हिंदी की वैश्विक उपस्थिति
हिंदी आज सिर्फ साहित्य की भाषा नहीं, बल्कि बाजार की भी भाषा है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने विज्ञापनों को जन्म दिया, जिससे न केवल हिंदी का अनुप्रयोग बढ़ा, बल्कि युवाओं को रोजगार के नए अवसर भी मिले।

धर्मेंद्र प्रताप सिंह
हर साल चौदह सितंबर को हिंदी दिवस और फिर हिंदी सप्ताह, पखवाड़ा आदि मनाया जाता है। उस दौरान हिंदी की स्थिति पर खूब चर्चा होती है। कुछ लोग इस बात पर प्रसन्न होते देखे जाते हैं कि हिंदी वैश्विक परिदृश्य में अपनी जगह बना रही है। आज जब भाषाएं खत्म हो रही हैं, हिंदी निरंतर फैल रही है। दुनिया भर में इसका विस्तार हो रहा है। पर इन्हीं सबके बीच एक चिंता यह भी प्रकट की जाती है कि अंग्रेजी का वर्चस्व कायम है। मगर इस पर बात कम हो पाती है कि एक भाषा के रूप में क्या हिंदी अपना वास्तविक स्वरूप ले पाई है, क्या वह तमाम वर्गीय दबावों, बाजार की तिकड़मों से मुक्त होकर अपनी सशक्त पहचान बना पाई है। इस बार की चर्चा इसी पर। – संपादक
आज का समय भूमंडलीकरण का है, जिसका असली चेहरा बाजार के रूप में हमारे सामने उपस्थित हुआ है। तेजी से फैलती बाजार-संस्कृति ने हमारी राष्ट्रीय अस्मिता, खानपान, पहनावा, भाषा, संस्कृति आदि को प्रभावित किया है। बच्चों के सपने में बाजार का प्रवेश हो चुका है। मनुष्य की अस्मिता सुरक्षित रखने के लिए भाषा एक सशक्त माध्यम है। आज दुनिया में लगभग साठ हजार भाषाएं किसी न किसी रूप में बोली और समझी जाती हैं, लेकिन आने वाले समय में नब्बे प्रतिशत से अधिक का अस्तित्व खतरे में है। भाषाओं के इस विलुप्तीकरण के दौर में हिंदी अपने को न केवल बचाने में सफल हो रही है, बल्कि उसका उपयोग-अनुप्रयोग निरंतर बढ़ता जा रहा है। यह भाषा लगभग डेढ़ हजार वर्ष पुरानी है और इसमें डेढ़ लाख शब्दावली समाहित है। संप्रति हिंदी को अंतरराष्ट्रीय दर्जा प्राप्त है, क्योंकि यह अनेक विदेशी भाषाओं को न केवल स्वीकार करती, बल्कि विश्व की समस्त भाषाओं को आत्मसात करने की क्षमता रखती है। हिंदी के विकास के लिए विश्व की पैंतीस सौ विदेशी कृतियों का हिंदी में अनुवाद किया जा चुका है। यह संख्या भी कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। विश्व हिंदी का केंद्रीय सचिवालय मॉरीशस में बनना और हिंदी को प्रौद्योगिकी से जोड़ने के लिए किए जाने वाले सतत प्रयास इसे संयुक्त राष्ट्र की भाषाओं में स्थान दिलाने का प्रयास है। बाजार के कारण भी हिंदी का प्रचार-प्रसार व्यापक हो रहा है।
आज के वैश्विक फलक पर हिंदी स्वयं को एक संपर्क भाषा, प्रचार भाषा और राजभाषा के साथ-साथ वैश्विक भाषा के रूप में स्वयं को स्थापित करती जा रही है। देखा जाए तो विश्व में चीनी भाषा (मंदारिन) के बाद हिंदी का दूसरा स्थान है। जयंती प्रसाद नौटियाल अपने सर्वेक्षण में तो हिंदी को प्रथम स्थान पर पहुंचने की बात करते हैं। इस क्रम में अंग्रेजी आज तीसरे पायदान पर है। विश्व के लगभग एक सौ चालीस देशों के लगभग पांच सौ केंद्रों में हिंदी का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है, जहां न जाने कितने विद्वान अपना योगदान दे रहे हैं। कंप्यूटर, मोबाइल और आइ-पैड पर हिंदी की पहुंच ने यह बात सिद्ध कर दी है कि आने वाले समय में इंटरनेट की भाषा अंग्रेजी न होकर हिंदी होगी।
अगर हिंदी के वैश्विक परिदृश्य पर बात करें तो जापान में हिंदी की पढ़ाई हिंदुस्तानी के रूप में सन 1908 से प्रारंभ हुई, जिसे ज्यादातर व्यापार करने वाले लोग पढ़ाया करते थे, पर बाद में इसका पठन-पाठन विशेषज्ञ शिक्षकों द्वारा किया जाने लगा। जापान में हिंदी का पठन-पाठन फिल्मी गीतों के माध्यम से किया जा रहा है। आज वहां सात एफएम रेडियो स्टेशन भारतीय संगीत का प्रसारण करते हुए जापान में हिंदी की उपस्थिति को दिखाते हैं। जापान में 1921 में नौ विदेशी भाषाएं पढ़ाई जाती थीं, जबकि आज इनकी संख्या छब्बीस हो चुकी है, जिसमें हिंदी भी शामिल है। अगर संख्या बल पर ध्यान दें तो पूरे यूरोप की आबादी पैंतीस करोड़ है, जबकि भारत की जनसंख्या लगभग एक सौ तीस करोड़ है। इस तरह अगर हमारे यहां पचास प्रतिशत आबादी हिंदी पढ़ती-लिखती है, तो वह पूरे यूरोप से कहीं ज्यादा है।
अमेरिका में हिंदी फिल्मी गीतों के माध्यम से पढ़ाई जाती है और प्रवासी भारतवंशी हिंदी की अलख और संस्कृति को जगाए रखे हैं। अमेरिका में हिंदी के विकास में चार संस्थाएं प्रयासरत हैं, जिनमें अखिल भारतीय हिंदी समिति, हिंदी न्यास, अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति प्रमुख हैं। अमेरिका की भाषा नीति में दस नई विदेशी भाषाओं को जोड़ा गया है, जिनमें हिंदी भी शामिल है। हिंदी शिक्षा के लिए डरबन में हिंदी भवन का निर्माण किया गया है और एक कम्युनिटी रेडियो के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। वे सोलह घंटे सीधा प्रसारण हिंदी में देते हैं। इसके अलावा हिंदी के गाने बजाए जाते हैं। मॉरीशस में हिंदी का वर्चस्व है तथा उनका संकल्प हिंदी को विश्व भाषा बनाने का है। सन 1996 में वहां हिंदी साहित्य अकादमी की स्थापना हुई और उसकी दो पत्रिकाएं बसंत और रिमझिम प्रकाशित हो रही हैं। अब तक हुए ग्यारह विश्व हिंदी सम्मेलनों में से तीन मॉरीशस में आयोजित हुए हैं। हिंदी के प्रयोग को लेकर इसे छोटा भारत भी कहा जाता है। सूरीनाम में भी हिंदी का व्यापक प्रचार-प्रसार है।
दूर देश से निकलने वाली हिंदी पत्रिकाओं ने भी हिंदी को वैश्विक फलक पर ले जाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं में अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति (संयुक्त राज्य अमीरात), मॉरीशस हिंदी संस्थान, विश्व हिंदी सचिवालय, हिंदी संगठन (मॉरीशस,) हिंदी सोसाइटी (सिंगापुर), हिंदी परिषद (नीदरलैंड) आदि ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। आज हिंदी जो वैश्विक आकार ग्रहण कर रही है उसमें रोजी-रोटी की तलाश में अपना वतन छोड़ कर गए गिरमिटिया मजूदरों के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। गिरमिटिया मजदूर अपने साथ अपनी भाषा और संस्कृति भी लेकर गए, जो आज हिंदी को वैश्विक स्तर पर फैला रहे हैं। मसलन, एशिया के अधिकतर देशों चीन, श्रीलंका, कंबोडिया, लाओस, थाइलैंड, मलेशिया, जावा आदि में रामलीला के माध्यम से राम के चरित्र पर आधारित कथाओं का मंचन किया जाता है। वहां के स्कूली पाठ्यक्रम में रामलीला को शामिल किया गया है। हिंदी की रामकथाएं भारतीय सभ्यता और संस्कृति का संवाहक बन चुकी हैं। रेडियो सीलोन और श्रीलंकाई सिनेमाघरों में चल रही हिंदी फिल्मों के माध्यम से हिंदी की उपस्थिति समझी जा सकती है।
भाषा हृदय की अभिव्यक्ति के साथ ही संस्कृति और सभ्यता की वाहक भी है। हिंदी अपनी आंतरिक चुनौतियों से जूझते हुए आज राजभाषा ही नहीं, बल्कि विश्वभाषा बनने के निकट है। इसमें अन्य भाषाओं को आत्मसात करने की क्षमता है। यह हिंदी की सबसे बड़ी पहचान है। हिंदी में अनेक भारतीय भाषाओं में लिखे गए विद्वानों के ग्रंथों का अनुवाद कर इसे जन सामान्य के पठन-पाठन के लिए सरल बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। ज्ञान के सभी अनुशासन अपनी ही भाषा में सम्मिलित किए जा सकते हैं। विश्व में हिंदी की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण है। संसार में सभी भाषाओं का मूल स्वरूप खतरे में है और वे अपने लिपि संबंधी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। ऐसे में इसे स्वस्थ रखने और पालने-पोसने के लिए युवाओं को आगे आना होगा। विदेशी साहित्य का हिंदी में अनुवाद और हिंदी साहित्य का विदेशी भाषाओं में अनुवाद आवश्यक है।
हिंदी आज सिर्फ साहित्य की भाषा नहीं, बल्कि बाजार की भी भाषा है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने विज्ञापनों को जन्म दिया, जिससे न केवल हिंदी का अनुप्रयोग बढ़ा, बल्कि युवाओं को रोजगार के नए अवसर भी मिले। बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस बात से भलीभांति अवगत हैं कि भारत उनके उत्पाद का बड़ा बाजार है और यहां के अधिकतर उपभोक्ता हिंदीभाषी हैं। इसलिए उन्हें अपना उत्पाद बेचने के लिए उसका प्रचार-प्रसार हिंदी में करना पड़ेगा। बाजार की भाषा के रूप में हिंदी को स्वीकृति भले मिल रही है, लेकिन यह बात ध्यान देने योग्य है कि बाजार हमेशा लाभ पर केंद्रित होता है और लाभ केंद्रित व्यवस्था दीर्घजीव नहीं होती। एक समय के बाद उसका पतन निश्चित है, इसलिए हमें हिंदी को ज्ञान और संचार की भाषा के रूप में विकसित करना होगा। किसी देश के विकास के लिए आवश्यक है कि वहां ज्ञान-विज्ञान की भाषा जनमानस द्वारा ग्राह्य हो और वह उसे आसानी से समझ सके। इसलिए हिंदी के उपभोक्तावादी रूप के विकास की चुनौतियों को समझना होगा और इसे ज्ञान की भाषा के रूप में विकसित करना होगा, तभी इसका भविष्य सुरक्षित हो सकता है।