अब्दुल गफ्फार खान (Abdul Ghaffar Khan) का जन्म एक संपन्न परिवार में हुआ था। वे बचपन से ही दृढ़ स्वभाव के व्यक्ति थे, इसलिए अफगानों ने उन्हें ‘बाचा खान’ पुकारना शुरू कर दिया। उनका सीमा प्रांत के कबीलों (Tribes) पर खासा प्रभाव था। विनम्र गफ्फार ने सदा स्वयं को एक ‘आजादी का सिपाही’ कहा, पर उनके प्रशंसकों ने उन्हें ‘बादशाह खान’ कह कर पुकारा। राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रियता के चलते उन्होंने कई बार जेल में घोर यातनाएं झेलीं, फिर भी वे अपनी मूल संस्कृति से विमुख नहीं हुए।
रौलेट एक्ट आंदोलन के दौरान गांधी जी के संपर्क में आए
खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म पेशावर, तत्कालीन ब्रिटिश भारत और वर्तमान पाकिस्तान, में हुआ था। मिशनरी स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के बाद वे अलीगढ़ चले गए। फिर शिक्षा समाप्त कर देशसेवा में लग गए। सरहद के पार अपने लोगों की स्वाधीनता के लिए संघर्षरत अब्दुल गफ्फार खान शुरू से ही अंग्रेजों के खिलाफ थे। राजनीतिक असंतुष्टों को बिना मुकदमा चलाए नजरबंद करने की इजाजत देने वाले रौलेट एक्ट के खिलाफ 1919 में हुए आंदोलन के दौरान गफ्फार खान की गांधीजी से मुलाकात हुई और उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया। अगले वर्ष वे खिलाफत आंदोलन में शामिल हो गए, जो तुर्की के सुल्तान के साथ भारतीय मुसलमानों के आध्यात्मिक संबंधों के लिए प्रयासरत था और 1921 में वे अपने गृह प्रदेश पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में खिलाफत कमेटी के जिला अध्यक्ष चुने गए।
पख्तूनों के बीच किया लाल कुर्ती आंदोलन का आह्वान
1929 में कांग्रेस पार्टी की एक सभा में शामिल होने के बाद गफ्फार खान ने खुदाई खिदमतगार (Khudai Khidmatgar) (ईश्वर के सेवक) की स्थापना की और पख्तूनों के बीच लाल कुर्ती आंदोलन (Red Kurti Movement) का आह्वान किया। विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी तीन वर्ष के लिए हुई थी। मुसलिम लीग ने पख्तूनों की इस आंदोलन में कोई मदद नहीं की, पर कांग्रेस ने उन्हें अपना पूर्ण समर्थन दिया। इसलिए वे पक्के कांग्रेसी और गांधीजी के अनुयायी हो गए।
गुजरात की जेल में चलाईं गीता और कुरान की कक्षाएं
खान ने पठानों को गांधीजी के अहिंसा का पाठ पढ़ाया। पेशावर में जब 1919 में अंग्रेजों ने फौजी कानून (मार्शल ला) लगाया, तो अब्दुल गफ्फार खान ने अंग्रेजों के सामने शांति का प्रस्ताव रखा, फिर भी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 1930 में सत्याग्रह आंदोलन करने पर वे फिर जेल भेजे गए। वहां पंजाब के अन्य बंदियों से उनका परिचय हुआ। उन्होंने जेल में गुरुग्रंथ साहब और गीता का अध्ययन किया। हिंदू मुसलिम एकता को जरूरी मानते हुए उन्होंने गुजरात की जेल में गीता और कुरान की कक्षा शुरू की, जहां योग्य संस्कृतज्ञ और मौलवी कक्षा चलाते थे।
1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की प्रांतीय विधानसभा में बहुमत प्राप्त किया। सीमांत गांधी को पार्टी का नेता चुना गया और वे मुख्यमंत्री बने। 1942 के अगस्त आंदोलन में वे गिरफ्तार किए गए और 1947 में छूटे। देश विभाजन के विरोधी गफ्फार खान ने पाकिस्तान में रहने का निश्चय किया, जहां उन्होंने पख्तून अल्पसंख्यकों के अधिकारों और पाकिस्तान के भीतर स्वायत्तशासी पख्तूनिस्तान (या पठानिस्तान) के लिए लड़ाई जारी रखी। पाकिस्तान से उनकी विचारधारा सर्वथा भिन्न थी। पाकिस्तान के विरुद्ध ‘स्वतंत्र पख्तूनिस्तान आंदोलन’ आजीवन चलाते रहे।
1985 के कांग्रेस शताब्दी समारोह के वे प्रमुख आकर्षण का केंद्र थे। 1970 में वे भारत भर में घूमे। 1972 में वह पाकिस्तान लौटे। उनकी संस्मरणात्मक पुस्तक ‘माई लाइफ ऐंड स्ट्रगल’ 1969 में प्रकाशित हुई। अब्दुल गफ्फार खान को 1987 में भारत सरकार ने सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।