हर साल जैसे ही पारा 40 डिग्री सेल्सियस के पार जाने लगता है, बिहार में मौतों का आंकड़ा भी बढ़ने लगता है। इन दिनों प्रदेश में इंसेफलाइटिस का कहर अभिशाप बनकर मासूमों की जिदंगी छीन रहा है। इनमें सबसे ज्यादा संख्या मुजफ्फरपुर की है। यहां अब तक 130 से ज्यादा बच्चे बीमारी की चपेट में आकर दम तोड़ चुके हैं। गौरतलब है कि इस जिले को ‘लीची का कटोरा’ नाम से जाना जाता है। चर्चा है कि लीची खाने से ही चमकी बुखार (Acute Encephalitis Syndrome) का ख़तरा पैदा हो रहा है। लेकिन, क्या वाकई लीची खाने से इंसेफलाइटिस की बीमारी फैल रही है? एक्सपर्ट्स की मानें तो लीची खाने से इंसफेलाइटिस या चमकी बुखार नहीं होता। यह मात्र एक भ्रम है। जानकार इसके पीछे तीन प्रमुख वजह बताते हैं- गर्मी, ग़रीबी और गांव। इसमें गर्मी के साथ-साथ ह्यूमिडिटी (उमस) को भी वजह माना जा रहा है।

अगर गर्मी की बात करें तो ऐसा नहीं कि पारा सिर्फ मुजफ्फरपुर में ही 40 के पार जाता है और गरीबी सिर्फ यहीं केंद्रित नहीं है। फिर यहां पर AES से मौत का आंकड़ा इतना अधिक क्यों है? द इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में मुजफ्फरपुर स्थित श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज (KMCH) के शिशु रोग विभाग के प्रमुख डॉक्टर जीएस साहनी इस सवाल का जवाब देते हैं। साहनी का के मुताबिक 38 से 40 डिग्री सेल्सियस के बावजूद दिन के मुकाबले रात में भी ह्यूमिडिटी 60 फीसदी तक मुजफ्फरपुर में होती है। यही तथ्य बाकी जगहों से इसे अलग करता है और इसी का परिणाम है कि AES के लिए यह इलाका सबसे ज्यादा संदिग्ध है। जबकि, राजस्थान के बाड़मेर में भीषण गर्मी के बाद रात को तापमान काफी नीचे चला जाता है।

डॉक्टर साहनी बताते हैं कि इंसेफलाइटिस से पीड़ित बच्चों के खून के नमूने लिए गए हैं। इसके अध्ययन से पता चलता है कि यह वायरल इंफेक्शन नहीं है। ऐसी सूरत में मरीज जितना जल्दी अस्पताल आएगा, उसके बचने की संभावना उतनी ही अधिक होगी। द इंडियन एक्सप्रेस के साथ ही बातचीत में डॉक्टर जीएस साहनी लीची के साथ बीमारी के कनेक्शन पर भी अपनी बात रखते हैं। उनका कहना है, “हमने रिपोर्ट किया है, यहां एक साल के बच्चे की मौत AES की वजह से हुई है। क्या वह लीची खा सकता है? अधिकांश मौतों का आंकड़ा एक से लेकर 3 साल के बीच में है। इस उम्र के बच्चे विरले ही लीची खा सकते हैं। लीची के भीतर मौजूद टॉक्सीन लीवर टॉक्सीन लेवल को असामान्य कर देता है। जबकि AES मरीजों का लीवर टॉक्सीन हाई रहता है। हमारे यहां आने वाले 80 फीसदी मरीजों ने लीची नहीं खाई थी।”

हालांकि, AES (चमकी बुखार) से पीड़ित अगर बच्चा जिंदा बच जाता है, तो उसे भविष्य में कई स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। डॉक्टर साहनी के मुताबिक, “हमने पाया है कि 3 से 4 फीसदी मामलों में यादाश्त को नुकसान पहुंचता है और अस्थाई रूप से आंखों की रौशनी का कम होने का ख़तरा रहता है।”