यशी

इजरायल-फिलिस्तीन विवाद की रोशनी में रक्तपात का नया अध्याय लिखा जा रहा है। इजरायल और फिलिस्तीन के बीच क्या विवाद है, यह हालिया युद्ध के बाद से कई बार बताया गया है। फिलिस्तीनियों का कहना है कि इजरायल ने उनकी जमीन पर जबरन कब्जा किया है। इजरायल का दावा है कि यह उनकी पवित्र भूमि है, इसलिए उनका पूरा अधिकार है।

इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि इजरायल में यहूदियों का आना ‘सबसे पहले’ कैसे शुरू हुआ? मई 1948 में इजरायल के निर्माण की आधिकारिक घोषणा से पहले, इसके लिए मंच कैसे तैयार किया गया था? ब्रिटिश और शक्तिशाली अरब लोगों ने इसमें क्या भूमिका निभाई थी?

‘इजरायल’ नाम कहां से आया?

हिब्रू बाइबिल के अनुसार, ईश्वर ने इब्राहिम के पोते जैकब का नाम ‘इजरायल’ रखा था। इब्राहिम को ही तीनों इब्राहीमी धर्म (यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म) का पितामह माना जाता  है। इब्राहिम के वंशज कनान में बस गए, जो मोटे तौर पर आधुनिक इजरायल का क्षेत्र है।

यहूदियों का उत्पीड़न और अलग देश की मांग

कनान पर यूनानी, रोमन, फारसी, क्रुसेडर्स, इस्लामिक और कई अन्य साम्राज्यों का शासन रहा। हम बीच की अनेक सदियों को छोड़कर सीधे 19वीं सदी के अंत में आते हैं। तब कनान की भूमि पर ऑटोमन एंपायर का शासन था। यहूदी धर्म को मानने वाले दुनिया के अलग-अलग देशों में रह रहे थे। ज्यादातर जगहों पर वे अल्पसंख्यक थे, लेकिन समृद्ध। हालांकि समृद्धि के बावजूद उनका उत्पीड़न होता था, खासकर यूरोप में यह ज्यादा देखने को मिला।

रूस में राजशाही के दौरान 1880 के दशक में यहूदियों को निशाना बनाया गया। उनका नरसंहार तक किया गया। 1894 में फ्रांस में एक यहूदी सैनिक को गलत तरह से इस बात का दोषी साबित किया गया कि उसने जर्मनी को महत्वपूर्ण जानकारी दी थी। इस घटना के बाद यहूदी समुदाय में यह भावना पनपने लगी कि जब तक उनके अपना कोई देश नहीं होगा तब तक वे सुरक्षित नहीं होंगे। इसी भावना ने आंदोलन का रूप लिया और एक यहूदी देश बनाने की कोशिश शुरू हुई। इसे ही Zionism कहा जाने लगा।

युगांडा और अर्जेंटीना को अपना देश बनाने वाले थे यहूदी

1896 में ऑस्ट्रो-हंगेरियन पत्रकार थियोडोर हर्ज़ल ने ‘डेर जुडेनस्टाट’ नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की। पुस्तिका में यहूदी राष्ट्र को लेकर हर्ज़ल का दृष्टिकोण था। इस पैम्फलेट को इतनी लोकप्रियता मिली कि हर्ज़ल को Political Zionism का जनक कहा जाने लगा।

शुरुआत में युगांडा और अर्जेंटीना जैसे देशों को यहूदियों की मातृभूमि के लिए संभावित स्थान माना जा रहा था। हालांकि, राय जल्द ही फिलिस्तीन पर तय हो गई, जहां एक समय यहूदियों का ‘बाइबल होम’ था और जहां उनके कई पवित्र स्थल अब भी मौजूद थे।

प्रथम विश्व युद्ध के पहले से फिलिस्तीन में बसने लगे थे यहूदी

जल्द ही फिलिस्तीन में यहूदियों का प्रवास (अलियाह) शुरू हो गया। पलायन की पहली लहर का समय 1881 से 1903 के बीच माना जाता है। इसे प्रथम अलियाह के रूप में भी जाना जाता है। प्रवासियों ने बड़े पैमाने पर जमीन की खरीद शुरू की, जिस पर वह खेती करने लगे।

इस समय फिलिस्तीन विशाल और सुशासित ओटोमन साम्राज्य का केवल एक प्रांत था। ऐसे में यह जरूरी नहीं कि वहां के निवासी खुद को ‘फिलिस्तीनी’ कहते हो। जमींदारी का हाल यह था कि जमींदार अपनी जमीन से बहुत दूर रहते थे। यहूदियों को ऐसे ही जमींदार जमीन बेचे रहे थे, जो उन हिस्सों में रहते नहीं थे। स्थानीय निवासी और वहां के असली किसान बहुत कम पढ़े-लिखे थे। ऐसे में इस पूरे खेल में उनकी कोई भूमिका नहीं थी।

नए निवासियों को लेकर जल्द ही यह समझ आ गया कि वे यहां घुलने-मिलने के लिए नहीं आए हैं। हमेशा से फिलिस्तीन में रहने वाले यहूदियों के विपरीत, ये नए निवासी बहुत कम अरबी बोलते थे और केवल आपस में ही घुलते-मिलते थे। पहले लोग अरब मजदूरों से अपने खेत का काम करवाते थे। लेकिन जैसे-जैसे अधिक से अधिक यहूदी आने लगे, यह भी दुर्लभ हो गया।

इसके अलावा पहले जब जमीन बदल जाती थी यानी मालिक किसी और को जमीन बेचता था, तो जमीन पर पहले से रहने या काम करने वाले नए मालिक के अधीन काम करने लगते थे। लेकिन, जब कोई यहूदी जमीन खरीदता था, तो अरब किरायेदारों को अक्सर जाने दिया जाता था, उन्हें घर और समुदाय से बेदखल कर दिया जाता था।

यहूदी कई अन्य तरीकों से अपनी अलग और श्रेष्ठ पहचान स्थापित करने लगे। उन्होंने कृषि का मशीनीकरण किया और बिजली लेकर आए। उन्होंने स्थानीय तरीकों को नहीं अपनाया। उनके शहर और बस्तियां यूरोपीय तरीके के होते थे। तेल अवीव, जिसकी स्थापना 1909 में हुई थी, वह अपने अरब पड़ोस से अलग चमकता था। इजरायल में उद्यम को रोथ्सचाइल्ड परिवार जैसे विदेशों में धनी यहूदियों द्वारा फंड किया जा रहा था।

इन प्रत्यक्ष बदलावों के मद्देनजर नवागंतुकों के प्रति स्थानीय चिंता और आक्रोश बढ़ गया। तुर्क अधिकारियों ने विदेशी यहूदियों को जमीन बेचने पर रोक लगा दी। लेकिन यह आदेश कभी भी प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया। 1908 में यंग तुर्क क्रांति ने ऑटोमन एंपायर को उखाड़ फेंका। इसके बाद यहूदियों के बसने का पूरा प्रोग्राम अधिक सुव्यवस्थित हो गया। फिलिस्तीन के बाहर अन्य देशों में यहूदियों ने अपने उद्देश्य के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल करने का काम शुरू कर दिया।

द बालफोर डिक्लेरेशन

जिस चीज ने पश्चिम एशिया का चेहरा हमेशा के लिए बदल दिया, वह था 1917 का बालफोर डिक्लेरेशन। तब एक ब्रिटिश अधिकारी द्वारा एक धनी ब्रिटिश यहूदी को भेजे गए पत्र ने लाखों फिलिस्तीनियों के भाग्य पर मुहर लगा दी थी। प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार को यहूदियों के सपोर्ट की जरूरत थी। इसके लिए विदेश सचिव आर्थर जेम्स बालफोर ने Zionism का सपोर्ट कर दिया। Zionism का हमेशा से मूल उद्देश्य यहूदी देश का निर्माण करना था।

बालफोर ने बैरन लियोनेल वाल्टर रोथ्सचाइल्ड को लिखे पत्र में कहा: “महामहिम की सरकार फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक देश की स्थापना के पक्ष में है। सरकार इसके लिए पूरा प्रयास करेगी।…”

अब तक फिलिस्तीनी राष्ट्रवाद बढ़ रहा था। बढ़ते यहूदी प्रभाव के विरोध में विभिन्न समूह और संगठन सामने आए थे। हालांकि, ये गुटबाजी से ग्रस्त थे। इनमें यहूदी निकायों की तरह संगठनात्मक कौशल और फोकस का अभाव था। इसके अलावा, लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष ने दोनों समुदायों के बीच शत्रुता और अविश्वास पैदा कर दिया था। आए दिन हिंसा की छिटपुट घटनाएं होने लगी थीं।

पार्ट-2 का फीचर इमेज

भारत ही नहीं अंग्रेजों ने फिलिस्तीन के बंटवारे का भी बनाया था प्लान, UN यहूदियों को दे रहा था 55% जमीन, पढ़िए कब्जे की कहानी का पार्ट-2 (पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें)