रोहित कुमार
चुंबक का करिश्मा क्या है। है तो वह देखने में एक निर्जीव वस्तु ही। जहां रख दो वहीं पड़ा रहता है। न चलता है न फिरता है। पर जैसे ही उसके परिक्षेत्र में कोई लौहतत्त्व आता है, वह उसे खींच लेता या परे धकेल देता है। चुंबक भी लोहे का, जो वस्तु उसके संपर्क में आई, वह भी लोहे की। मगर दोनों के बीच खींचने या परे करने की जो शक्ति आई, वह अदृश्य है। वह अचानक नहीं पैदा हुई। विद्यमान थी, सदा से। तरंगों के रूप में। चुंबक से निरंतर वे तरंगें उसकी ताकत के रूप में निकल रही थीं। बस, प्रतीक्षा थी उस शक्ति के प्रत्यक्ष प्रभाव के लिए किसी लौहतत्त्व की। इसी तरह पूरा जगत, पूरी कायनात अदृश्य तरंगों से बंधा, बना, संचालित है। हर चीज की अपनी तरंगें हैं।
अब तो शायद बहुतों को यह सच्चाई पता है कि जीवन और जगत यानी बाहर और भीतर का सारा संबंध तरंगों पर टिका है। जो बात उपनिषद में कही गई कि ‘अणोरणीयान महतोमहीयान…’, उसे अब विज्ञान ने भी साबित कर दिया है।
उपनिषद में उसे परमशक्ति के रूप में बताया गया। विज्ञान ने उसे उस शक्तिशाली तरंग के रूप में चिह्नित किया, जो कण-कण को संचालित करती है। पहले अणु को परमाणु में तोड़ा गया, फिर परमाणु को तीन हिस्सों में बांटा गया- न्यूट्रान, प्रोटान और इलेक्ट्रान।
तीनों के स्वभाव अलग-अलग। एक निरपेक्ष, एक में धनात्मक आवेश और एक में ऋणात्मक आवेश। यही भाव चुंबक में भी होता है। गीता में जिस तीन तत्त्वों से जीवन को संचालित कहा गया- रज, तम और सत्व- उनका स्वभाव भी तो यही है।
परमाणु को तीन हिस्सों में तोड़ने के बाद मान लिया गया कि काम पूरा हो गया। परमाणु का रहस्य समझ में आ गया। मगर असल रहस्य तो उसके बाद प्रकट हुआ, जब न्यूट्रान, प्रोटान, इलेक्ट्रान को तोड़ा गया।
क्वांटम फिजिक्स उस रहस्य को आज तक सुलझाने में लगा हुआ है। मगर उससे एक सच्चाई यह उभर कर आई कि परमाणु का सूक्ष्मतम स्वभाव तरंगों के रूप में मौजूद है। इन तरंगों का खेल विचित्र है। ये न सिर्फ भौतिक जगत को, बल्कि हमारे जीवन के हर पल को संचालित करती हैं।
अध्यात्म जिन अवधारणाओं को हजारों साल पहले सिद्ध कर चुका था, उन्हें अब विज्ञान ने भी सिद्ध करना शुरू कर दिया है। अपने प्रयोगों के जरिए। कभी हम दुखी होते हैं, अवसाद में होते हैं, तो कभी शांत, भरपूर रचनात्मक ऊर्जा से भरे होते हैं। कभी जड़वत, आलस्य से घिरे हुए। दरअसल, हमारे मनोभावों, मनोवेगों, विचारों में बदलाव का मुख्य कारण यही तरंगें होती हैं।
जिस कण की तरंगें अधिक सक्रिय होती हैं, उसी का प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है। अगर हमारे भीतर की धनात्मक तरंगें सक्रिय हैं, तो मन सकारात्मक ऊर्जा से भरा होगा। अगर ऋणात्मक तरेंगें सक्रिय होंगी तो विचार भी नकारात्मक होंगे, खीझ, उदासी, अकर्मकता हावी रहेगी।
अब तो विज्ञान ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि अगर आप नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के समीप पहुंचते हैं, तो आपकी सकारात्मक ऊर्जा क्षीण हो जाती है। वैज्ञानिकों ने प्रयोग करके देखा कि नकारात्मक वातावरण में पहुंचते ही मनुष्य के शरीर की श्वेत कणिकाएं अचानक घट जाती हैं।
यह सारा खेल तरंगों का होता है। जब एक के भीतर से निकलने वाली तरंगें अधिक प्रबल हों, तो वे दूसरों को भी अपने प्रभाव क्षेत्र में ले ही लेती हैं। दूसरों का प्रभाव तो हम पर जो पड़ता है, सो पड़ता है, हम खुद अपने भीतर तरंगों को गत्यात्मकता देकर, उन्हें एक्टीवेट करके अपनी मनोदशा बनाते-बिगाड़ते रहते हैं।
किसी एक नकारात्मक बिंदु को पकड़ लिया और उस पर इस कदर ध्यान केंद्रित कर दिया कि सकारात्मक ऊर्जा दब जाती है। निरंतर नकारात्मक ऊर्जा प्रबल होती जाती है। फिर हर समय हम खीझ, क्रोध, अवसाद, नकारात्मक विचारों से आवेशित रहते हैं। किसी भी चीज का सकारात्मक पहलू देख ही नहीं पाते। इसका असर न केवल हमारे शरीर, हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है, बल्कि पूरे परिवार पर पड़ता है।
अब तो कई आध्यात्मिक गुरु हमारे भीतर की नकारात्मक तरंगों को शांत करने और सकारात्मक तरंगों को क्रियाशील बनाने, एक्टीवेट करने पर ही अपना ध्यान केंद्रित किए हुए हैं। इसके लिए योग और ध्यान के अभ्यास कराए जाते हैं, चीजों को देखने के नजरिए में बदलाव का अभ्यास कराया जाता है।
स्कूलों में शुरू से बच्चों में सकारात्मक सोच विकसित करने का प्रयास किया जाता है। हर कोई नसीहत देता मिल जाता है कि पाजीटिव सोच रखो। मगर स्थिति यह है कि हर तरफ नकारात्मकता बढ़ती जा रही है। चीजों को देखने का नजरिया बदल रहा है। समाज में हिंसा बढ़ रही है, विद्वेष बढ़ रहा है। परिवार टूट रहे हैं, पड़ोस सिमट रहा है, धन और ऐश्वर्य की भूख बढ़ रही है। किसी भी तरह संपन्न होने की होड़ है।
हमने भौतिक रूप से बहुत कुछ पा भी लिया है, पर जीवन में सुख नहीं। इसका बड़ा कारण यही है कि हमने अपनी सकारात्मक तरंगों का रास्ता रोक दिया है। नकारात्मक तरंगों को इस कदर क्रियाशील कर दिया है, इस कदर एक्टीवेट कर दिया है कि हमारे विवेक पर पर्दा-सा पड़ गया है। सही और गलत के बीच फर्क नहीं कर पा रहे।
गलत को ही सही मान लिया है। भ्रष्ट आचरण को ही सर्वश्रेष्ठ आचरण समझ लिया है। इससे समाज में विसंगति पैदा हो रही है, हो गई है। इसमें कुछ योगदान तो हमारे चारों तरफ निरंतर फैलती नकारात्मक सूचनाओं, नकारात्मक विचारों का है। उनसे निरपेक्ष रह सकें, उन पर विवेकपूर्ण तरीके से विचार कर सकें, तो हमारे भीतर की तरंगें सही दिशा में चल सकें। थोड़ा अपने पर ध्यान दें तो तरंगों की दिशा बदल सकती है। सकारात्मक तरंगें क्रियाशील हो सकती हैं।