सत्यदेव दुबे देश के उन गिने-चुने रंगकर्मियों में थे, जिन्होंने रंगमंच को अपनी जातीय चेतना और कला-परंपरा से जोड़ने का काम किया। वे देश में हिंदी के अकेले नाटककार थे, जिन्होंने अलग-अलग भाषाओं के नाटकों को हिंदी में लाकर उन्हें अमर कर दिया। उनका जन्म छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में हुआ था। शुरुआती दिनों में उनकी क्रिकेट के प्रति दीवानगी थी। वे क्रिकेट खिलाड़ी बनना चाहते थे।
दीवानगी ऐसी कि अपने सपनों को पूरा करने के लिए वे मुंबई चले गए। मगर उन्हें तो बनना कुछ और ही था। इसलिए संयोगवश उनकी मुलाकात भारतीय रंगमंच के पितामह कहे जाने वाले इब्राहीम अल्काजी से हो गई। फिर वे शौकिया तौर पर उनके द्वारा संचालित थिएटर से जुड़ गए और वहीं से सत्यदेव दुबे के जीवन की दिशा बदल गई। उनके साथ सत्यदेव दुबे ने मंच के गुर सीखे और कई सफल नाटक किए। अब वे नाटकों की दुनिया में रम गए थे।
जब अल्काजी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रमुख का पद संभालने दिल्ली चले गए, तो मुंबई में उनके रंगमंच की कमान सत्यदेव दुबे के हाथों में आ गई। तब तक वे चर्चित नाटककार और निर्देशक के रूप में पहचान बना चुके थे। वे ‘पगला घोड़ा’, ‘आधे अधूरे’ और ‘एवम इंद्रजीत’ जैसे नाटकों के माध्यम से काफी लोकप्रियता हासिल कर चुके थे। उन्हें सर्वाधिक प्रसिद्धि ‘अंधा युग’ ने दिलाई थी।
उन्होंने इस नाटक के सौ से ज्यादा शो किए। गिरीश कर्नाड के पहले नाटक ‘ययाति’ और ‘हयवदन’, बादल सरकार के ‘एवम इंद्रजीत’ और ‘पगला घोड़ा’, चंद्रशेखर कंबारा की ‘और तोता बोला’, मोहन राकेश के ‘आधे-अधूरे’ और विजय तेंदुलकर के ‘गिदहड़े’, ‘शांतता कोर्ट चालू आहे’ जैसे नाटकों का मंचन कर भारतीय रंगमंच में अतुलनीय योगदान दिया। उन्हें धर्मवीर भारती के रेडियो के लिखे नाटक ‘अंधा युग’ को रंगमंच पर उतारने का श्रेय दिया जाता है।
सत्यदेव दुबे ने दो लघु फिल्मों ‘अपरिचय के विंध्याचल’ और ‘टंग इन चीक’ का भी निर्माण किया और मराठी फिल्म ‘शांताताई’ का निर्देशन किया था। मराठी थिएटर में किए गए उनके काम ने उन्हें काफी प्रसिद्धि दिलाई। इतना ही नहीं, सत्यदेव दुबे को मराठी और हिंदी थिएटर में किए गए उनके व्यापक काम के लिए पद्मभूषण भी दिया गया था। अपने लंबे कार्यकाल के दौरान सत्यदेव दुबे ने आजादी के बाद लिखे गए सभी प्रमुख नाटकों का निर्देशन और प्रस्तुतिकरण किया था।
सत्यदेव दुबे ने श्याम बेनेगल की फिल्म ‘भूमिका’ के अलावा कुछ अन्य फिल्मों के लिए भी कहानी और संवाद लिखे थे। उनके द्वारा चलाए जाने वाले थिएटर कार्यशाला को पेशेवर और शौकिया तौर पर थिएटर करने वाले दोनों तरह के लोग समान रूप से पसंद किया करते थे।
निर्देशक के रूप में उन्होंने 1956 में काम शुरू किया था। उन्होंने कई मराठी और हिंदी फिल्मों का निर्देशन किया। सत्यदेव दुबे ने कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया था। उन्होंने अंकुर, निशांत, भूमिका, जुनून, कलयुग, आक्रोश, विजेता, मंडी आदि फिल्मों की पटकथा और संवाद लिखे।
उन्हें 1971 में संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार, 1978 में फिल्म ‘भूमिका’ के सर्वश्रेष्ठ पटकथा लेखन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, फिल्म ‘जुगनू’ के संवाद लेखन के लिए 1980 में फिल्म फेयर पुरस्कार और 2011 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। भारतीय रंग-परिदृश्य को बुनियादी तौर पर बदल देने वाली साठ और सत्तर के दशक की गतिविधियों में सत्यदेव दुबे का अतुलनीय और ऐतिहासिक योगदान रहा है, जिसे रंगकर्म को एक उत्तेजक, अर्थपूर्ण और समकालीन जीवन से जुड़ी हुई सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का दर्जा दिलाने के कारण नवजागरण के तौर पर याद किया जाता है।