1908 में उन्होंने गुजरात कालेज, अमदाबाद से विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1912 में प्रथम श्रेणी से कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1913 में वकालत के पेशे में प्रवेश किया। कुछ ही समय के भीतर उन्होंने एक प्रमुख वकील के रूप में पहचान बना ली। वे अपने कानूनी कार्यकलापों के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में गहरी रुचि रखते थे।
गुजरात के कई प्रमुख सामाजिक संगठनों से जुड़े थे। उन्होंने 1913 में गुजरात एजुकेशन सोसाइटी के मानद सचिव का पद संभाला और 1916 में गुजरात सभा के सचिव भी रहे। 1920 के दशक में वे स्वराज पार्टी से जुड़े, लेकिन बाद में कांग्रेस में लौट आए। 1920 के दशक से जब भी कोई प्राकृतिक आपदा, अकाल या अन्य सामाजिक या राजनीतिक संकट आया, मावलंकर लोगों की मदद के लिए सदा आगे आए।
इस तरह के सामाजिक काम करते हुए वे सरदार वल्लभभाई पटेल और महात्मा गांधी जैसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय नेताओं के संपर्क में आए। वे गांधी के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और 1921 में वकालत छोड़ कर असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। फिर गुजरात विद्यापीठ में एक अवैतनिक प्राध्यापक के रूप में नौकरी करने लगे और अमदाबाद कांग्रेस की स्वागत समिति के सचिव बन गए।
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के भी वे सचिव रहे थे। नमक सत्याग्रह में उन्होंने भूमिका निभाई, जिसके लिए उन्हें जेल जाना पड़ा था। वे सविनय अवज्ञा आंदोलन, व्यक्तिगत सत्याग्रह तथा भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी अनेक बार जेल गए और जेल में रहते हुए उन्होंने खूंखार अपराधियों को सुधारने का काम किया।
जेल यात्रा के दौरान देखी कैदियों की वास्तविक परिस्थितियों पर गुजराती में लिखी उनकी पुस्तक ‘मानवतन झरन’ बेहद लोकप्रिय रही। बाद में इस किताब का अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद किया गया।
1937 में वे मुंबई व्यवस्थापिका परिषद के सदस्य चुने गए तथा उसके अध्यक्ष भी बने। 1946 में केंद्रीय व्यवस्थापिका के सदस्य चुने गए। पंढरपुर के प्रसिद्ध मंदिर में हरिजनों के प्रवेश के लिए हुए सत्याग्रह के अगुआ भी वही थे। खादी आदि रचनात्मक कार्यों में उनका निरंतर सहयोग रहा।
बाद में 1946 में, उन्हें केंद्रीय विधानसभा की अध्यक्षता करने के लिए चुना गया। मावलंकर 14 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि तक केंद्रीय विधानसभा के अध्यक्ष रहे। उसके बाद भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के तहत, केंद्रीय विधान सभा और राज्यों की परिषद का अस्तित्व समाप्त हो गया और भारत की संविधान सभा ने देश के शासन के लिए पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिए।
भारत की स्वतंत्रता के मद्देनजर, मावलंकर ने संविधान सभा की भूमिका को अपनी विधायी भूमिका से अलग करने की आवश्यकता पर अध्ययन और रिपोर्ट करने के लिए समिति का नेतृत्व किया। वे सत्ता के विकेंद्रीकरण और पंचायती राज संस्थानों की प्रभावशीलता में दृढ़ विश्वास रखते थे।
1946 से 1956 तक भारतीय लोकसभा के अध्यक्ष रहे। नवस्वतंत्र राष्ट्र की पहली लोकसभा के स्पीकर के रूप में उन्होंने न केवल कई नए नियमों और प्रक्रियाओं को पेश किया, बल्कि उन्होंने संशोधित भी किया। सदन के सभी वर्गों के लिए वे हमेशा सहानुभूतिपूर्ण और निष्पक्ष थे। उन्होंने मराठी, गुजराती और अंग्रेजी भाषा में अनेक ग्रंथ भी लिखे हैं।