क के मिनरेलॉजिकल क्लब में चिट्ठिया लिखा करते थे। उस क्लब को तब नहीं पता था कि कोई इतना कम उम्र का लड़का ऐसी-ऐसी खोजे कर रहा है। लेकिन उनका काम कमाल था, इसी वजह से उन्हें उस क्लब में बाद में कई बार प्रेजेंटेशन दिखाने के लिए भी बुलाया गया।

बाद में ओपेनहाइमर ने उम्मीद के मुताबिक ही केमिस्ट्री से अपना ग्रेजुएशन पूरा किया और फिर जर्मनी में यूनिवर्सिटी ऑफ गोटिंगेन से उन्होंने अपनी पीएचडी पूरी की। ये उनकी जिंदगी का पहला पड़ाव था जहां पर उन्होंने अपने आगे आने वाले सालों के लिए एक नींव तैयार कर दी थी, वो नींव जिसके दम पर विज्ञान वो इमारत खड़ी करने वाला था जिसे आज के नौजवान न्यूकलियर वेपन कहते हैं।

1945 की घड़ी और पहला परमाणु परीक्षण

साल 1945 की बात है, तारीख थी 16 जुलाई। ओपेनहाइमर तीन साल तक एक मिशन पर काम कर रहे थे, नाम था- PROJECT Y। इस मिशन के पहले ही डायरेक्टर थे ओपेनहाइमर जिन्होंने तीन साल तक कह सकते हैं अपना खून-पसीना सब लगा दिया था। पतले पहले से थे, लेकिन इस मिशन ने उनकी सेहत पर ऐसा असर डाला कि उनका वजन घटना चला गया। लेकिन उनका उदेश्य बड़ा था, ऐसे में सेहत की चिंता छोड़ वे अपने मिशन पर ध्यान देते रहे। उनकी बायोग्राफी में उस लम्हे के बारे में काफी विस्तार से बताया गया है जब ओपेनहाइमर की सबसे बड़ी अग्नी परीक्षा शुरू होने वाली थी।

अंतिम लम्हों की कहानी, कैसे सफल हुआ मिशन?

असल में जिस प्रोजेक्ट पर ओपेनहाइमर काम कर रहे थे, उन्हें पता था कि ये दुनिया को बदलने वाला होगा। इसकी सफलता नया इतिहास लिखने वाली थी। लेकिन एक असफलता उस इतिहास को कई साल आगे भी ढकेल सकता था। इसी वजह से जब 16 जुलाई 1945 को एटम बम का परीक्षण होना था, ओपेनहाइमर डरे हुए थे, उन्हें सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था। लेकिन जैसे ही आसमान में धुएं का एक बड़ा गुबार देखने को मिला, जब एक तेज भूकंप से धरती कांप गई, वे समझ गए थे- इतिहास रच दिया गया, दुनिया को उसका पहला एटम बम मिल गया था।

बताया जाता है कि उस सफल टेस्ट के एक महीने के भीतर ही जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में दो एटम बम फेंके गए थे। उससे महा विनाश हुआ, सैंकड़ों जानें गई और बहस शुरू हो गई- इसे बनाने वाला नायक या खलनायक? इसका जवाबआज भी देना मुश्किल है, लेकिन ये भी सच है कि आने वाले समय में कई दूसरे देशों ने भी परमाणु परीक्षण किए। सभी ने उस पहले टेस्ट से प्रेरणा लेकर ही अपने परीक्षण को आगे बढ़ाया और परमाणु संपन्न देशों की झड़ी सी लग गई।

गीता का ज्ञान, खुद को बताया काल

वैसे ये बात कम ही लोग जानते हैं कि एक समय अपने परीक्षण अति उत्साहित और खुश रहने वाले ओपेनहाइमर बाद में उदास हो गए थे। उन्हें लगने लगा था कि उन्होंने जो बनाया है, वो विनाशकारी है। लेकिन 1960 में जब पहली बार उन्होंने एक इंटरव्यू में उस टेस्ट का जिक्र किया, उन्होंने भगवथ गीता को याद किया। जी हां, विदेशी थे, वैज्ञानिक थे, लेकिन गीता का उपदेश उनके मुंह से भी निकला। अपने परीक्षण को लेकर उन्होंने उस इंटरव्यू में कहा कि जब वो परीक्षण सफल हुआ था, मेरे मन में हिंदू धर्म गीता का एक श्लोक आया था। मैं अब काल हूं जो लोकों (दुनिया) का नाश करता हूं।

साहित्य में रुचि और संस्कृत सीखी

उनकी तरफ से गीता के 11वें अध्याय के 32वें श्लोक के बारे में तब कहा गया था जिसमें भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि मैं लोकों का नाश करने वाला काल हूं। यानी कि ओपेनहाइमर को इस बात का अहसास हो गया था कि उनका एक अविष्कार दुनिया के लिए विनाशकारी साबित होने वाला है। वैसे जिस श्कोल का इस्तेमाल 1960 में किया गया, उसका ज्ञान तो 30 साल पहले ही ले लिया गया था। असल में जिस समय ओपेनहाइमर पढ़ाई कर रहे थे, उनकी रुचि साहित्य में भी जाग गई थी। तभी उनका मन गीता पढ़ने का किया था। चाहते तो आराम से अंग्रेजी अनुवाद पढ़ सकते थे, लेकिन नहीं, उन्होंने मुश्किल रास्ता चुना और संस्कृत में ही गीता को पढ़ना शुरू कर दिया।

हॉलीवुड फिल्म और बॉक्स ऑफिस पर तूफान

ऐसे में एक गीता के सार को समझने के लिए ओपेनहाइमर ने अलग से संस्कृत को सीखा। अब बताया जाता है कि इस गीता के ज्ञान ने ही उनके अंतिम दिनों में उन्हें पछतावा करने का मौका दिया था। उसी ज्ञान ने उन्हें अहसास करवाया था कि वे काल बन चुके हैं। इस बात को कई दशक बीत चुके हैं, विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है, लेकिन रॉबर्ट ओपेनहाइमर के योगदान कोई नहीं भूल पाया है। उनका असर इतना ज्यादा है कि अब उनकी जिंदगी पर फिल्म बन चुकी है, रिलीज हो चुकी है और शायद आने वाले दिनों में कई रिकॉर्ड तोड़ने वाली है।