राकेश सिन्हा
पूरी दुनिया में ‘आस्था’, ‘विश्वास’ और ‘धर्म’ के नाम पर हलचल बढ़ती जा रही है। जिस अनुपात में भौतिक प्रगति हो रही है, उससे कहीं अधिक गति से ‘पहचान का संकट’ लोगों के मस्तिष्क में कुरेद रहा है। आस्थाओं के विरोधाभासी अंतरों से अस्तित्व की लड़ाई उपज रही है। स्वाभाविक है, धर्मनिरपेक्षता शब्द पर विवाद का उपजना। जिन देशों में धर्म का राजनीतिक हस्तक्षेप न्यूनतम था, आज वे देश भी इस प्रवृत्ति से अपने आप को अलग नहीं रख पा रहे हैं। उदाहरण के लिए आस्ट्रेलिया मूलत: धर्मनिरपेक्ष रहा है। इसके संविधान की धारा 116 किसी ऐसे कानून की अनुमति नहीं देती है, जो किसी धर्म विशेष को राज्य पर आरोपित करे। परंतु वहां भी 2013 में जब प्रधानमंत्री के संसदीय सचिव एड हुसीक ने कुरान पर हाथ रख कर शपथ ली, तो जंग छिड़ गई।
पश्चिम अपने स्थापित जीवन-मूल्य को प्रभावित नहीं होने देता
साधारणतया आस्ट्रेलिया में बाइबिल ही शपथ का ग्रंथ रहा है। हुसीक पर असंवैधानिक होने तक का आरोप लगा। यह समस्या सिर्फ आस्ट्रेलिया की नहीं है। पश्चिम के अधिकांश देशों ने एक विशिष्ट जीवन पद्धति को ही धर्मनिरपेक्ष माना है। उस जीवन पद्धति का आधार ईसाइयत है। इसलिए बहुसांस्कृतिकवाद उनके लिए तभी तक स्वीकार्य है, जब परंपरागत तरीके से स्थापित जीवन मूल्य अप्रभावित रहता है।
भारतीय जीवन मूल्य खूंटे से बंधा नहीं है, प्रश्न और प्रतिकार इस, जीवन मूल्य की बुनियाद में हैं
यह भारत को पश्चिम से अलग करता है। भारतीय जीवन मूल्य खूंटे से बंधा नहीं है। प्रश्न और प्रतिकार इस, जीवन मूल्य की बुनियाद में हैं। इसलिए यहां बाह्य संकेतों या कर्मकांडों से पहचान या अस्तित्व परिभाषित करने की प्रवृत्ति कभी प्रबल नहीं रही है। इसलिए अतिरेक भी लोगों को आंदोलित नहीं कर पाता है। वह स्वयं पानी के बुलबुले की तरह समाप्त हो जाता या खारिज महसूस करता है। इसका उदाहरण हाल के दिनों में कुछ राजनेताओं द्वारा रामचरितमानस पर उठाया गया सवाल राजनीतिक गलियारों तक ही सीमित रह गया। आम लोगों ने अपने विवेक से इस अबौद्धिक विमर्श से अलग रखा है। इसी भारतीय प्रकृति को पहचानने और पुष्ट करने की जरूरत है। इसी विवेकवाद से दुनिया में चल रही हलचल का निदान भी है।
विवेकवाद के लिए आवश्यक है अपनी राय रखने की क्षमता के साथ-साथ सहनशीलता विकसित करना। दोनों में से किसी एक की अनुपस्थिति विवेकवाद को परास्त कर देती है। भारतीय सभ्यता में इसी को सनातन कहा गया है। इसमें बहुलता के बीच सामंजस्य की प्रक्रिया अबाधित रूप से चलती रहती है। इसीलिए भारतीय बौद्धिक संपदा की संपन्नता रही है।
आस्था और विश्वास का संघर्ष का कारण बनने के पीछे मानव के विवेक को अघोषित रूप से किसी परंपरा, दर्शन या कर्मकांड का बंधक बना देना होता है। इसके कारण मनुष्य भौतिक प्रगति, वैज्ञानिक सफलता, तकनीकी विलासिता और शैक्षणिक योग्यता तो हासिल कर लेता है, पर विवेकवादी नहीं रह पाता। आधुनिक मानव का यह सबसे बड़ा संकट है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता आधिपत्यवाद पर मखमल की चादर से सुरक्षित रखने का हथकंडा मात्र रह गया है। पश्चिम ने इसी हथकंडे को आधुनिक विश्व में परोसा है।
हालांकि वे धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते हैं, पर पंथ विशेष के प्रभाव से मुक्त नहीं हैं। इंग्लैंड के हाउस आफ लार्ड्स (ऊपरी सदन) के छब्बीस सदस्य चर्च आफ इंग्लैंड से आते हैं, जिनकी नियुक्ति राजा/ रानी द्वारा होती है।
इंग्लैंड दुनिया को धर्मनिरपेक्षता का घूंट पिलाता है और स्वयं इस न्यूनता से मुक्त नहीं हो पाया। वहां का समाज इसे न्यूनता मानने को तैयार भी नहीं है। राजा या रानी को ‘धर्म का संरक्षक’ कहा जाता है। इंग्लैंड अपवाद नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका में राजनीति पर चर्च का प्रभाव और ईसाइयत की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन के समय से बाइबिल पर हाथ रख कर शपथ लेते हैं।
लिंकन द्वारा जिस बाइबिल से शपथ ली गई थी, वह सुरक्षित है। कुछ तो दो-दो बाइबिल पर हाथ रख कर शपथ लेते हैं। एक लिंकन की बाइबिल और दूसरी अपने घर की बाइबिल। बाइबिल पर हाथ रख कर शपथ न लेने वाले अपवादस्वरूप रहे हैं। रूजवेल्ट ने यहां तक कह दिया था कि ‘बाइबिल की पूर्णता से समझ कालेज की शिक्षा से कहीं अधिक बेहतर है।’ जहां भी प्रतिकार और प्रश्न की संभावना समाप्त होती है या सिर्फ औपचारिक या सांकेतिक रूप में विद्यमान रहती है, वहां उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता का धरातल कमजोर होता है। पश्चिम इस कमजोर धरातल पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार नहीं है।
भारतीय पंथनिरपेक्षता में धर्म के प्रति अनुकूलता तो है, पर विवेकवाद इसकी चौकीदारी करता है। आस्थाओं में बहुलवादी स्रोतों, ग्रंथों और धर्मनिरपेक्ष चरित्रों के कारण विविधता इसकी पहचान और प्रकृति दोनों है। उपनिषद उस विवेकवाद की अभिव्यक्ति है, जो यहां की पंथनिरपेक्षता को भावनात्मक नहीं बनने देता है। इसलिए भावना की लड़ाई में स्थायित्व का भाव कभी नहीं रहा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्वतंत्र हुए देशों में पश्चिम की परिभाषाएं और विचार हावी रहे हैं। भारत की संविधानसभा ने इसे अपने विवेकवादी पद्धति और विरासत से इसे न्यून रखने में सफल रही। संविधानसभा ने पंथों, मतों, विश्वासों और संप्रदायों को ‘हम भारत के लोग’ में पिरोने का काम किया। यह सिर्फ मुहावरा नहीं, बल्कि भारत की मूल प्रवृत्ति और प्रकृति है, जिसे समृद्ध करते रहने की आवश्यकता है।
इस प्रवृत्ति और प्रकृति का एक उदाहरण संविधानसभा में ‘ईश्वर’ के नाम पर हुई बहस है। जब संविधान की प्रस्तावना पर बहस हो रही थी, तब एचवी कामथ ने संशोधन किया कि ‘ईश्वर के नाम पर’ प्रस्तावना होनी चाहिए। उनका तर्क था कि यह ‘हमारी प्राचीन सभ्यता का स्वर’ है। पर हृदयनाथ कुंजरू ने इस संशोधन विधेयक का विरोध करते हुए ईश्वर को नागरिकों पर थोपना बताया। कामथ अकेले नहीं थे। उनका साथ सिब्बल लाल सक्सेना, पट्टाभि सीतारमैया, गोविंद मालवीय और मौलाना हसरत मोहानी दे रहे थे।
अरुणा आसफ अली की छोटी बहन पूर्णिमा बनर्जी संविधानसभा की सदस्य थीं। उन्होंने इस रोचक बहस में हिस्सा लेते हुए, कामथ से संशोधन वापस लेने की अपील करते हुए कहा कि ‘हमें ईश्वर के नाम पर मतों में विभाजित होने के लिए लज्जित न कीजिए।’ डा. राजेंद्र प्रसाद ने भी संशोधन वापस लेने की अपील की थी। पर वे डटे रहे। मत विभाजन हुआ। कामथ के समर्थन में इकतालीस मत और उनके संशोधन के विरोध में अड़सठ मत पड़े। यह घटना इस बात की साक्षी है कि विरोध और मतों का प्रकटीकरण विभाजन को संस्थागत नहीं बनाता है। यह मानव स्वभाव और विकासोन्मुख प्रवृत्ति के हिस्से की तरह है। इसी को ‘हम भारत के लोग’ द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है, जो अखंडित बने रहना चाहिए।
भारत को अपने समृद्ध साहित्य, समाज, संस्कृति से भविष्य का रास्ता तय करना है। पश्चिम से इसे न उदारवाद और न ही धर्मनिरपेक्षता सीखनी है। रचनात्मक विवेकवाद जो उपनिषद का आधार है, उसे संपुष्ट करने की जरूरत है।
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)