दूसरी नजरः आधी आबादी का गणतंत्र
मुसलमानों से संबंधित मामलों को कम समर्थन मिलता है या उनका भारी विरोध हो जाता है। जम्मू-कश्मीर का ही उदाहरण लें। मुझे लगता है कि घाटी में रह रहे पचहत्तर लाख लोगों का मामला ऐसा है जिसमें अब कुछ नहीं हो सकता।

हम भारत के लोगों ने ही भारत के संविधान को बनाया है। संविधान सभा का गठन ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ के सिद्धांत पर नहीं किया गया था, इसलिए यह सही मायने में लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं है। फिर भी, अंतिम नतीजे के रूप में इसे देखें तो संविधान सभा ने भारत के सभी लोगों के बारे में बात की है। यह एक ऐसा संविधान है, जिसने आपातकाल (1975-77) या 1979-80 में केंद्र सरकार के गिर जाने जैसे गंभीर हालात में भी अपने को लचीला साबित किया, और अपने बुनियादी ढांचे को खोए बगैर कई संशोधन झेल चुका है।
जब नानी पालखीवाला ने संविधान के अपरिवर्तनीय और असंशोधनीय ‘बुनियादी ढांचे’ के सिद्धांत को रखा था, तब कई अध्येताओं और कानूनी विशेषज्ञों ने इसका उपहास उड़ाया था। इन लोगों का कहना था कि संविधान में संशोधन (धारा 368) करने के संप्रभु संसद के अधिकार को कार्यपालिका द्वारा नियुक्त जज कैसे कम कर सकते हैं, या उसकी समीक्षा कर सकते हैं। आखिरकार तेरह में सात जजों ने पालखीवाला की उस आदर्श दलील को स्वीकार किया था। आज हम कह सकते हैं कि ईश्वर को धन्यवाद कि उन्होंने तर्क को स्वीकार किया।
क्या सबके लिए न्याय?
यह भारत का संविधान है, जो अपने सभी नागरिकों की सुरक्षा के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का संकल्प करता है। इसमें हरेक का अपना गहरा अर्थ है, उदाहरण के लिए सामाजिक न्याय। न्याय के ये संकल्प लाखों लोगों के दिल में उम्मीद की किरण पैदा करते हैं और उसे जलाए रखते हैं। 26 जनवरी, 2020 को हम संविधान की सत्तरवीं वर्षगांठ मनाएंगे।
यही वह समय है जब बड़े और कठोर सवाल पूछे जाने चाहिए, किसे सामाजिक न्याय मिला और किसे नहीं? आर्थिक न्याय क्या है और क्या सभी नागरिकों को आर्थिक न्याय मिलता है? और जब सारे नागरिकों के पास वोट का अधिकार है, तो क्या उन्हें राजनीतिक न्याय मिलता है?
सदियों से सबसे बड़ा वर्ग निचले तबके का अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का रहा है। अन्य पिछड़ी जातियां, इनमें भी सबसे ज्यादा पिछड़ी जातियां और अल्पसंख्यक हर तरह के लाभ से वंचित वाले वर्ग रहे हैं। अमेरिका में अश्वेत समुदाय के लोग कई सौ साल तक ठीक उसी हालत में रहे थे, जैसे आज भारत में दलित, आदिवासी और मुसलमान हैं। दास प्रथा को समाप्त करने के लिए अमेरिका में गृहयुद्ध तक छिड़ा और 1963 में नागरिक अधिकार कानून बना ताकि उन्हें स्वीकार करने और बराबरी के अवसर प्रदान करने की दिशा में ठोस और सकारात्मक कदमों की शुरूआत की जा सके। भारत में, हमारे पास ऐसा संविधान है जो अस्पृश्यता को स्वीकार नहीं करता, धर्म के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव को खारिज करता है और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण प्रदान करता है। फिर भी हकीकत यह है कि शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल (जो मानव विकास सूचकांक के दूसरे संकेतकों में से हैं) और सरकारी नौकरियों में नियुक्तियों के संदर्भ में सामाजिक न्याय उपेक्षित वर्गों की पहुंच से कहीं दूर है।
गरीबों के खिलाफ और भेदभाव
मैंने आवास, अपराध, विचाराधीन मुकदमे, खेल की टीमों में प्रतिनिधित्व आदि के आंकड़ों का जिक्र नहीं किया है, जो निर्णायक रूप से यह साबित करेंगे कि अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और मुसलमानों के साथ सामाजिक भेदभाव हो रहा है और उन्हें उपेक्षित, तिरस्कृत और हिंसा के लिए छोड़ दिया गया है।
आर्थिक न्याय सामाजिक न्याय की देन है। उपेक्षित और वंचित समूहों में शैक्षिक उपलब्धि कम है, संपत्ति कम है, सरकारी नौकरियां कम हैं या अच्छी नौकरियां नहीं हैं, और कम आमद-खर्च है। इस सारणी में हम यह देखेंगे-
सबसे दुखद
राजनीतिक न्याय का तीसरा वादा सबसे ज्यादा आहत करने वाला है। भला हो आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों का जिसकी वजह से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को राज्य विधानसभाओं और संसद सहित सभी निर्वाचित निकायों में उचित प्रतिनिधित्व मिला है, लेकिन राजनीतिक न्याय वहां जाकर ठहर जाता है। कई राजनीतिक दलों में निर्णय करने वाले निकायों या स्तरों पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों की प्रतिनिधित्व सिर्फ दिखावे भर का होता है। यहां तक कि यदि अनुसूचित जाति के लोगों ने अपनी पार्टी (बसपा, वीसीके) बनाई भी है तो भी अनुसूचित जाति के मतदाताओं में उनका आधार सीमित है, और जब तक कि वे बड़े सामाजिक गठजोड़ (बहुजन) या राजनीतिक गठजोड़ नहीं करते, तो वे वहीं पड़े रह जाते हैं जहां वे हैं। अल्पसंख्यकों खासतौर से मुसलमानों के मामले में तो हालात और खराब हैं। मुख्यधारा वाले राजनीतिक दलों में ‘अल्पसंख्यक सेल’ बने हुए हैं, लेकिन पार्टी की अग्रिम पंक्ति में मुशिकल से ही कोई इनमें से पहुंच पाता है। भाजपा ने तो खुलेतौर पर मुसलमानों को दूर किया और उन्हें एनआरसी, एनपीआर और सीएए की धौंस दिखाई। दूसरी ओर, आइयूएमएल या एआइएमआइएम जैसी मुसलिम पार्टियां गठबंधन की भागीदार हो सकती हैं, या खेल बिगाड़ने वाली हो सकती हैं, लेकिन कभी विजेता नहीं हो सकतीं।
मुसलमानों से संबंधित मामलों को कम समर्थन मिलता है या उनका भारी विरोध हो जाता है। जम्मू-कश्मीर का ही उदाहरण लें। मुझे लगता है कि घाटी में रह रहे पचहत्तर लाख लोगों का मामला ऐसा है जिसमें अब कुछ नहीं हो सकता। घाटी (जिसे आधा घटा कर एक केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया है) पिछले साल पांच अगस्त से कैद में है। पिछले साल घाटी में आतंकी हमलों की घटनाएं दस साल में सबसे ज्यादा रहीं। बड़ी संख्या में नागरिक मारे गए और जख्मी हुए। बिना किसी आरोप के छह सौ नौ लोग हिरासत में हैं, जिनमें तीन पूर्व मुख्यमंत्री भी हैं। मीडिया ‘सामान्य हालात’ वाली सरकारी विज्ञप्तियों ‘से ही ‘रिपोर्ट’ दे रहा है। देश का बाकी हिस्सा कश्मीरी लोगोंको भूल चुका है और दूसरे बड़े मुद्दों की ओर मुड़ गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2019 में दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रखा हुआ है।
लाखों लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय नहीं देकर प्रतिदिन संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। जहां तक जम्मू-कश्मीर का संबंध है, यह संविधान को अपवित्र करने जैसा है, लेकिन हमें अदालत के फैसले का इंतजार करना है। सभी नागरिकों को न्याय देने का जो संकल्प किया गया था, सत्तार साल बाद भी कम से कम आधे नागरिकों को भी वह न्याय नहीं मिला है, और बाकी आधों को जो मिला है, वह टुकड़ों-टुकड़ों में।