कुबेरनाथ राय हिंदी साहित्य की ललित निबंध विधा में विशिष्ट योगदान के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने अपने निबंधों में भारतीय संस्कृति और भारतीय चिंतन के विभिन्न पक्षों की पहचान और व्याख्या की है। उन्होंने तीन सौ से अधिक ललित निबंध लिखे, जो साहित्य-संस्कृति की दुनिया में काफी सराहे गए। उनके निबंध संग्रह ‘कामधेनु’ पर ज्ञानपीठ ने उन्हें साहित्य के महत्त्वपूर्ण ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ से सम्मानित किया था। उनकी रचनाएं भारत ही नहीं, दुनिया भर के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल हैं।
कुबेरनाथ राय का जन्म गाजीपुर के मतसां गांव में हुआ था। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त कर वे पहले असम के नलबारी और फिर गाजीपुर में उच्च शिक्षा में अध्यापन किया। उनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं- मराल, प्रिया नीलकंठी, रस आखेटक, गंधमादन, निषाद बांसुरी, विषाद योग, पर्णमुकुट, महाकवि की तर्जनी, पत्र मणिपुतुल के नाम, किरात नदी में चंद्रमधु, मनपवन की नौका, दृष्टि अभिसार, त्रेता का वृहत्साम, कामधेनु और रामायण महातीर्थम। उनके निबंध भारतीयता, सनातन धर्म और विश्व बंधुता के उच्च कोटि के दार्शनिक, साहित्यिक और ललित भाष्य हैं।
अपने निबंधों में आचार्य कुबेरनाथ राय ने वृहत्तर भारत की संकल्पना को मूर्त रूप दिया है। उन्होंने ‘मनपवन की नौका’ में वृहत्तर भारत की पहचान की है। उन्होंने प्राचीन भारत का विस्तार स्याम, जावा, सुमात्रा, मलाया, कंबोडिया, मलेशिया, इंडोनेशिया तक रेखांकित किया और इसके साक्ष्य विभिन्न वांग्मय और ऐतिहासिक उदाहरणों से प्रस्तुत किए हैं।
उन्होंने तमाम ऐसे द्वीपों के साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं, जहां भारतीयता की छाप है। उनका मानना था कि भारतीयता एक संयुक्त उत्तराधिकार है, जिसके रचनाकर आर्यों के अलावा द्रविड़, निषाद और किरात हैं। उन्होंने भारतीय अवधारणा में नगरीय सभ्यता, कला शिल्प और भक्ति योग जैसे तत्त्वों को द्रविड़ों की देन माना है। कुबेरनाथ राय कहते हैं कि ‘आर्यों की अग्नि उपासना अर्थात यज्ञ का रूपांतर हुआ ‘हवन’ में। निषादों और द्रविड़ों का स्रान प्रेम बना ‘तीर्थ’।
द्रविड़ों की भाव-साधना बनी ‘कीर्तन’ या ‘भजन’ और आर्यों की चिंतनशीलता बनी ‘दर्शन’। इस प्रकार हवन-तीर्थ-कीर्तन-दर्शन के चार पहियों पर हिंदू धर्म की बैलगाड़ी चल पड़ी और चलती रहेगी निरंतर।’ वे मानते थे कि आरण्यक शिल्प और कला संस्कारों में किरातों का मूल है तथा आर्यों के मूल में निषाद हैं। वे मानते थे कि भारतीय धरती के आदिमालिक निषाद ही थे। गंगा मूलत: निषादों की नदी है। गंगा शब्द भी निषादों की देन है।
उन्होंने अपने कई निबंधों में गांधीवादी चिंतन की विशिष्टताओं पर ललित शैली में विचार किया है। ‘पांत का आखिरी आदमी’, ‘शांतम, सरलम, सुंदरम’, ‘वह रसमय पुरुष थे’, ‘स्वच्छ और सरल’ आदि उनके विशिष्ट निबंध हैं। वे अपने एक निबंध ‘वे एक सही हिंदू थे’ में जवाहरलाल नेहरू को आधुनिक हिंदू बताते हैं और गांधी को ‘सही’ हिंदू।
वे कहते हैं कि अगर गांधीजी हिंदू न होते, या भारतीय न होते तो उनकी चिंता और और कर्म पद्धति के अंग-प्रत्यंग में ऐसी एकसूत्रता या ‘हारमनी’ नहीं आ पाती या आती भी तो यह भिन्न स्वरूप की होती। वे मानते हैं कि गांधीजी का समन्वयात्मक दृष्टिकोण उनके सही हिंदू होने का सुपरिणाम है।
आचार्य कुबेरनाथ राय के निबंधों में लोक तत्त्व बहुत सहज ढंग से उतरते हैं। अपनी जमीन से जुड़ाव उन्हें बहुत आत्मीय निबंधकार और सच्चा भारतवादी बनाती है। अपने निजी जीवन में भी वे बहुत हंसमुख और चुटीली बात करने वाले व्यक्ति थे।