कथा बुद्ध के जीवन से जुड़ी है। बहुत प्रचलित कथा है। सभी ने कभी न कभी सुनी होगी। घने जंगल में जब बुद्ध की मुलाकात अंगुलीमाल से हुई। अंगुलीमाल उस समय का कुख्यात डाकू था। घने जंगल से गुजरते लोगों का माल लूटता, उनकी हत्या करता और निशानी के तौर पर उनकी एक अंगुली काट कर अपने गले की माला में गूंथ लेता। गले में लटके कीमती पत्थर और स्वर्ण आभूषण ही अहंकार को तोष नहीं देते, हिंसा की निशानियां भी दिया करती हैं।
दरअसल, लोगों को मार कर उनकी अंगुली निशानी के तौर पर पहनने से अंगुलीमाल के अहंकार को तोष मिलता था। मनुष्य इसी तरह अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए कोई न कोई निशानी, बल्कि निशानियां, जमा करता रहता है। अंगुलीमाल भी करता था।
जब वह बुद्ध से मिला, तो उन्हें भी मार कर उनकी अंगुली गले में धारण करना चाहता था। मगर बुद्ध ने पूछा, यह सब किसके लिए करते हो। उसने कहा, परिवार के लिए। बुद्ध ने पूछा कि यह जो तुम पाप करते हो, क्या परिवार उसमें भागीदार बनेगा। अंगुलीमाल परिवार के लोगों से पूछने भागा। पूछ कर निराश लौटा। किसी ने भी उसके पाप में भागीदारी निभाने की हामी नहीं भरी। वह गिर पड़ा बुद्ध के चरणों में
ऐसे ही हर कोई, कोई न कोई बहाना पकड़ कर अपने मन की मनमानियां करता रहता है। जो जानते हैं कि वे गलत कर रहे हैं, वे अपने गलत को सही सिद्ध करने के लिए कुछ सिद्धांत गढ़ लेते हैं। जैसे अंगुलीमाल ने अपने अपराध को ढंकने के लिए परिवार के पोषण का सिद्धांत गढ़ लिया था।
आज भी परिवार के अच्छे पालन-पोषण का सिद्धांत पकड़ कर न जाने कितने लोग भ्रष्टाचार में सहज ही लिप्त हो जाते हैं। फिर उन अनियमितताओं की निशानियां जमा करते फिरते हैं- एक मकान, दूसरा मकान, आलीशान कोठी, महंगी गाड़ियां, महंगे वस्त्र और जेवर, रत्न-आभूषण।मगर विडंबना, कि अंगुलीमाल को तो अपने किए का ज्ञान प्राप्त हो गया था, बहुतों को सालों जेलों में सड़ने, असाध्य बीमारियों से जकड़ने के बाद भी ज्ञान प्राप्त नहीं होता। अपने किए को ताउम्र सही ठहराने की कोशिश करते रहते हैं।