प्रकाश मनु
हमारे दांपत्य जीवन के पहले ही अध्याय में, जो धूल-धक्कड़ और आंधियों से सना हुआ था!… मगर आखिर यही समय क्यों तय किया था उसने हमारे घर, हमारी जिंदगी के उदास रंगमंच पर प्रवेश के लिए। और आया भी तो ऐसा क्यों, कैसे होता चला गया कि उसके बिना जीना हमें अपराध लगने लगा।
एक छोटा-सा जीव, जिसने छह-आठ महीनों में मार तमाम ऊधम मचा के रख दिया था। कू-कू-कू से लेकर भौं-भौं-भौं तक। जब उसे नुकीली चोंचों से हलाल करने को तैयार, शैतान ‘काक मंडली’ से बचाया था, तब क्या पता था कि वह नन्हा-सा काला चमकीला पिल्ला इस कदर घर बना लेगा हमारे भीतर कि हर वक्त होंठों पर ‘कुनु… कुनु!’
वह इस कदर लाड़ला हो गया था कि जोर-जबरदस्ती से अपनी जिदें मनवाने लगा था। हमारे बाहर जाने पर रोता था। अकुलाकर पंजे मारता था दीवारों पर, खिड़कियों पर और सात तालों के बावजूद किसी जादूगर की तरह निकल आता था बाहर! ओह, जिस क्षण बिजली की तरह दौड़ता और खुद को विशालकाय शेरनुमा जबर कुत्तों से बचाता हुआ, वह सड़क पर आकर हमारे पैरों पर लोट जाता था, उस क्षण का गुस्सा, प्यार, गर्व, रोमांच…! वह सब, अब क्यों कहें, कैसे!
कुनु की सबसे खास बात यह थी कि वह कुनु था। महज एक पिल्ला नहीं, वह कुनु था। उसकी अपनी एक शख्सियत थी और इसे वह हर तरह से साबित करता था। मसलन, रसोईघर के एकदम द्वार पर बैठ कर गरम फुल्का खाना उसे प्रिय था और साथ में गुड़ भी हो, तो क्या कहने! ऐसे क्षणों में उसकी आंखों से आनंद, अनहद आनंद बरस रहा होता और जरा छेड़ते ही उसकी ‘गुर्र-गुर्र’ चालू हो जाती। जैसे वह जता देना चाहता हो कि इन क्षणों में छेड़ना या परेशान किया जाना उसे सख्त नागवार है।
घर में उसकी पसंद की कोई चीज बने, खासकर गाजर का हलवा, जो कि सर्दियों में दस-पंद्रह दिन में एकाध बार बनता था, तब देखो उसकी बेसब्री। ऐसे वक्त में उसे दूसरे कमरे में बंद करके रखना पड़ता था, वरना न जाने क्या कर डाले। और हलवा बनते ही गरम-गरम गपक जाने की कोशिश में अक्सर वह जीभ जला बैठता। उफ, बावला। एकदम बावला…!
सच तो यह है हमने उसे बिल्कुल अपना बेटा ही मान लिया था। हमारे वे दुख भरे दिन थे। कुछ अजीब-सी आत्महीनता और अर्ध-बेरोजगारी के दिन। और हम कुछ तो समय और कुछ अपने आदर्शों के मारे थे। हालांकि इसी आदर्शवाद ने हमें जिलाया भी था। इसी आदर्शवाद ने हमें, यानी मुझे और शुभांगी को मिलाया भी था और एक-दूसरे के लिए जरूरी बना दिया था।
तपती हुई सड़कों पर साथ चलते-चलते हम एक छोटे-से घर तक आ पहुंचे थे।… हाउसिंग बोर्ड का किराए का वह छोटा-सा मकान हमारे सुख-स्वप्नों का आशियाना था, जहां हमें अपनी बिखरी हुई दुनिया के तिनके समेटने थे और एक अदृश्य भविष्य को आकार देना था। वहीं हमें कुनु मिला था। और कुछ इस कदर आत्मीयता से गदबदाया हुआ-सा वह मासूम जीव शुभांगी की गोद में आ टपका था, मानो शादी के फौरन बाद ही उसकी गोद भर गई हो।
उसका मिलना भी कुछ ऐसा था, मानो वह किसी महानाटक का ऐसा अध्याय हो, जो खासकर हमारे लिए ही लिखा गया है।
हम एक दिन सुबह-सुबह घूमकर आए और सदा की तरह किताबों की चर्चा और दिन के कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने में व्यस्त थे, कि दूर से ही देखा- वह है। एक छोटा-सा, बेचारा-सा काला जीव। मुश्किल से दस-पंद्रह दिन का रहा होगा। वह काक-मंडली का शिकार बना हुआ था और मूक आंखों से गुहार कर रहा था। शायद कौओं की कुछ चोंचें भी उसके शरीर में गड़ी थीं और वह मारे पीड़ा के तिलमिला रहा था। लेकिन हलकी, बहुत हलकी और अस्पष्ट ‘गुर्र-गुर्र’ के सिवा उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था।
शुभांगी ने उसे देखते ही, बगैर वक्त खोए, झपटकर उठा लिया और मां जैसी ममता से भरकर छाती से लगा लिया। उफ! उस क्षण किस कदर सिंदूरी आभापूरित था शुभांगी का चेहरा। किसी स्त्री का, जिसे आप प्यार करते हैं, मां बन जाना क्या होता है, शायद पहले पहल उसी क्षण मैंने जाना था।
हमारा जीवन तनाव के जिन दो मोटे लौह-शिकंजों में कसा हुआ था, पहली बार उनकी जकड़न से छूटकर एक कदम आगे बढ़ा। धीरे-धीरे एक बच्चे की उपस्थिति से गुलजार होने लगा। वह कभी बाहर लान में मेरी कुर्सी के चारों ओर दौड़ता, कलामुंडियां खाता और नाचता फिरता, कभी दूर बैठा पूंछ हिलाता अपनी उपस्थिति जतलाता रहता। जरा-सा पुचकारो तो उछलकर गोद में बैठता।
कभी-कभी वह ज्यादा छूट ले लेता और जिस चारपाई पर मैं पढ़ रहा होता, उसी पर आकर एकदम मासूम बच्चे की तरह लेट जाता और अत्यंत तरल और आग्रहयुक्त आंखों से मुझे देखता रहता। यही अपनेपन का अधिकार उसमें तब भी नजर आता, जब शुभांगी रसोई में खाना बना रही होती। वह दौड़कर आता और एक सभ्य बच्चे की तरह मूक आंखों से खाना मांगता और रसोई की चौखट पर बैठ, चुपचाप खाना खाने लगता।
सोने के रात और दिन के कुछेक घंटों को छोड़ दें, तो कुनु ज्यादातर सक्रिय रहता था। यानी कुनु का मतलब था, गति, छलांग! वह दिन भर घर के दोनों कमरों और बरांडे में इधर से उधर घूमता रहता और कहीं जरा भी खड़का होते ही दौड़कर वहां पहुंच जाता। खासकर दरवाजे पर किसी के आते ही उसकी गर्व से लबालब ‘भौं-भौं’ शुरू हो जाती। लौटकर आता तो पूंछ उठी हुई और आंखें शाबाशी का भाव लेने को उत्सुक।
मानो कोई वीर बांका युद्ध के मैदान से लौटा हो! कभी ज्यादा मूड में होता तो वह घर भर की चीजें छेड़ता फिरता। खासकर जूते, चप्पलें, किताबें…! हालांकि जूते या चप्पलें उसने चाहे भले ही काटे हों, यह गनीमत थी कि किताबें कभी नहीं फाड़ीं।
हां, मेरी ही तरह उसे भी लगभग रोज आने वाली चिट्ठियों की तलब रहती थी। कोई चिट्ठी आती और मेरे ध्यान से छूट जाती, तो दौड़कर आता। मेरे और दरवाजे के बीच उसके कई चक्कर लग जाते, जब तक कि मैं दरवाजे तक आकर वह चिट्ठी, अखबार या पत्रिका उठा न लेता।… लेकिन हैरानी की बात यह है कि जब मैं गंभीरता से कुछ लिख या पढ़ रहा होता, तो वह अक्सर शोर मचाने या छेड़खानी से परहेज करता और दूर बैठा, टकटकी लगाए देखता रहता। मैं हैरान था कि ऐसी यह ‘महान शुभचिंतक आत्मा’ किस दुनिया से चलकर मेरे इतने निकट आ गई है!
हमारी दीवानगी की हालत तो यह थी कि जब कोई मेहमान हमारे घर आकर अपने बच्चों और उसकी चंचल शरारतों का जिक्र करता, तो हम तत्काल दोगुने गर्व से भरकर कुनु की प्रशंसा का पुराण ले बैठते। मगर कुनु के दुस्साहस की एक घटना तो ऐसी है कि आज भी मन रोमांचित हो उठता है।
हुआ यह कि एक दिन हमें शहर जाना था, शुभांगी के माता-पिता से मिलने। रास्ते में कुत्तों से बचाते हुए कुनु को साथ ले जाना सचमुच किसी आफत से कम नहीं था। लिहाजा, कुनु को चुपके से कमरे में बंद किया और हम बाहर आ गए। हालांकि दूर तक और देर तक उसका हृदयद्रावक क्रंदन हमारा पीछा करता रहा। शहर में सास जी के हाथ की बनी बेहद मीठी, नायाब चाय पीते हुए भी, कानों में कुनु की कू-कू-कू ही बसी हुई थी।
यहां तक कि हमारी उदासी भांपकर उन्होंने पूछ लिया कि क्या बात है, तुम लोग कुछ परेशान से हो। और हमारे बताने पर द्रवित होकर बोलीं, ‘अरे, तो तुम लोग ले आते उसे! लाए क्यों नहीं उस नटखट को?’ महीनों पहले जब कुनु एकदम छोटा था, हम उसे गोदी में लेकर आए थे और गली के कुत्तों ने हमारी आफत कर दी थी। अब तो उसे गोदी में लाना मुश्किल था। पैरों पर चलकर आता, तो क्या यहां पहुंच सकता था? रास्ते में धड़धड़ाती गाड़ियों वाले स्टेशन को पार करना होता था। और फिर मोटरें, गाड़ियां, ट्रकों और तांगों की रेल-पेल और पों-पों, पैं-पैं वाली खतरनाक सड़क।
वहां लोगों का चलना ही मुश्किल था, तो फिर यह नन्हा जीव…! अभी हम यह सब सोच ही रहे थे कि अचानक सास जी का ध्यान गेट पर गया। चौंककर बोलीं, ‘अरे वो तो रहा कुनु! वो… देखना, कुनु ही है न।’ और अभी हम कुछ सोच पाते, इससे पहले ही कुनु बारी-बारी से मेरे, शुभांगी, सास जी, ससुर जी के… और घर में जितने भी छोटे-बड़े थे, सबके आगे लोट-लोट कर प्यार जता रहा है। और कुछ ऐसी आवाज निकाल रहा है, जैसे वह एक साथ रो रहा हो। और उल्लास और खुशी के नशे में भी हो।
बड़ी देर तक हमारी समझ में ही नहीं आया कि यह हुआ क्या! कुनु वहां से आ गया- कैसे? और जब समझ में आया तो एक अविश्वसनीय आनंद के धक्के से हमारी ऊपर की सांस ऊपर, नीचे की नीचे! शुभांगी तो उसे गोद में लेकर बाकायदा रोने ही लग गई थी, ‘मूर्ख!… पागल!! कैसे आया तू? सड़क पर कुत्ते नहीं पड़े तेरे पीछे? और किसी बस के, ट्रक के पहिए से कुचल जाता तो?’ और वह शुभांगी की छाती से लगा, पूंछ हिला रहा था, किलक रहा था और उसकी आंखें खुशी और आनंद से चमक रही थीं। छोटा-सा कुनु उस दिन से हमारा बच्चा ही नहीं, हमारे परिवार का ‘हीरो’ भी बन गया था।
तब हमारे बच्चे नहीं थे और कुनु ही हमारा बेटा था। हम बोलचाल में उसे ‘बेटा’ कहकर ही बुलाते थे और इस बारे में खुशी-खुशी दोस्तों का मजाक भी सह लेते थे। पर शुभांगी ने उसे सच में बेटा मान लिया था, मुझे क्या मालूम?…
ओह, समय किस तरह से आता है, किस तरह से जाता। और कैसे साबित करता है कि अंतत: वही बादशाह है, हम सब उसकी सूइयों से बंधे हुए हैं। गुलाम! पूरी तरह गुलाम और अदने जीव। याद आता है फिल्म ‘वक्त’ का गाना, ‘वक्त के दिन और रात…’ और उसी गाने की एक और पंक्ति, ‘आदमी को चाहिए, वक्त से डरकर रहे!…’ आदमी को… आदमी को… आदमी को चाहिए, वक्त से डरकर रहे… डरकर रहे… डरकर…! संगीत थम गया है। संगीत अब विलाप है।
वही वक्त एक दिन ले गया कुनु को, जिसने कभी एक दिन शुभांगी की वत्सल गोदी में उसे टपका दिया था दूध की, अमृत की एक बूंद की तरह! धीरे-धीरे ठंडी होती आग। और आग के बगैर जीवन मिट्टी! मिट्टी होने से पहले उसने जो एक लाचार नजर मुझ पर डाली, उसमें क्या था? सामने के मैदान में, पेड़ के नीचे मिट्टी होने से पहले एक कमजोर-सा आग्रह कि उसे अकेला छोड़ दिया जाए। शायद हां। शायद… आ-खि-री-स-ला-म…!! ओ नन्हे से फरिश्ते… नन्हे से फरिश्ते… नन्हे से फरिश्ते…!