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अल्पसंख्यक: वह शब्द जिसकी परिभाषा संविधान में देने की आवश्यकता नहीं समझी गई

अल्पसंख्यकवादी मानसिकता से अलग-थलग रहने की प्रवृत्ति का जन्म होता है। यह परस्पर मेलजोल को सीमित कर देता है। संवाद औपचारिकता के दायरे में ही होता है।

अल्पसंख्यक: वह शब्द जिसकी परिभाषा संविधान में देने की आवश्यकता नहीं समझी गई

राकेश सिन्हा

एक शब्द, जिसने औपनिवेशिक काल से लेकर अब तक राजनीतिक विमर्श को सबसे अधिक प्रभावित किया है, वह है अल्पसंख्यक। आजादी से पहले कांग्रेस के राष्ट्रवाद को इसी शब्द से चुनौती दी जाती रही, स्वतंत्र भारत में यह शब्द ध्रुवीकरण का कारण बनता रहा है। दो महत्त्वपूर्ण अवधारणाएं- धर्मनिरपेक्ष और उदार लोकतंत्र, इसी शब्द में उलझ कर रह जाती हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिस शब्द की परिभाषा संविधान में देने की आवश्यकता नहीं समझी गई, वही शब्द संवैधानिकता की चौकीदारी कर रहा है।

अल्पसंख्यक सिर्फ संख्यावाचक शब्द नहीं है। यह किसी खास सामाजिक-राजनीतिक संबंधों का सूचक है। जब बड़ी संख्या वाला धर्म अल्प संख्या वाले धर्म के अनुयायियों के अस्तित्व के लिए चुनौती बन जाता है, तब उन्हें सबसे संरक्षण की अनिवार्यता महसूस होती है। इसलिए पश्चिम के देशों में संविधान और संविधानेतर संस्थाओं के लिए बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक शब्दावली उनके सामाजिक-आध्यात्मिक संघर्ष से उपजी है। भले संघर्ष इतिहास बन गया हो, पर संख्यात्मकता के बोध और उससे उत्पन्न होने वाले आधिपत्यवादी चुनौती की प्रवृत्ति समाप्त नहीं हुई है। इसलिए ये दोनों शब्द प्रासंगिक हैं।

क्या भारत का समाज और अध्यात्म पश्चिम के इस गुण-दोष को प्रतिबिंबित करता है? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, जो बुनियादी बातों को सामने लाने में संबल बनता है। भारत में जो गैर-हिंदू धर्म है, वह मोटे तौर पर अल्पसंख्यक होने का दावा करता है। और अल्पसंख्यक हित संरक्षण ही भारत की धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा बन गई है। मगर हिंदू बहुमतवाद का न कोई इतिहास है, न ही वर्तमान। और यह हो भी नहीं सकता है। हिंदू धर्म आध्यात्मिक लोकतंत्र पर खड़ा है। प्रश्न और प्रतिकार की बुनियाद पर ही हिंदू दर्शन और जीवन मूल्य विकसित हुआ है।

प्रश्न और प्रतिकार असहिष्णुता का कारण नहीं रहा है। यह हिंदू जीवन शैली और दर्शन का सबसे महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य है, जो इसे हमेशा बौद्धिक ठहराव और तर्क की दरिद्रता से बचाता रहा है। उपनिषद के दो शब्द ‘नेति नेति’ (यह भी नहीं, वह भी नहीं) इस प्रवृत्ति का सूत्र वाक्य है। और यही आध्यात्मिक लोकतंत्र है, जिसमें संख्या नहीं, गुण-दोष दर्शनों और संप्रदायों के अस्तित्व का कारण बनता है। इसी स्वाभाविक असीमितता के कारण हर स्तर पर विविधता पाई जाती है। इसलिए हिंदू बहुमतवादी प्रवृत्ति से मुक्त है। यह अल्पसंख्यक शब्द की अप्रासंगिकता का कारण है। इसी के भय से धर्मों के मूल चरित्र के विमर्श को ही ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।

आजादी से पहले की कुछ घटनाएं बहुमतवादी चरित्र की अनुपस्थिति को सहज तरीके से प्रमाणित करती हैं। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के दौरान कुल बहत्तर प्रतिनिधि आए थे, जिनमें उनसठ हिंदू थे। ईसाई और इस्लाम को मानने वाले मात्र दो दो प्रतिनिधि थे, तो पारसी, जो तुलनात्मक रूप से बहुत सीमित संख्या वाला है, के नौ प्रतिनिधि थे। यह क्रम बाद में भी चलता रहा। 1904 में कांग्रेस अधिवेशन में मुसलिम प्रतिनिधि पैंतीस थे, तो पारसी पैंसठ थे। 1907 में मुसलिम और पारसी प्रतिनिधियों की संख्या क्रमश: दस और बीस थी।

पारसियों की जनसंख्या 1931 की जनगणना में मात्र एक लाख नौ हजार थी। पर, उन्हें कभी अपने अस्तित्व पर खतरे की आशंका का आभास तक नहीं हुआ। इसलिए वे अल्पसंख्यक होकर भी अल्पसंख्यक नहीं बने। कांग्रेस के आरंभिक छह अध्यक्षों में डब्ल्यूसी बनर्जी ईसाई, दूसरे, दादा भाई नौरोजी पारसी, तीसरे बदरुद्दीन तैयबजी मुसलिम, उसके बाद जार्ज युले और वेडेनबर्न (दोनों यूरोपीय) और 1890 में फीरोजशाह मेहता पारसी थे। किसी ने हिंदू बहुमत वाले संगठन में हिंदू अध्यक्ष न होने को महसूस नहीं किया। पर उसी कांग्रेस को अल्पसंख्यकवाद की मार झेलनी पड़ी।

1937 में जब प्रांतों में इसकी सरकारें बनीं, तो मुसलिम लीग ने पीरपुर कमेटी रिपोर्ट जारी की। उसमें महात्मा गांधी का चित्र लगाने और तिरंगा फहराने को हिंदू फासीवाद बताया गया। यह अकेली रिपोर्ट नहीं थी। कमलयर जंग रिपोर्ट, शरीफ रिपोर्ट ऐसी ही भाषा में कांग्रेस पर प्रहार करती रहीं।

कांग्रेस ने 1885 से 1947 तक खुद को अल्पसंख्यकों की हितैषी साबित करने के लिए लगभग 323 प्रस्ताव पारित किए, पर सब निरर्थक साबित हुए। इसीलिए संविधानसभा में मुसलिम लीग (बिहार) के तजामुल हुसैन ने अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक शब्दों को ब्रिटेन की निर्मिति कहते हुए तर्क दिया कि मात्र संख्या के आधार पर कोई बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक नहीं हो जाता है। उन्होंने राजनीतिक दलों से संविधानसभा में दिए गए भाषण के दौरान इन दोनों शब्दों को शब्दकोश से बाहर फेंकने की अपील की थी। पर यह व्यर्थ साबित हुआ। स्वतंत्र भारत ने उस स्वर्णिम क्षण को पूरे होशो-हवास में खो जाने दिया, जब हम अपनी धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा को स्थापित कर पाते। परंतु हम आयातित अवधारणाओं की वैशाखी के साथ चलते रहे। यही देश में समान नागरिक कानून के निर्माण में बाधक बनती है।

सोशलिस्ट नेता जेबी कृपलानी ने 1948 में एक पुस्तक लिखी थी ‘माडर्निटी इन इंडिया’। उसमें उन्होंने कहा था कि भारत वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, उपनिषद के बिना खोखला हो जाएगा। उन्होंने एक दुर्भाग्य की ओर ध्यान दिलाया। भारत के गैर-हिंदू धर्मावलंबी इन पुस्तकों से साक्षात्कार नहीं करते हैं और यही कारण है कि वे अपरिवर्तित बने रहते हैं। जो भी प्रयास हुआ, उसे इस्लामिक समाज ने अपना संदर्भ बिंदु नहीं बनाया। औरंगजेब के भाई दारा शिकोह ने उपनिषद का अनुवाद किया। पर उसे मुसलिम विमर्श का हिस्सा नहीं बनाया जाता है। इसके विपरीत वह हिंदू चिंतन का हिस्सा बनता रहा है।

भारत के विमर्श को संख्यात्मक पक्ष से अलग होना होगा। यह भ्रामक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक विभाजन को जन्म देता है। अल्पसंख्यक अवधारणा स्थानीयता के बोध को समाप्त करती है, क्योंकि स्थानीयता पराएपन के भाव को अंकुरित होने नहीं देती। इसमें धर्म के ऊपर स्थानीय जीवन-शैली और सांस्कृतिक तत्त्वों का दबदबा रहता है। जहां-जहां भी स्थानीयता से उपजी सामुदायिकता का भाव प्रबल है, वहां सांप्रदायिकता की जमीन नहीं बन पाती है।

धर्मनिरपेक्षता के पोषण और प्रबलता का आधार समान शिक्षा-व्यवस्था होती है। दुर्भाग्य से इस पर ही सबसे बड़ा प्रहार अल्पसंख्यक संस्थाओं की बढ़ोतरी से हुआ। जब भी समान शिक्षा पर बल देने के लिए ठोस प्रयास हुआ, तब अल्पसंख्यक पर हमला बता कर प्रतिवाद होता रहा। 1957 में केरल में नंबूद्रीपाद की सरकार को इसका खमियाजा भुगतना पड़ा, जब समान शिक्षा की अवधारणा से बनी शिक्षा-व्यवस्था का ईसाई धर्मावलंबियों के विरोध का सामना करना पड़ा। अल्पसंख्यकवादी मानसिकता से अलग-थलग रहने की प्रवृत्ति का जन्म होता है। यह परस्पर मेलजोल को सीमित कर देता है। संवाद औपचारिकता के दायरे में ही होता है।

इस जटिलता के कारण ही फीरोजशाह मेहता ने कहा था कि ‘पारसियों को यह कहना कि स्थानीय लोगों से अलग-थलग रहना, उनके हितों से अलग रहना, न सिर्फ स्वार्थ के दायरे को बढ़ाना होगा, अपितु समान रूप से बुद्धिहीनता का परिचायक होगा।’ पारसी समाज का योगदान दिखाता है कि अनुयायियों की संख्या उनकी क्षमता को कम नहीं कर पाता है। बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक विमर्श जटिलताओं का जाल बनाता है, जो राष्ट्रीय जीवन के आर्थिक पक्ष के विमर्श में भागीदारी को मृतप्राय बना देता है। भारत में इस प्रश्न को लेकर जितनी और जैसी बहस संविधानसभा में हुई, वैसी बहस उससे बाहर नहीं हो पाई। इसका कारण इस पर कैरिअर राजनीति का हावी होना है। इसी दुर्भाग्य के जंजाल से मुक्ति की आवश्यकता है।

(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)

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First published on: 12-03-2023 at 06:00 IST