नानक के जीवन से जुड़ी कथा है। एक नगरसेठ था। नाम था दुनीचंद। दुनीचंद ने अपने जीवन में खूब धन कमाया था। उस नगर का सबसे धनिक व्यक्ति। नानक उस नगर में पहुंचे तो दुनीचंद को खबर लगी। वह पहुंचा नानक के पास। उनसे अनुरोध किया कि वे उसके घर भोजन पर पधारें। मगर नानक ने उसे मना कर दिया। यह बात नगरसेठ को बहुत नागवार गुजरी। आज तक किसी ने नगरसेठ के घर दावत में आने से मना नहीं किया था। नगरसेठ जिद पर अड़ गया। धनिकों में जिद और अभिमान आ ही जाता है। उसने बार-बार नानक से अपने घर भोजन पर आने का अनुरोध किया। नानक ने कहा- मैं आऊंगा, तो तुम्हारे लिए मुश्किल होगी, इसलिए भोजन पर न बुलाओ तो ही अच्छा। मगर नगरसेठ अपनी जिद पर अड़ा रहा।
नानक गए दुनीचंद के घर भोजन पर। सेठ ने बड़े आदर-भाव के साथ भोजन परोसा। नानक ने एक रोटी उठाई। अपनी हथेली में रख कर जोर से दबाई, तो खून की बूंदें टपकने लगीं। वहां उपस्थित सारे लोग यह देख कर हैरान रह गए। नगरसेठ अवाक रह गया। किसी ने नानक से पूछा, यह कैसे हुआ कि रोटी में से खून की बूंदें टपकने लगीं। नानक ने कहा, दरअसल, सेठ की सारी कमाई लोगों का खून चूस कर जमा की हुई है। इसकी हर रोटी में लोगों का खून है। वही खून टपक रहा है। सुन कर नगरसेठ बहुत शर्मिंदा हुआ।
ऐसे नगरसेठों की कमी आज भी नहीं है। धन की लालसा ही ऐसी होती है कि वह बढ़ती जाती है और फिर धनलोलुप व्यक्ति को इस बात की परवाह ही नहीं रहती कि जो धन वह जमा कर रहा है, वह लोगों के खून-पसीने की कमाई हड़प कर जमा किया जा रहा है। उसमें ईमानदारी नहीं रह जाती। जीवन में सुख की लालसा रखने वाले ज्यादातर इसी तरह भौतिक साधन जुटाते और सामान्य जन के हिस्से पर अपना अधिकार जमाते जाते हैं। वे देख ही नहीं पाते कि उनकी रोटी में न जाने कितनों का खून सना हुआ है।