किसी भी मुल्क में प्रांतीय चुनाव इतने महत्वपूर्ण नहीं होते कि उनका असर राष्ट्रीय राजनीति पर पड़े. लेकिन जर्मनी में हेस्से प्रांत के चुनावों में चांसलर अंगेला मैर्केल की पार्टी क्रिश्चियन डेमोक्रैटिक यूनियन (सीडीयू) की हार अलग साबित हुई। इससे पहले कि पार्टी अध्यक्ष मैर्केल पर दबाव बढ़ता, उन्होंने प्रांत में अपनी पार्टी की सरकार बन जाने के बावजूद जनाधार में भारी कमी की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद छोड़ने का फैसला किया। इस फैसले को सत्ता छोड़ने का समय खुद तय करने की मैर्केल की पहल कहा जा रहा है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे लोकप्रियता के शिखर पर नेतृत्व छोड़ रही हैं। राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पार्टी की लोकप्रियता सिमट कर 25 प्रतिशत पर आ गई है।
चांसलर मैर्केल को जर्मनी का ताकतवर नेता माना जाता रहा है। जर्मनी के आर्थिक रूप से ताकतवर होने के अलावा पार्टी पर पकड़ और शासन के अपने अनुभव के कारण मैर्केल को यूरोप और विश्व की महत्वपूर्ण आवाज समझा जाता रहा है। लेकिन जर्मनी की राजनीति पर नजर रखने वालों को मालूम है कि पिछले सालों में वह लगातार अपनी पार्टी पर और आम मतदाताओं पर पकड़ खोती जा रही थीं। तेरह साल के शासन के बाद आखिर में यह मांग भी उठने लगी थी कि अब उन्हें अपना पद छोड़ देना चाहिए। कैथोलिक बहुल कंजरवेटिव पार्टी में प्रोटेस्टेंट और महिला होने के बावजूद पार्टी का नेता बनना और बाद में चुनाव जीतकर सत्ता में आना मैर्केल की बहुत बड़ी उपलब्धि रही है। लेकिन पार्टी को मध्य की ओर ले जाने की उनकी कोशिश ने धुर दक्षिणपंथी तबकों को नाराज भी किया है। मैर्केल के खिलाफ हवा बनने की शुरुआत 2015 में तुर्की के रास्ते यूरोप के विभिन्न देशों से होकर आने वाले करीब 10 लाख शरणार्थियों को जर्मनी में पनाह देने की उनकी घोषणा के साथ हुई। लेकिन उस समय इस फैसले को जर्मनी के नागरिकों और दुनिया भर में इतना समर्थन मिला कि उनके विरोधी बहुत कुछ न तो कर पाए और न ही कह पाए। लेकिन कोलोन में नए साल की उस रात ने समां बदल दी, जब रेलवे स्टेशन पर होने वाली नए साल की पार्टी में लड़कियों के साथ बड़े पैमाने पर दुर्व्यवहार हुआ और बाद में पता चला कि उसमें उत्तरी अफ्रीका से आए शरणार्थी शामिल थे।
शरणार्थियों के लिए लोगों में पहले जैसा समर्थन नहीं रहा। उग्र दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी का उदय शुरू हुआ और एक एक कर इस पार्टी ने न सिर्फ विदेशी विरोध के मुद्दे को राजनीति का मुख्य मुद्दा बना दिया बल्कि देश की सारी विधान सभाओं और संसद में जगह बना ली। मैर्केल की पार्टी सीडीयू के बहुत से लोग पार्टी छोड़कर एएफडी में चले गए और मैर्केल सारी कोशिशों के बावजूद खोए समर्थन को वापस अपनी पार्टी के साथ नहीं जोड़ पाई। इस नाकामी ने पार्टी के अंदर दक्षिणपंथी धड़े और चांसलर विरोधियों को और मजबूत किया।
अंगेला मैर्केल ने पार्टी की अध्यक्षता छोड़ते हुए यह कहा है कि वह 2021 तक चांसलर पद पर बनी रहेंगी। लेकिन हालात यही बताते हैं कि यह घोषणा भर है, मैर्केल शासन का अंत अत्यंत निकट है। इसकी दो वजहें हैं। एक तो मैर्केल की ताकत गठबंधन में शामिल पार्टी एसपीडी के कमजोर होने के साथ जुड़ी रही है। हेस्से के चुनावों में भी मैर्केल की सीडीयू के अलावा एसपीडी ने भी दस प्रतिशत मत खोए हैं। पार्टी के एक बड़े हिस्से को लगता है कि महागठबंधन में जाना भले ही राजनीतिक जिम्मेदारी रही हो, लेकिन इससे पार्टी को नुकसान हो रहा है। इसलिए संभावना इस बात की है कि एसपीडी 2021 से पहले ही सरकार छोड़ देगी और उसके साथ मैर्केल सरकार का अंत हो जाएगा।
दूसरी वजह मैर्केल की पार्टी में है। दिसबंर में होने वाले पार्टी सम्मेलन में नए अध्यक्ष का चुनाव होगा। जिन लोगों ने अपनी उम्मीदवारी की घोषणा की है उनमें मैर्केल समर्थक महासचिव आन्नेग्रेट क्राम-कारेनबावर के अलावा कंजरवेटिव धड़े के स्वास्थ्य मंत्री येंस श्पान और मैर्केल के उदय के बाद पार्टी नेतृत्व छोड़ने को मजबूर संसदीय दल के पूर्व नेता फ्रीडरिष मैर्त्स हैं। आन्नेग्रेट क्राम-कारेनबावर के पार्टी प्रमुख बनने का मतलब होगा कि मैर्केल 2021 तक चांसलर रह सकती हैं। लेकिन उन्हें अगले चुनावों से पहले पद का लाभ पहुंचाने के लिए मैर्केल निश्चित तौर पर 2021 के चुनावों से कम से कम डेढ़-दो साल पहले पद छोड़ देंगी। और यदि उनके विरोधी पार्टी अध्यक्ष चुने जाते हैं तो उनके लिए एक दिन भी सरकार चलाना मुश्किल हो जाएगा। एक ओर लगातार दक्षिणपंथ की ओर बढ़ते विश्व में मैर्केल के उदारवादी नेतृत्व की कमी खलेगी तो दूसरी ओर यूरोप में आप्रवासी और आर्थिक मुद्दों पर जारी टकराव खत्म होने की संभावना बनेगी। वित्तीय संकट का सामना करने वाले कई यूरोपीय देश मैर्केल की बचत नीति से सहमत नहीं थे और उसे ही अपने संकट का कारण मान रहे थे। आप्रवासियों के मुद्दे पर यूरोपीय संघ में बंटवारे के सवाल पर यूरोप बंटा था। अब उसका समाधान संभव होगा। अंगेला मैर्केल ने अपना फैसला कर लिया है। अब उनकी विरासत का फैसला इतिहास करेगा।
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