आधुनिकता और संवदेना के बीच हिंदी की काव्ययात्रा छायावाद के दौर में जिस ऊंचाई पर पहुंची, वह आज भी एक स्वर्णिम रचनात्मक साक्ष्य है। इस साक्ष्य ने बाद में भी हिंदी काव्य शिल्प का रचनात्मक अनुशासन तय करने में बीज भूमिका निभाई। यह भी कि शब्द और संवेदना के साझे से जुड़े छायावादी सबक ने हिंदी गीतों की लोकप्रियता को जहां कई नए आयाम दिए, वहीं इससे भाषा के रूप में हिंदी की क्षमता और संभावना बहुत गहरे स्तर पर रेखांकित हुई। इस रचनात्मक वृति और उसके उर्वर विकास को जिस काव्य प्रतिभा को सामने रखकर बेहतर तरीके से समझा जा सकता है, वे हैं पंडित नरेंद्र शर्मा।
28 फरवरी, 1913 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के खुर्जा, जहांगीरपुर में जन्मे नरेंद्र शर्मा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षाशास्त्र और अंग्रेजी में एमए करने के बाद प्रयाग में ‘अभ्युदय’ पत्रिका के संपादन से जुड़ गए। उनके जीवन को यहीं से नई दिशा मिली। प्रसिद्ध साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा के प्रोत्साहन और आग्रह पर नरेंद्र शर्मा मुंबई आ गए और यहीं बस गए। यहां फिल्मी लेखन के साथ वे आकाशवाणी से भी जुड़े रहे। तीन अक्तूबर, 1957 को भारतीय रेडियो प्रसारण के क्षेत्र में एक सुरीला अध्याय जुड़ा ‘विविध भारती’ नाम से। दिलचस्प है कि ‘विविध भारती’ का प्रस्ताव नरेंद्र शर्मा ने ही दिया था।
आकाशवाणी से उनका जुड़ाव लंबा ही नहीं रहा, रचनात्मक प्रयोग की दृष्टि से ऐतिहासिक भी रहा। वे छायावादोत्तर दौर के ऐसे गीतकार हैं, जिनके गीतों में रागात्मक संवेदना तो है ही, वह पुट भी है जिससे बगैर साहित्यिक स्फीति के लोकप्रियता अर्जित की जा सके। उनकी यह खासियत इसलिए भी बड़ी है क्योंकि वे संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग करते थे। यहां तक कि भाव निरूपण में भी उन्होंने भाषाई और साहित्यिक गरिमा हमेशा बनाई रखी। उनके गीतों का संसार सरल पर हृदय को गहराई तक स्पर्श करने वाला है। प्राकृतिक सुषमा, मानवीय सौंदर्य और उससे उत्पन्न विरह व मिलन जैसी अनुभूतियां उनकी रचनाओं के मुख्य विषय हैं।
वे आर्य समाज के सुधारवादी आंदोलन से खासे प्रभावित थे। असहयोग आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भागीदारी निभाई थी। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें नजरबंद भी किया गया था। जेलयात्रा के दौरान उन्होंने ‘मिट्टी और फूल’ कविता संग्रह पूरा किया। उनकी कविता, गद्य और नाटक की कुल 19 पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनके प्रमुख काव्य संग्रहों में ‘शूल-फूल’, ‘कर्णफूल’, ‘प्रवासी के गीत’, ‘पलाशवन’, ‘हंसमाला’, ‘रक्तचंदन’, ‘कदलीवन’, ‘द्रौपदी’, ‘प्यासा निर्झर’, ‘बहुत रात गए’ आादि प्रसिद्ध हैं। फिल्मों के लिए गीत लिखने के बावजूद उनकी रचनाओं की साहित्यिक गरिमा कायम रही। ‘भाभी की चूड़ियां’ फिल्म का गीत ‘ज्योति कलश छलके’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ के सभी गीत और शहीदों के लिए लिखा गया उनका ‘समर में हो गए अमर’ गीत आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं।
हिंदी गीतों की सुमधुरता अपने जिन गीतों पर लंबे समय तक नाज करती रहेगी, उनमें नरेंद्र शर्मा के गीतों का सरमाया शामिल है। ‘शंखनाद ने कर दिया, समारोह का अंत, अंत यही ले जाएगा कुरुक्षेत्र पर्यंत’, यह दोहा उनकी अंतिम रचना है, जिसे उन्होंने धारावाहिक ‘महाभारत’ के लिए लिखा था। जब बीआर चोपड़ा महाभारत बना रहे थे तो पंडित नरेंद्र शर्मा उनके सलाहकार थे। 11 फरवरी, 1989 को हृदयगति रुक जाने से हिंदी के उनका निधन हो गया। पंडित नरेंद्र शर्मा की रचनात्मक यशस्विता हिंदी काव्य प्रेमियों के बीच लंबे समय तक कायम रहेगी।