भारत के संविधान निर्माता और दलितों के मसीहा कहे जाने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जीवन भर सामाजिक न्याय, समानता और मानव अधिकारों के लिए संघर्ष किया।
उन्होंने न केवल संविधान बनाया, बल्कि देश की सामाजिक व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव लाने की दिशा में भी अहम कदम उठाए। जाति-आधारित भेदभाव और छुआछूत की पीड़ा को उन्होंने बचपन से झेला और यही वजह थी कि वे अंत में धर्म परिवर्तन के रास्ते पर चले।
डॉ. आंबेडकर का जन्म एक दलित परिवार में हुआ था। जाति के कारण उन्हें जीवन भर अपमान और भेदभाव का सामना करना पड़ा। उन्होंने एक बार कहा था, "मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ हूं, लेकिन हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं।"
यह घोषणा 1935 में उन्होंने महाराष्ट्र के येवला में एक सम्मेलन के दौरान की थी। इसके बाद उन्होंने ऐसे धर्म की तलाश शुरू की जिसमें समानता, करुणा और स्वतंत्रता के मूल्य हों।
धर्म परिवर्तन से पहले डॉ. आंबेडकर ने इस्लाम और ईसाई धर्म सहित कई धर्मों का गहराई से अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि इस्लाम भी एक सीमित और संकीर्ण धार्मिक ढांचे में बंधा हुआ है। उनके अनुसार, इस्लाम में भी मुसलमान और गैर-मुसलमानों के बीच गहरा भेदभाव होता है।
शशि थरूर ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि डॉ. आंबेडकर इस्लाम को इसलिए नहीं चुन पाए क्योंकि यह एक "बंद धार्मिक व्यवस्था" जैसी प्रतीत होती थी, जहां सवाल पूछने या स्वतंत्र विचार की गुंजाइश कम थी।
इसके अलावा, पाकिस्तान बनने के बाद वहां अनुसूचित जातियों पर जबरन धर्म परिवर्तन का दबाव डालना भी एक कारण बना जिसने डॉ. आंबेडकर के विचार को और पुख्ता किया।
14 अक्टूबर 1956 को डॉ. आंबेडकर ने नागपुर में एक भव्य समारोह में करीब 3.65 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म को अपनाया। उनका मानना था कि बौद्ध धर्म तीन मूल तत्वों – प्रज्ञा (बुद्धिमत्ता), करुणा (दया) और समता (समानता) – पर आधारित है, जो एक इंसान के सम्मानजनक जीवन के लिए अनिवार्य हैं।
प्रज्ञा का अर्थ है अंधविश्वास और रूढ़ियों से ऊपर उठकर तर्क और ज्ञान के आधार पर सोचने की क्षमता। करुणा यानी सभी जीवों के प्रति सहानुभूति और संवेदनशीलता।
समता यानी जाति, धर्म, लिंग या किसी भी भेदभाव के बिना सभी को बराबरी का अधिकार। बौद्ध धर्म में इन मूल्यों की प्रधानता और सामाजिक न्याय की भावना ने ही डॉ. आंबेडकर को आकर्षित किया।