कश्मीर सिर्फ अपनी खूबसूरती के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी समृद्ध संस्कृति और परंपराओं के लिए भी जाना जाता है। इन्हीं परंपराओं में एक खास स्थान रखता है 'फेरन', एक ऐसा पारंपरिक परिधान जो आज भी हर कश्मीरी की जिंदगी का अहम हिस्सा बना हुआ है।
फेरन एक ढीला-ढाला लंबा कोट होता है जो आमतौर पर ऊनी कपड़े से बनाया जाता है। इसे पुरुष और महिलाएं दोनों पहनते हैं। पारंपरिक फेरन टखनों तक लंबा होता था, लेकिन अब इसका छोटा, घुटनों तक का वर्जन भी प्रचलन में है जिसे लोग पजामा या सुथान के साथ पहनते हैं।
फेरन की उत्पत्ति फारसी शब्द ‘पेराहन’ से मानी जाती है, जिसका अर्थ होता है ‘चोगा’ या ‘ढीली पोशाक’। इतिहासकारों का मानना है कि फेरन की शुरुआत कश्मीर में 15वीं सदी से पहले हुई थी।
कुछ इतिहासकार इसे मुगल बादशाह अकबर की देन मानते हैं, जिन्होंने 1586 में कश्मीर को जीतने के बाद यह पोशाक प्रचलित की। वहीं कुछ मानते हैं कि यह फारस और मध्य एशिया से आए सूफी संतों और मुस्लिम धर्मशास्त्रियों की पोशाक से प्रेरित है, जो बाद में कश्मीरी संस्कृति का हिस्सा बन गई।
कश्मीर की हाड़ कंपा देने वाली सर्दियों में जब तापमान माइनस में पहुंच जाता है, तब फेरन शरीर को गरम रखने का बेहतरीन माध्यम बनता है। मोटे ऊन से बना फेरन शरीर को पूरी तरह ढकता है और ठंडी हवाओं से बचाता है। इसके अंदर 'पूट्स' नामक हल्के कपड़े की एक और परत होती है जो ऊष्मा को बनाए रखने में मदद करती है।
कहा जाता है कि फेरन तब तक अधूरा है जब तक उसके अंदर कांगड़ी न रखी जाए। कांगड़ी एक मिट्टी का पात्र होता है जिसमें कोयले की अंगीठी रखी जाती है। इसे फेरन के अंदर रखा जाता है ताकि शरीर को भीतर से गर्म रखा जा सके। यह कश्मीरियों का चलता-फिरता हीटर है।
पहले फेरन को सिर्फ घरों में या खास मौकों पर पहना जाता था, लेकिन अब इसका स्टाइलिश अवतार युवाओं के बीच भी खूब लोकप्रिय हो रहा है। लड़कियां इसे जींस के साथ पहनती हैं, तो पुरुष भी इसे ऑफिस या कॉलेज में कैजुअल ड्रेस के रूप में अपनाने लगे हैं। इसमें अब टीला, जरदोजी, अरी और सोजनी जैसी पारंपरिक कढ़ाइयों का खूबसूरत मेल देखने को मिलता है।
एक और खास बात ये है कि फेरन न सिर्फ गरम और आरामदायक होता है बल्कि महंगे ऊनी कपड़ों के मुकाबले यह कहीं अधिक सस्ता और लंबे समय तक चलने वाला पहनावा है। यही वजह है कि कश्मीर में हर वर्ग के लोग इसे पसंद करते हैं।