अमेरिकी संस्था ‘फ्रीडम हाउस’ ने भारत को ‘आंशिक रूप से आजाद लोकतंत्र’ का दर्जा दिया है। स्वीडन के ‘वी-डेम’ संस्थान ने इसे ‘निर्वाचित निरंकुश तंत्र’ के रूप में चिह्नित किया है। ‘इकोनामिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट’ के लोकतंत्र सूचकांक में भारत फिसल कर तिरपनवें स्थान पर आ गया है। इस गिरावट में संसद के दोनों सदनों और उनके सदस्यों ने अपनी अहम भूमिका निभाई है। भारत के संसदीय लोकतंत्र को कैसे कमजोर किया गया है, इसे लेकर मैंने जो छोटी-सी सूची तैयार की है, आप उसमें अपने अनुभवों के आधार पर चाहें तो कुछ और बातें जोड़ सकते हैं।
सूची इस तरह है:
- राज्यसभा की कार्यवाही के संचालन से संबोधित नियमावली के नियम 267 (लोकसभा में भी समान नियम है) के तहत विपक्ष के सदस्य किसी जरूरी सार्वजनिक महत्त्व के मसले पर चर्चा की मांग करते हैं। पिछले कुछ महीनों में इस नियम के तहत, तत्काल सार्वजनिक महत्त्व के विषयों, जिनमें भारत में चीनी घुसपैठ से लेकर हिंडनबर्ग रिसर्च एलएलसी की रिपोर्ट तक शामिल हैं, पर चर्चा करने के लिए दोनों सदनों में कई बार मांग उठाई गई।
मगर सभापति ने हर प्रस्ताव को खारिज कर दिया। इससे यही निष्कर्ष निकला कि भारत की संसद में ये ‘अत्यावश्यक सार्वजनिक महत्त्व’ के विषय नहीं हैं, जिन पर चर्चा करने की आवश्यकता है, और उन्हें कार्यवाही से अलग कर दिया गया। और यकीन मानिए कि भारत के लोग इतने सुरक्षित, निश्चित और संतुष्ट हैं कि उनसे संबोधित कोई भी बात संसद में तत्काल चर्चा के योग्य नहीं है।
अध्यक्षीय प्रधानमंत्री
- प्रधानमंत्री, अगर वे लोकसभा के सदस्य हैं, तो सदन के नेता भी होते हैं। प्रधानमंत्री मोदी सत्रहवीं लोकसभा के नेता हैं। वे दोनों सदनों में कम ही उपस्थित होते हैं। वे हर साल राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस का जवाब देते हैं। मुझे उनके द्वारा किए गए किसी अन्य बड़े हस्तक्षेप की याद नहीं आती। प्रधानमंत्री मोदी संसद में सवालों के जवाब नहीं देते; आमतौर पर एक मंत्री उनकी ओर से बोलता है।
(काश, हाउस आफ कामन्स की तरह हर बुधवार को प्रधानमंत्री का प्रश्नकाल होता।) मोदी जी का संसद के प्रति दृष्टिकोण, उदाहरण के लिए, जवाहरलाल नेहरू, मनमोहन सिंह या अटल बिहारी वाजपेयी से बहुत अलग है। प्रधानमंत्री ‘राष्ट्रपति’ बन गए हैं। अगर प्रधानमंत्री राष्ट्रपति बने रहते हैं और राष्ट्रपति के कार्य करते हैं, तो भारत अधिक समय तक संसदीय लोकतंत्र नहीं रहेगा।
- हाउस आफ कामन्स साल में 135 दिन बैठता है। 2021 में लोकसभा की उनसठ और राज्यसभा की अट्ठावन बैठकें हुर्इं। 2022 में लोकसभा और राज्यसभा दोनों की सिर्फ छप्पन बैठकें हुर्इं। कई ‘बैठकें’ व्यवधान के कारण नष्ट हो गईं। अरुण जेटली ने बड़ी रोचक बात कही थी कि ‘व्यवधानवाद वैध संसदीय रणनीति का एक हिस्सा है।’ 2010 का पूरा शीतकालीन सत्र एक मंत्री के इस्तीफे और एक संयुक्त संसदीय समिति के गठन की मांग पर जाया हो गया था। उस सत्र में, लोकसभा ने आबंटित समय का छह फीसद और राज्यसभा ने दो फीसद उपयोग किया था।
देर से, रणनीति में सुधार किया गया है। चालू बजट सत्र (द्वितीय भाग) में सत्ता पक्ष की ओर से हर दिन रणनीति के तहत व्यवधान पैदा किए गए हैं। कम बैठकें और अधिक व्यवधान संसद सत्रों को अप्रासंगिक बना देते हैं। इस स्थिति में बिना किसी बहस के विधेयकों को पारित किया जा सकता है (जैसा कि उन्होंने अतीत में किया है)। ऐसे में हम एक ऐसे समय की कल्पना करना शुरू कर सकते हैं, जब संसद साल में कुछ दिन ‘बैठेगी’ और बिना किसी बहस के, व्यवधान और हंगामे के बीच, सभी विधेयकों को पारित कर देगी।
बिना बहस के संसद
4.संसद के दोनों सदन वाद-विवाद के मंच हैं। भारतीय संसद में अनेक महत्त्वपूर्ण बहसें हुई हैं। 1962 के चीन-भारत युद्ध, जिसमें भारत को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा था, पर बहस हुई थी। हरिदास मूंदड़ा की कंपनियों के शेयरों में एलआइसी के निवेश के आरोपों पर बहस हुई थी। बोफर्स तोपों के आयात से जुड़े आरोपों पर कई बार बहस हुई। बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर बहस हुई। हमेशा, बहसें बिना वोट के खत्म हो जाती हैं। संसदीय लोकतंत्र में सरकार को बहस से डरने की जरूरत नहीं है, क्योंकि उसके पास, ऐसा माना जाता है, हमेशा बहुमत वाले सदस्य होते हैं। फिर भी, वर्तमान सरकार बहस की अनुमति देने से इनकार कर देती है।
एक पुरानी कहावत है: ‘विपक्ष अपनी बात कहेगा, सरकार अपनी बात कहेगी’। मुझे यकीन है कि सरकार को इस बात का डर नहीं है कि वह अपना ‘रास्ता’ खो देगी। सरकार को डर इस बात का है कि विपक्ष अपनी ‘कहने’ के दौरान असहज करने वाली सच्चाइयों को सामने ला देगा। क्या भारत बिना बहस की संसद के युग में चला गया है? मुझे ऐसा डर है, और अगर मेरा डर सच साबित होता है, तो हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि संसदीय लोकतंत्र की विदाई का समारोह जल्द ही शुरू होगा।
- कल्पना कीजिए कि संसद का सत्र बुलाया जाता है। सभी सदस्य भव्य सभागार में एकत्र होते हैं। कल्पना कीजिए कि सभी सदस्य गणराज्य के राष्ट्रपति के रूप में एक नेता का चुनाव करने के लिए मतदान करते हैं। प्रत्याशी के खिलाफ कोई मत नहीं पड़ता है। उस प्रत्याशी पर किसी को कोई एतराज नहीं है। वास्तव में दिक्कत अन्य उम्मीदवार में है। देश इस नतीजे को ‘लोगों के लोकतंत्र’ की जीत के रूप में मनाता है। क्या भारत में ऐसा हो सकता है?
यह हो सकता है, क्योंकि हम लगातार एकदलीय शासन की ओर बढ़ रहे हैं। अगर पंद्रह राज्यों में एक पार्टी का शासन है और अगर वह पार्टी (और उसके दृढ़ सहयोगी) लोकसभा के 362 सदस्यों और राज्यसभा के 163 सदस्यों का चुनाव करने में सक्षम हैं, तो भारत को एक और ‘पीपुल्स रिपब्लिक’ बनने से कोई नहीं रोक सकता। शुक्र है कि वह भयानक संभावना कुछ दूर है, लेकिन इसे पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता। जब भारत एक ‘पीपुल्स रिपब्लिक’ बन जाएगा, तो भारत में संसदीय लोकतंत्र अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच जाएगा।