राम जन्म पाठक
भारत के गांवों को देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक देख आइए। तब पता चलेगा कि भारत की आत्मा गांवों में नहीं बस्ती। जिस अंग्रेज यात्री के विवरणों को पढ़कर महात्मा गांधी को भारत की आत्मा को गांवों में बसने की समझ विकसित हुई होगी, उस अंग्रेज को किसी गांव में दस-पांच साल रहना चाहिए था। तब पता चलता कि हमारे कवियों को जो “अहा, ग्राम्य जीवन भी क्या है !” के सपने आते थे, उसकी हकीकत क्या है ?
जिन्होंने दीनता और दारिद्रय की वह दुर्लंघ्य विषुवतरेखा नहीं देखी है, वे जनमभर इंद्रधनुषी आवर्त में भटकते रहेंगे। सच तो यह है कि गांवों में भारत की आत्मा नहीं, जर्जर शरीर बसता है। रघुवीर सहाय का ‘हरचरना’ पहले भी फटा सुथन्ना पहनकर भारत-भाग्य-विधाता के गीत गाता था, अब भी गाता है। मैं बस्ती जिले के जिस गांव में पैदा हुआ था, वहां बुनियादी शिक्षा की हालत यह थी कि बीस-पच्चीस गांवों पर एक प्रायमरी स्कूल था। यानी तकरीबन पचास हजार की आबादी पर एक प्राथमिक स्कूल।
नागार्जुन ने ऐसे ही एक प्राथमिक शाला का वर्णन अपनी कविता में किया है :
‘घुन खाये शहतीरों पर की बारहखड़ी विधाता बांचे
फटी भीत है, छत चूती है आले पर बिसतुइया नाचे
बरसा कर बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में पांच तमाचे
इसी तरह दुखरन मास्टर गढ़ता है आदम के सांचे।’
नागार्जुन के स्कूल में कम से कम घुन खाई शहतीरें तो थीं।
हमारे प्राथमिक शाला में वह भी नहीं था। प्रायमरी पाठशाला, मल्हनी ( बस्ती) एक बाबा की कुट्टी में बरगद के पेड़ के नीचे चलती थी। बैठने का बोरा भी खुद ही लेकर जाना पड़ता था। यातना यह नहीं थी कि स्कूल में कोई छत नहीं थी, विकट यातना यह थी कि बरसात के दिनों में रास्ते में कमर तक पानी भर जाता था। वही सरयू मैया का पानी।
बच्चे यानी लड़के नंगधड़ंगे होकर, अपना बस्ता और कपड़ा हाथ में उठाकर पानी हिलकोरते हुए उस पार जाते। फिर कपड़ा पहनते, तब स्कूल जाते। इस त्रासदी को आप लड़कियों की शिक्षा से जोड़कर देखेंगे तो आपकी आंखें पथरा जाएंगी। लड़के तो फिर भी नंगे होकर पार निकल जाते थे, लड़कियां कैसे जातीं। ठीक है कि अशिक्षा, अंधविश्वास, चेतना का अभाव, भुखमरी भी लड़कियों के न पढ़ पाने के लिए जिम्मेदार थी, लेकिन यह स्थिति भी कम भयानक नहीं थी।
हमारे इलाके की लड़कियां निरक्षर ही रह जाती थीं। बड़े परिवारों के लोग अपनी बच्चियों को ट्यूशन देकर या कुछ चिट्ठी-पत्री लिखने भर पढ़ाकर विवाह की चिंता में जुट जाते थे। तो आधी आबादी का यह हाल केवल हमारा ही नहीं, पूरे देश का था। हमारा स्कूल गा़लिब के घर जैसा था। आसमां एक घंटा बरसा तो मकां दिन भर। हम तो बियाबां में हैं, घर में बहार आई है। दुखरन मास्टर की जगह एक मास्टर थे राम कुमार पांडे हमारी शाला में। वही स्वातंत्रयोत्तर भारत के आदम के बच्चों का सांचा गढ़ रहे थे।
महीने में दस दिन हम नहीं जाते थे, दस दिन मास्टर साहब नहीं आते थे, दस दिन स्कूल चलता था। एक टीचर पर पांच कक्षाओं का भार। तो उसी प्राथमिक शाला से मैंने कक्षा पांच टॉप किया था। लेकिन जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जाकर वहां भी बरगद का पेड़ देखा और लातीनी भाषा में लिखा उसका मोटो पढ़ा- QUOT RAMI TOT ARBORES ( जितनी शाखाएं, उतने वृक्ष)। तो मुझे अजीब सी हंसी आई। हमारी पाठशाला वाले बरगद के मुकाबले तो यह बरगद कुछ भी नहीं था। मैंने सोचा कि कोई बात नहीं, यहां भी बरगद ही है आखिर। बरगद होगा, तो बरगदी छांव भी होगी ही।
धूप-धूल-बारिश से कुछ तो बचूंगा ही। लेकिन, यह जो कुछ भी था, वह एक वैषम्य और भेदभाव ही था। सामाज में जातिगत, धर्मगत विषमता अभिशाप है तो इलाकाई विषमता भी कम अभिशाप नहीं है। आखिर, क्यों इलाहाबाद में विश्वविद्यालय है और गोंडा-बस्ती-बहराइच-श्रावस्ती जैसे इतने बड़े इलाके में एक भी विश्विवद्यालय नहीं है।
सराकारों की क्षेत्रों को लेकर जो विकास योजनाएं हैं, वे मनमानी और स्वेच्छाचारी हैं। हमारे इलाकों की जो बेटियां, पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनपढ़ रह गईं उनके भाग्य पर कौन रोएगा ! आप जैसा सोचते हैं, वैसा नहीं होता। आप सोचते हैं कि यहां पैर रख दूं, यहां धरती मजबूत है, लेकिन वह पोपली होती है। आप सोचते हैं कि आप के ऊपर छत है, तभी वह भरभरा पड़ती है। आप सोचते हैं कि आप ठीक-ठिकाने से हैं, तभी कोई आपको धक्का दे देता है।
इलाहाबाद के “अमृत प्रभात” में पत्रकारिता की शुरुआत हुई थी। चार पैसे मिलने शुरू ही हुए थे कि कुछ मांगों को लेकर हड़ताल हुई और हड़ताल इतनी लंबी चली कि मेरा सारा शीराजा बिखर गया। कुछ दिन यों ही फाकामस्ती में गुजरे। लेकिन, आप कितने भी फकीराना हों, कितने भी विचारवाले हों, शाम को, बकौल उदय प्रकाश ‘पतीली में खौलता हुआ अदहन, मांगता है अन्न।”
मई-जून का महीना था। मैंने सब सामान समेटा और सोचा कि अब सवेरे सिविल लाइंस से बस पकड़ूंगा और निकल जाऊंगा घर। फिर देखा जाएगा। कुछ खेत-बारी आजमाऊंगा। मन विगलित, आत्मा बेचैन। क्या करने आए थे, क्या करके जा रहे हैं।
काबा मेरे आगे थे, कलीशा मेरे पीछे। नहीं, यह उपमा गलत है। यहां न सुधि सीता कै पाई। वहां गए मारें कपिराई। “रामचरितमानस” मानस में अंगद कहते हैं कि जिस सीता को खोजने निकले थे, वे तो मिलीं नहीं। लौट कर जाएंगे तो वानरराज सुग्रीव प्राण हर लेंगे।” कह अंगद लोचन भरि बारी। दुंह प्रकार भई मृत्यु हमारी।” तो हाल यह था– न खुदा ही मिला, न विसाले-सनम।
मैंने साइकिल उठाई और सोचा कि सिविल लाइंस के ‘लक्ष्मी बुक’ हाउस से ‘हंस’ खरीद लूं। गांव में कुछ तो पढ़ूंगा। अपने परिचित अड्डे माधुरी मिष्ठान्न भंडार पर जाकर चिंतातुर, मुंह लटकाए बैठ गया। तभी उसके मालिक बंगाली दादा ने बताया कि ‘अमर उजाला’ के मालिक अजय अग्रवाल आए हैं, किसी होटल में ठहरे हैं। जाकर मिल लो। यह तो और भी मुश्किल। इलाहाबाद में इतने होटल हैं, पता नहीं किस कमरे में होंगे। दोस्तोवोस्की की ‘ जुआरी’ , जिसने पढ़ी होगी, वे जानते हैं कि कभी-कभी सैकड़ों में एक ही चांस होता है, और उसी पर तुम्हारा नंबर आ जाता है।
मैं उठा, फिर बैठा। फिर उठा, फिर बैठा। लगा कि सामने कोई मिल जाए तो थुर दूं। एक गहन अंतर्द्वंद्व। नसतोड़ फड़फड़ाहट। फिर जाने क्या सूझा कि होटल यात्रिक चला गया। बिना कुछ सोचे। बिल्कुल ऐसे, जैसे आपके पांव ही आपको लेकर कहीं चले जाएं। जैसे, आपकी जुबान ही कुछ बोलने लगे। सचमुच, अजय अग्रवाल उसी होटल में थे।
सीढ़ियों पर बंशीधरजी मिले। उनके साथ शायद सुभाष रायजी भी थे। थोड़ी बातचीत, हल्का -सा इंटरव्यू। और मेरा हो गया। मैं जब “यात्रिक” की सीढ़ियों से उतर रहा था, तो तीन-चार सीढ़ी ऐसे कूद गया। एक महिला उछलकर किनारे हो गई। मैं लगभग दौड़ते हुए माधुरी मिष्ठान्न भंडार पहुंचा। यह कोई उच्चस्तरीय चयन नहीं था। यह जमाने के पैमाने के हिसाब से कुछ भी नहीं था। लेकिन, सोचिए, जो दक्खिन जा रहा था, अब उसकी दिशा उत्तर हो गई थी।
इलाहाबाद की वह सुबह सारे संसार की सुबह से अलग थी। दो महीने में मेरे हाथ में अपना स्कूटर था। मैं चाहता था कि मेरी साइकिल कोई उठा ले जाए। और नहीं तो कोई चोर ही। सरयू से संगम तक की यात्रा पूरी हो गई थी। इंजीनियर बनने निकला था, सहाफी बन गया था।
ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
तज कोलाहल की अवनी रे ।
जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
ढीली अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो-
ताराओं की पाँति घनी रे।
(जयशंकर प्रसाद)