मैंने जब उसे बताया कि इस फिल्म को लेकर भारत सरकार की तरफ से काफी समर्थन मिला है, तो उसको अजीब लगा। भारत एक लोकतांत्रिक देश है, वहां फिल्म निर्देशकों को सरकारों का समर्थन मिलना ही नहीं चाहिए, सिवाय इसके कि जब फिल्म सरकारी प्रचार के मकसद से बनाई जाती है।
मैंने जब समझाया कि कश्मीर से हिंदुओं का पलायन एक अति-संवेदनशील मामला है, इसलिए हल्ला मच रहा है, तो और भी हैरान हुई। उसने कहा कि उसकी समझ में नहीं आता कि कश्मीरी हिंदुओं का पलायन रोका क्यों नहीं गया था होने से पहले और अब जब दिल्ली में एक हिंदुत्व हृदय सम्राट आसीन हैं प्रधानमंत्री निवास में, कश्मीरी हिंदुओं को वापस घाटी में बसाने का काम क्यों नहीं हुआ है। सवाल उसका वाजिब था, लेकिन मेरे पास उसका कोई जवाब नहीं था।
जब देखा कि उस इजराइली फिल्म निर्देशक के बयान को लेकर अनुपम खेर ने कहा है कि जिन लोगों ने ‘होलोकास्ट’ देखी है, उनको तो कम से कम कश्मीरी पंडितों के साथ हमदर्दी होनी चाहिए। मैं खुद सोचने लगी कि कश्मीरी पंडितों की असली समस्याओं पर क्यों इतना कम ध्यान दिया जा रहा है और इस फिल्म पर क्यों ज्यादा।
प्रधानमंत्री और देश के गृहमंत्री कई बार आश्वासन दे चुके हैं कि घाटी में अब शांति इतनी है कि जितने पर्यटक घूम रहे हैं कश्मीर में उतने पहले कभी नहीं दिखे। सवाल है कि इतनी शांति है अगर घाटी में, तो क्यों नहीं लाखों की तादाद में पंडितों को वापस ले जाया जा रहा है? क्यों छोटी-छोटी टुकड़ियों में उनको सुरक्षित शिविरों में बसाने का काम हो रहा है, जहां वे हमेशा निशाने पर रहते हैं जिहादियों के?
कश्मीरी पंडित क्यों नहीं केंद्र सरकार के समर्थन से लाखों की तादाद में वापस घाटी में बसने की मांग कर रहे हैं? क्या इसलिए कि वहां आज भी शांति उस हद तक नहीं आई है, जैसा गृहमंत्री देश को बता रहे हैं? क्या यही मुख्य वजह है इस इजराइली फिल्म निर्देशक के बयान को लेकर भारत सरकार की इतनी परेशानी की?
जब भी कोई समस्या बहुत कठिन हो जाती है तो अक्सर देखा गया है अपने भारत महान में कि हमारे नेता और आला अधिकारी उससे ध्यान हटाने की कोशिश में लग जाते हैं, ताकि असली मुद्दा भुला कर भोली जनता किसी और चीज को लेकर रौला मचाना शुरू कर दे।
रही बात ‘कश्मीर फाइल्स’ की, तो इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले साल सबसे ज्यादा पैसा कमाया था इस फिल्म ने, लेकिन क्या ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ कि इस फिल्म में हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ भड़काने की बहुत सारी बातें थीं? पंडित घाटी से पलायन करने पर मजबूर हुए थे 1989-90 में सरकारी नाकामी के कारण। जब जिहादी आतंकवाद फैलने लगा घाटी में, तो सबसे पहले आत्मसर्पण किया उन लोगों ने, जिनको जनता ने सुरक्षा का काम सौंपा था।
दोष कश्मीर के राजनेताओं का तो है ही, दिल्ली के राजनेताओं का भी है। ‘कश्मीर फाइल्स’ में इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों को गहराई से उठाने के बजाय ध्यान दिया गया है सिर्फ जिहादियों की दरिंदगी पर। शायद इसीलिए इस फिल्म को देख कर इजराइली फिल्म निर्देशक नदव लापिद को लगा कि फिल्म सरकारी प्रचार के लिए बनाई गई है। आज भी वे अपने बयान पर कायम हैं, जिसके कारण ‘कश्मीर फाइल्स’ के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री कह रहे हैं कि उनकी सोच ‘अर्बन नक्सल’ सोच है।
मोदी भक्तों का एक बहुत बड़ा वर्ग है, जो केंद्र सरकार की किसी भी किस्म की आलोचना सुनते ही ‘अर्बन नक्सल, अर्बन नक्सल’ चिल्लाने लगता है, बिना यह देखे कि ऐसा करके साबित करते हैं ये लोग कि भारत एक गौरवान्वित, शक्तिशाली देश नहीं, एक कमजोर, तीसरे दर्जे का देश है, जहां लोकतंत्र की जड़ें इतनी कच्ची हैं कि किसी के बयान से हिल जाती हैं।
यहां जरूरी है कहना कि मैंने भी जब ‘कश्मीर फाइल्स’ देखी तो ऐसा लगा कि इसमें कश्मीर की समस्या को काफी भड़काऊ तरीके से पेश किया गया है। इस पिक्चर में घाटी की आधी कहानी बताई गई है, पूरी नहीं और जिस तरह देश भर में हिंदू भड़क गए हैं इस पिक्चर को देखने के बाद, उससे साबित होता है कि शायद निर्देशक का उद्देश्य नफरत और क्रोध फैलाना ही था।
ऐसा करना उनका अधिकार है, लेकिन जब कोई फिल्म निर्देशक इस फिल्म को देख कर उसमें पहचान जाता है कि फिल्म का मकसद प्रचार था कला नहीं, तो उसको एक ‘अर्बन नक्सल’ कहना भी गलत है। जितनी आजादी है फिल्म निर्देशकों को अपनी मर्जी से फिल्में बनाने की, उतनी ही आजादी है फिल्म देखने वालों को अपनी राय पेश करने की।
यही तो है लोकतंत्र की बुनियाद की रचना भी अपनी मर्जी से कोई कर सके और उस रचना की आलोचना भी करने का अधिकार हो। मेरी न्यूयार्क वाली दोस्त को खबर मिली है कि इजराइल के राजदूत पर भारत सरकार ने दबाव डाल कर माफी मंगवाई थी। यह सच है, तो भारत सरकार ने भारत को शर्मिंदा किया है।