यह अहंकार न हो तो कोई बादशाह हो ही नहीं सकता। इसीलिए हर बादशाह अपने ढंग से इस दुनिया को सुंदर बनाने का प्रयास करता है। हर बादशाह अपने पहले वाले बादशाह के फैसलों, नीतियों, सारे किए-धरे को पलट कर नया करने, बनाने का प्रयास करता है। इससे उसका अहंकार तुष्ट होता है।
तुगलक के बारे में तो कहावत ही बन गई कि वह कभी दिल्ली तो कभी दौलताबाद आता-जाता रहता था। वह कभी ठीक से शासन कर ही नहीं पाया। दिल्ली से दौलताबाद आने-जाने में ही उसकी जिंदगी बीत गई। जब वह दिल्ली जाता तो उसे वहां अच्छा नहीं लगता और फौरन सारे अमले को आदेश दे देता कि चलो दौलताबाद। दौलताबाद पहुंचने के बाद उन्हें दिल्ली की तरफ हांक देता।
अकबर को भी यही फितूर सवार हुआ था। उसे दिल्ली रास नहीं आई। आगरा में किला बनाने का आदेश दिया। वहां भी आलीशान भवन और किला बन गया। वह वहां रहने गया, मगर वह भी रास नहीं आया। लौट आया दिल्ली। आगरे का किला वीरान हो गया। ऐसे कई राजे-महराजे मिल जाएंगे, जिन्होंने अलग-अलग जगहों पर आलीशान महल और किले बनवाए।
उनमें सारी सुख-सुविधाएं ले जाकर भर दीं। उनके आसपास बाजार बसाए, शहर बसा दिए, मगर टिक कर किसी भी जगह रह नहीं पाए। कई राजा तो ऐसे भी हुए, जिन्होंने खूब आलीशान महल बनवाए, मगर उनमें रह एक भी दिन नहीं पाए। रहने गए ही नहीं।
ऐसे राजाओं-नवाबों की कमी आज भी नहीं। वे ओहदे से राजा और नवाब भले न हों, पर उनके मिजाज में वही है। दरअसल, इस दुनिया पर जगह-जगह अपना नाम, अपनी पहचान अंकित करने की भूख, इस दुनिया की सुंदरता को कैद करने की ललक आदमी को बेचैन किए रहती है।
एक प्रकार का असंतोष उसमें बना रहता है। फिर जब धन आ जाए, तो यह असंतोष घर, मकान, किले, महल बनाने के रूप में प्रकट होता रहता है। फिर भी सुख और संतोष कभी नहीं मिल पाता।