Uttar Ramayan : प्रभु श्री राम की आज्ञानुसार उनके भक्त और छोटे भाई लक्ष्मण सीता माता को वन में छोड़ आए हैं। किंतु वो बहुत ज्यादा उदास हैं। वन में लेकर जाते वक्त वो सीता माता से कहते हैं कि मैं आपके साथ यहीं रहूंगा। लेकिन सीता माता उन्हें समझा कर अयोध्या भेज देती हैं और खुद ऋषि वाल्मीकि की शरण में चली जाती हैं जहां उन्हें वन देवी नाम मिल जाता है।
वहीं राज धर्म और मर्यादा में जकड़े हुए राम की हालत देख जनक भावुक हो जाते हैं। राम, जनक से कहते हैं कि आपके मन में बहुत सारे प्रश्न होंगे। आप पुत्री के पिता होने के नाते पूछना चाहते होंगे कि सीता का दोष क्या था। आप मुझपर अमानवीय और स्त्री पर अत्याचार का आरोप लगाना भी चाह रहे होंगे लेकिन एक पुत्री के पिता होने के चलते कुछ भी पूछने में संकोच कर रहे हैं। मैं सोचा करता था कि एक दिन आप सारे प्रश्न पूछने अवश्य आएंगे तो मैं क्या उत्तर दूंगा। आप जितने भी आरोप लगाना चाहते हैं वह सभी सत्य है। मैं परम् दोषी हूं। मैं आपका और सीता का दोषी हूं। जो दंड देना चाहते हैं सब स्वीकार है।
जनक राम से कहते हैं- राम दंड तो स्वयं तुम अपने आप को दे रहे हो। इससे अधिक मैं दंड क्या दूंगा। मैं विधि का ये खेल देख रहा हूं कि किस प्रकार एक महामानव उस पाप का दंड भोगता है जो पाप उसने किया ही नहीं है। एक राजा अपने राजमहल में रहते हुए भी साधु हो चुका है। राम तुम्हारे इस अवस्था से पीड़ा होती है। राम कहते हैं जो वन में मारी मारी भटक रही होगी, उसकी तरफ आपका ध्यान ही नहीं जाता है। जनक कहते हैं वह निःसहाय नहीं है उसके साथ उसका धर्म है।
राम जनक से कहते हैं क्या आप सीता से मिले। जनक कहते हैं कि नहीं मुझे उसी रात उसने बता दिया था। जाने से पहले जब उसने त्याग का निर्णय लिया, तब उसने मुझे पत्रिका भेजी थी। उसने अपना निर्णय और कारण का विवरण लिखा था। राम कहते हैं कि फिर आपने आकर उसका निर्णय बदलने का प्रयास क्यों नहीं किया। जनक कहते हैं कि तुम्हारे प्रयास क्या कम थे। राम कहते हैं कि सीता ने अपने तर्क से परास्त कर दिया था। इस पत्रिका को पढ़कर सीता की पूजा और वंदना करने को मन करता है। जनक सीता द्वारा लिखे पत्रिका को राम को भेंट करते हैं। सीता ने पिता को राम से ना मिलने की शपथ दिलाई थी। उनसे कोई भी प्रश्न ना पूछने को कहा था, ताकि राम को लज्जित ना होना पड़े..
जनक राम से कहते हैं सीता के आदेश का पालने करने मैं आया हूं। जनक कहते हैं कि सीता ने मुझे पत्रिका भेजी थी और उसी रात सबकुछ बता दिया था। उसने अपना निर्णय और कारण का विवरण लिखा था। राम कहते हैं कि फिर आपने आकर उसका निर्णय बदलने का प्रयास क्यों नहीं किया। जनक कहते हैं कि तुम्हारे प्रयास क्या कम थे। राम कहते हैं कि इस पत्रिका को पढ़कर सीता की पूजा और वंदना करने को मन करता है।
जनक राम से कहते हैं- राम दंड तो स्वयं तुम अपने आप को दे रहे हो। इससे अधिक मैं दंड क्या दूंगा। मैं विधि का ये खेल देख रहा हूं कि किस प्रकार एक महामानव उस पाप का दंड भोगता है जो पाप उसने किया ही नहीं है। एक राजा अपने राजमहल में रहते हुए भी साधु हो चुका है। राम तुम्हारे इस अवस्था से पीड़ा होती है।
राम जी राजा जनक से कहते हैं कि आप मुझपर अमानवीय और स्त्री पर अत्याचार का आरोप लगाना भी चाह रहे होंगे लेकिन एक पुत्री के पिता के होने के चलते कुछ नहीं पूछ पा रहे हैं। मैं सोचा करता कि एक दिन सारे प्रश्न पूछने अवश्य आएंगे तो मैं क्या उत्तर दूंगा। राम आगे कहते हैं-एक ही उत्तर है। आप जितने भी आरोप लगाना चाहते हैं वह सभी सत्य है। मैं परम् दोषी हूं। मैं आपका और सीता का दोषी हूं। जो दंड देना चाहते हैं सब स्वीकार है।
मिथिला नरेश राजा जनक और सीता जी के पिता राज जनक अयोध्या पहुंच चुके हैं। राजा जनक अयोध्या महल में राम का जमीन पर पड़ा विस्तर देखकर भावुक हो जाते है। राजा जनक को देखकर राम कहते हैं आपके मन में बहुत सारे प्रश्न होंगे। आप पुत्री के पिता होने के नाते मुझसे सवाल पूछना चाहते होंगे।
सीता जी को व्याकुल देखकर ऋषि वाल्मीकि को ये प्रतीत हो जाता है कि सीता को किसी बात की चिंता सता रही है। जब वो सीता जी से इस बारे में पूछते हैं तो वो कहती हैं कि उनका मन न चाहते हुए भी प्रभु राम के पास अयोध्या में चला जा रहा है। ऋषि कहते हैं कि मन का स्वभाव होता है भटकना लेकिन हमें अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए नही तो ये मन भी अपनी तरह हमे भटकाता ही रहेगा।
सीता का शरीर तो आश्रम मेंं है लेकिन उनका मन अभी भी प्रभु राम में लगा हुआ है। ऐसे में पल पल सीता जी को राम की याद सता रही है और वो खुदको चाहकर भी राम जी की यादों से अलग नही कर पा रही हैं।
सीता जी ने वाल्मीकि आश्रम में आश्रय लिया है। सीता जी को देख पूरे आश्रम की हवा बदल जाती है और हर तरफ खुशियां बिखरने लगती है। वाल्मीकि कहते हैं कि तीनों लोकों की वंदनीय आज मेरी पुत्री है। मुझसे बड़ा भाग्यवान कौन है सीता।
निर्जन वन में भटकते हुए सीता का सामना वाल्मीकि से होता है। सीता का ऋषि तहे दिल से स्वागत करते हैं सीता कहती हैं कि आपने आश्रयहीन को आश्रय दिया इसके लिए धन्यवाद। ये तो मेरे पूर्वजों के सत्कर्मों का फल होगा कि मैं आपके चरणों में आई। वहीं ऋषि कहते हैं कि तीनों लोकों की वंदनीय आज मेरी पुत्री है। मुझसे बड़ा भाग्यवान कौन है सीता। सीता कहती हैं कि नहीं मुझे सीता ना बुलाएं। इस नाम को मैं त्याग कर चुकी हूं। मुझे पुत्री के रूप में स्वीकार करें।
सीता जी लक्ष्मण से कहती हैं कि अगर मुझे मां कहा है तो मां की आज्ञा का पालन करो। सीता एक लकीर खींचती हैं और लक्ष्मण से कहती हैं कि एक दिन तुमने लकीर खींचकर मुझे उससे बाहर आने को मना किया था। आज मैं ये सीमा बांधकर तुम्हें आज्ञा देती हूं। तुम्हें मेरी शपथ है इसे लांघकर मेरे पीछे मत आना। सीता अयोध्यावासियों के लिए आशीर्वाद और मंगलकामना देकर वन की ओर चली जाती हैं।
लक्ष्मण भावुक होकर सीता से राजमहल नहीं लौटने की जिद करते हैं। सीता लक्ष्मण को समझाते हुए कहती हैं कि मुझे छोड़कर चले जाओ। इस समय तुम्हें केवल भैया की चिंता होनी चाहिए। मुझे केवल तुम्हारे भैया की चिंता है। तुम उन्हें संभाल लेना। कहीं ऐसा ना हो कि इस त्याग के पश्चात...।
सीता के बारे में सोचकर प्रभु राम काफी व्याकुल हैं। राम को लगातार सीता की चिंता सती रही है। राम अकेले मेें खड़े होकर माता सीता का चिंतन कर रहे हैं उनका पूरा ध्यान और मन सीता पर ही लगा हुआ है।
इससे पहले हम देख चुके हैं कि सीता रात को अयोध्या छोड़ वन में जाने की इच्छा के बारे में बताती हैं। सीता, राम से कहती हैं कि लोग क्या कहेंगे कि बलिदान का समय आया तो राजा क्या भोग विलास त्याग नहीं कर पाए। सीता राम से कहती हैं कि जब हम अकेले होंगे एक दूसरे के मन की बात कर लेंगे। एक दूसरे का गीत सुन लेंगे। मैं यही प्रमाणित करना चाहती हूं कि स्त्री अबला का रूप नहीं।
जनक राम से कहते हैं सीता का आदेश पालने आया हूं। राम कहते हैं क्या आप सीता से मिले। जनक कहते हैं कि नहीं मुझे उसी रात उसने बता दिया था। जाने से पहले जब उसने त्याग का निर्णय लिया, तब उसने मुझे पत्रिका भेजी थी। उसने अपना निर्णय और कारण का विवरण लिखा था। राम कहते हैं कि फिर आपने आकर उसका निर्णय बदलने का प्रयास क्यों नहीं किया। जनक कहते हैं कि तुम्हारे प्रयास क्या कम थे। राम कहते हैं कि सीता ने अपने तर्क से परास्त कर दिया था। इस पत्रिका को पढ़कर सीता की पूजा और वंदना करने को मन करता है। जनक सीता द्वारा लिखे पत्रिका को राम को भेंट करते हैं। सीता पिता को राम से ना मिलने की शपथ दिलाई थी। उनसे कोई भी प्रश्न ना पूछने को कहा था, ताकि राम को लज्जित ना होना पड़े..
जनक राम से कहते हैं- राम दंड तो स्वयं तुम अपने आप को दे रहे हो। इससे अधिक मैं दंड क्या दूंगा। मैं विधि का ये खेल देख रहा हूं कि किस प्रकार एक महामानव उस पाप का दंड भोगता है जो पाप उसने किया ही नहीं है। एक राजा अपने राजमहल में रहते हुए भी साधु हो चुका है। राम तुम्हारे इस अवस्था से पीड़ा होती है। राम कहते हैं जो वन में मारी मारी भटक रही होगी, उसकी तरफ आपका ध्यान ही नहीं जाता है। जनक कहते हैं वह निःसहाय नहीं है उसके साथ उसका धर्म है।
जनक अयोध्या पहुंचते हैं। वह महल में राम का जमीन पर पड़ा विस्तर देख भावुक हो जाते है। वहीं राम कहते हैं आपके मन में बहुत सारे प्रश्न होंगे। आप पुत्री के पिता होने के नाते पूछना चाहते हैं कि किस कारण, उसका दोष क्या था। आप मुझपर अमानवीय और स्त्री पर अत्याचार का आरोप लगाना भी चाह रहे होंगे लेकिन एक पुत्री के पिता के होने के चलते कुछ नहीं पूछ पा रहे हैं। मैं सोचा करता कि एक दिन सारे प्रश्न पूछने अवश्य आएंगे तो मैं क्या उत्तर दूंगा। राम आगे कहते हैं-एक ही उत्तर है। आप जितने भी आरोप लगाना चाहते हैं वह सभी सत्य है। मैं परम् दोषी हूं। मैं आपका और सीता का दोषी हूं। जो दंड देना चाहते हैं सब स्वीकार है।
राजमहल वापस लौटे लक्ष्मण से राम कहते हैं- भैया मेरे लिए धरती पर एक घास का बिछौना बना दो। सीता भी तो ऐसे ही बिछौने पर सो रही होगी। मेरा निजी जीवन भी उसी के समान हो। जो निजी सुख पत्नी के साथ नहीं बांट सकता, उसका भोग ना करे। लक्ष्मण विलख कर रोने लगते हैं। लक्ष्मण बड़े भाई राम की आज्ञा का पालन करते हैं और जमीन पर उनका सोने का विस्तर लगाते हैं। राम उस विस्तर पर सोते हैं और सीता वियोग में खो जाते हैं...। उधर, वन में लेटे हुए सीता को भी श्रीराम की याद सताती है।
वाल्मीकि द्वारा आश्रय देने के बाद सीता कहती हैं- ये तो मेरे पूर्वजों के सत्कर्मों का फल होगा। ऋषि कहते हैं- तीनों लोकों की वंदनीय आज मेरी पुत्री है। मुझसे बड़ा भाग्यवान कौन है सीता। सीता कहती हैं कि नहीं मुझे सीता ना बुलाएं। इस नाम को मैं त्याग कर चुकी हूं। मुझे पुत्री के रूप में स्वीकार करें। वाल्मीकि कहते हैं कि इस आश्रम से बाहर कोई नहीं जानेंगा। सीता कहती हैं कि आने वाले मेरे संतान भी ये जान ना पाएं कि मैं कौन हूं।
निर्जन वन में भटकते हुए सीता का सामना वाल्मीकि से होता है। वाल्मीकि अपने दिव्य दृष्टि से पहले ही सीता के आने की खबर मिल जाती है। सीता से ऋषि कहते हैं कि मैं दिव्य दृष्टि से सबकुछ देख चुका हूं। आपने जो वलिदान किया है वह महान है। आपको वाल्मीकि का प्रणाम। सीता कहती हैं कि आपने आश्रयहीन को आश्रय दिया।
सीता जी लक्ष्मण को बहुत समझाती हैं। सीता कहती हैं- अगर मुझे मां कहा है तो मां की आज्ञा का पालन करो। लक्ष्मण कहते हैं कि मैं आपकी हर आज्ञा मानूंगा। सीता कहती हैं। सीता एक लकीर खींचती हैं और लक्ष्मण से कहती हैं कि एक दिन तुमने लकीर खींचकर मुझे उससे बाहर आने को मना किया था। आज मैं ये सीमा बांधकर तुम्हें आज्ञा देती हूं। तुम्हें मेरी शपथ है इसे लांघकर मेरे पीछे मत आना। लक्ष्मण रोते रह जाते हैं। सीता अयोध्यावासियों के लिए आशीर्वाद और मंगलकामना देकर वन की ओर चली जाती हैं।
लक्ष्मण राजमलह नहीं लौटने की जिद करते हैं। सीता कहती हैं- इस समय अयोध्या से निकाली गई रानी खड़ी है प्रजा ने लांछन लगाया है कि वह राणव के घर रह कर आई है। सीता इतना ही कहती हैं कि लक्ष्मण उन्हें रोक देते हैं। कहते हैं ऐसी कोई बात करे तो भैया उसका जिह्वा ना काट लें। सीता कहती हैं मुझे छोड़कर चले जाओ। इस समय तुम्हें केवल भैया की चिंता होनी चाहिए। मुझे केवल तुम्हारे भैया की चिंता है। तुम उन्हें संभाल लेना। कहीं ऐसा ना हो कि इस त्याग के पश्चात...। तुम अभी लौट जाओ..।
मैं प्रमाणित करनपा चाहती हूं कि नारी अबला नहीं। श्रीराम कहते हैं कि इसके लिए नारी को विद्रोह करना चाहिए। सीता कहती हैं कि कौनसा अस्त्र शस्त्र इस्तेमाल करे? स्त्री का सबसे बड़ा शस्त्र है त्याग। प्रजा हमारी बच्चे जैसी है। उन्होंने ऐसा आरोप लगाया है, बलिदान देकर हम उन्हें पश्चाताप करवाएंगे।
23 अप्रैल के एपिसोड में देख चुके हैं कि सीता रात को अयोध्या छोड़ वन में निकल जाने की इच्छा राम के आगे रखती हैं। वह कहती हैं रात को निकल जाना ही उचित होगा। कहती हैं लोग क्या कहेंगे कि बलिदाना का समय आया तो राज का भोग विलास त्याग नहीं कर पाए। जब अकेले होंगे एक दूसरे के मन की बात कर लेंगे। एक दूसरे का गीत सुन लेंगे। राम कहते हैं,सीते इतने बड़े बलिदान को कितना सहज बना कर कह दिया है। लेकिन सोचे इतने बड़े वन में निःसहाय कैसे रहोगी। मैं यही प्रमाणित करना चाहती हूं कि स्त्री अबला का रूप नहीं।