रवींद्रनाथ टैगोर का बचपन उस समय के धनाढ्य घरों की परंपरा के अनुसार ही प्रारंभ हुआ। उनकी देखभाल सेवकों द्वारा अधिक की गई। बाद में उहोंने स्वयं उस समय को परिवार के ‘सेवकों’ के निरंकुश शासन के रूप में वर्णित किया। उनके ऊपर जो बंधन लगाए गए, उनमें उन्हें घर कैद-सा लगा। बच्चों को प्राकृतिक सौंदर्य का अवलोकन कर उसका आनंद लेने से रोकना उन्हें अपार मानसिक कष्ट देता रहा। वे घर के बंधनों से बाहर आना चाहते थे। उन्होंने स्कूल जाने की उत्सुकता स्वयं व्यक्त की, परिवार का दबाव नहीं था। मगर जब गए तो उन्होंने वहां भी हर तरफ बंधन ही देखे, लगभग वैसे ही जैसे उन्हें घर की चारदीवारी में मिले थे। वहां के ऐसे अनुभव के बाद वे स्कूल के बंधन से छूटने को व्याकुल हो गए। जेल की तरह की दीवारें, निर्मम अनुशासन और सजा। अध्यापक उन्हें ‘बेंत की प्रतिमूर्ति’ ही दिखाई देता था। असहनीय परिस्थितियों में अपरिचित भाषा में दी जा रही शुष्क तथा नीरस शिक्षा शुरू से ही नियमों, सिद्धांतों, तथ्यों, संकल्पनाओं को रटाने पर निर्भर थी। इसमें जो सिखाया जाता था उस पर विचार करने या उसे समझ कर आत्मसात करने की कोई संभावना ही नहीं बनती थी।
‘शिक्षार हेरफेर’ लेख में टैगोर ने लिखा था कि सोचने की शक्ति और कल्पना शक्ति दो ऐसी अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानसिक शक्तियां हैं, जिनसे मनुष्य की क्षमताएं लगातर बढ़ती रहनी चाहिए। यह एक कार्यशील और सर्जनात्मक जीवन के आवश्यक अंग हैं, उसमें नवाचार और नवोन्मेष लाने के कारक हैं। बचपन से ही विचार तथा कल्पना की शक्ति को प्रस्फुटित करने का प्रयास अनिवार्य रूप से होना चाहिए। दुर्भाग्य से रटाने पर इतना जोर दिया जाता रहा है कि स्कूलों में कि ये दोनों लगातार कुंद होते जाते हैं। जैसे ही इन पर ध्यान देना प्रारंभ होगा, तो दो अन्य अत्यावश्यक तत्व स्वत: उभरेंगे- जिज्ञासा और सर्जनात्मकता। यह तभी संभव है जब बच्चों पर अनावश्यक नियंत्रण नहीं थोपा जाएगा।
गुरुदेव हर अवसर पर किताबी शिक्षा के प्रति अपनी दूरी को अवश्य प्रगट करते थे। वे प्रकृति से सीधे सीखने की क्षमता को प्रोत्साहन देने के पक्षधर थे। अध्यापकों के प्रयास बच्चों को जीवन की वास्तविकता और अपने आसपास के पर्यावरण से परिचित कराने की दिशा में ही केंद्रित होने चाहिए। हमारी शिक्षा कुछ ऐसी है जैसे पेड़ की जड़ों से सैकड़ों गज दूर वर्षा हो और उसमें से कुछ बूंदें ही बड़ी मुश्किल से जड़ों तक; यानी हमें अपने जीवन संवारने के लिए मिल सकें! हमारे सामने यक्ष प्रश्न शिक्षा और जीवन के बीच समरसता- हारमनी- स्थापित करने का है।
कृष्ण कृपलानी की पुस्तक ‘रवींद्रनाथ ठाकुर एक जीवनी’ में यह पक्ष बड़े ही प्रभावशाली ढंग से उभरता है: ‘उनका मानना था कि बालक का मस्तिष्क अपने परिवेश के प्रति असाधारण रूप से सजग होता है और वह उसे ऐंद्रिक अनुभवों द्वारा ग्रहण करता है। अपने मस्तिष्क से सीखने के पूर्व वह इन अनुभवों को इंद्रियों से आत्मसात करना सीख चुका होता है। इसलिए उसे एक ऐसा वातावरण प्रदान किया जाना चाहिए, जो उसकी जिज्ञासा को उत्प्रेरित करे, ताकि उसे अपने चारों ओर की दुनिया सहज और आनंदपूर्ण लगे। उसे इस बात के लिए भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वह अपना काम स्वयं करे और जहां तक संभव हो शिक्षक पर उसकी निर्भरता कम हो। इसलिए जहां तक हो सके उसे कला का शिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए, ताकि बालक अपने वातावरण को समझ सके और उससे प्यार कर सके।
रवींद्रनाथ के अनुसार, प्रकृति ही सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है। वे कला से प्रारंभ करने की बात करते थे, गांधी ‘क्राफ्ट’ की बात करते थे। बुनियादी तालीम में जो हाथ से काम सीखने को बात थी, उस पर गुरुदेव के यहां भी जोर दिया जाता था कि बालक अपने हर अंग-प्रत्यंग के कार्य और उनकी संवेदना को समझ ले। इस सारे चिंतन और शैक्षिक दर्शन के विपरीत शिक्षा के नाम पर जो तब हो रहा था- और आज भी हो रहा है- उस पर गुरुदेव का कथन था: ‘हमारे देश की शैक्षिक संस्थाएं मात्र ज्ञान का भिक्षापात्र हैं और ये हमारे राष्ट्रीय आत्मसम्मान का सिर नीचा करती हैं और हमें इस बात के लिए उत्साहित करती हैं कि हम उधार लिए पंखों का आडंबरपूर्ण प्रदर्शन कर सकें।’ इस सबके परिणाम के संबंध में वे आगाह भी करते हैं- ‘अगर सारी दुनिया आगे बढ़ते-बढ़ते अतिरंजित पश्चिम की तरह ही हो जाय तो फिर ऐसी फूहड़ नकल वाले आधुनिक युग की छद्मता अपने आप समाप्त हो जाएगी, वह अपनी ही विमूढ़ता के नीचे दम तोड़ देगी।’
टैगोर और गांधी पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान के प्रशंसक थे, मगर दोनों भारत की विशेषता और विशेषज्ञता को नजरंदाज करने को तैयार नहीं थे। गुरुदेव के अनुसार हमें अपने नैतिक ज्ञान भंडार को किसी भी सूरत में भूलना नहीं चाहिए, क्योंकि यह पश्चिम के उस ज्ञान से कहीं उच्च स्तर का तथा प्रभावशाली है, जिसमें केवल अनगिनत उत्पाद तथा भौतिकता लगातार संघर्षरत हैं। गुरुदेव ने स्पष्ट लिखा कि हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि आधुनिक विज्ञान मानवता को सदा के लिए यूरोप का दिया एक वरदान है। हमें उसे उपयोग में लाना चाहिए और पिछड़े बने रहने से मुक्ति पानी चाहिए, मगर उसे उसी स्वरूप में बिना विश्लेषण के स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण है यूरोप की शिक्षा प्रणाली का वैसे का वैसा ही भारत में लागू कर लेना। शिक्षा का जो अनुपयुक्त और अव्यावहारिक स्वरूप भारत पर थोपा गया था, उससे उनका (और गांधी का भी) विरोध पूर्ण था। उससे बचने के लिए आवश्यक था कि भारत की संस्कृति के हर पक्ष को संबल देकर शिक्षा में उभारा जाए, न कि पश्चिम की संस्कृति के विरोध में राष्ट्रीय ऊर्जा को खपाया जाए।
गुरुदेव मानते थे कि मनुष्य की वैचारिकता के बृहद और विस्तृत अध्ययन द्वारा भारतीय जीवन में ‘विविधता में निहित सामंजस्य तथा तालमेल’ को समझा जा सकता है। गुरुदेव सदा ही खुलेपन और नैसर्गिक तथा आनंदपूर्ण वातावरण की ओर इंगित करते रहे, जिसे पाना बच्चों का नैसगिक अधिकार माना जाना चाहिए। गुरुदेव का सारा शैक्षिक दर्शन प्रकृति को सर्वश्रेष्ठ शिक्षक मानता रहा। उसे ही व्यावहारिक रूप में शांति निकेतन परिसर में सभी के समक्ष रखा गया। मनुष्य की नियति है कि वह प्रकृति की सदा बदलती रहती मनोदशाओं को जानने-समझने का प्रयास करे। अगर वह ऐसा पूर्ण मनोयोग से करेगा, तो उसका प्रकृति से मानसिक और संवेदनात्मक संबंध स्थापित हो हो जाएगा। चूंकि स्कूल-आधारित शिक्षा व्यवस्थाएं ऐसा नहीं कर पाई हैं, इसलिए मनुष्य और प्रकृति के बीच की संवेदनात्मक कड़ी कमजोर हो गई और मनुष्य प्रकृति को केवल संसाधनों के दोहन और संग्रहण में ही उलझ कर रह गया। परिणाम सामने है: जलवायु परिवर्तन, वायु-प्रदूषण, जल संकट और कितने ही अन्य। विज्ञान बढ़ा है, ज्ञान बढ़ा है, मगर विवेक नहीं बढ़ा है। परिणाम स्वरूप मानवता नहीं बढ़ी है।
गुरुदेव मानते थे कि प्रकृति और ललित कलाओं से संपर्क का बालक की भावनाओं पर जो प्रभाव पड़ता है वह उसे मानवीय मूल्यों को आत्मसात करने में सहायक होगा। वह उसके संपूर्ण व्यक्तित्व विकास के लिए भी आवश्यक है। इनमें जो भी रुचि लेगा उसकी जिज्ञासा और प्रखर होगी तथा इससे उसकी सर्जनात्मकता को भी संबल मिलेगा। इसके लिए ऐसी शिक्षा व्यवस्था को साकार रूप देना होगा, जिसकी जड़ें देश की मिट्टी, यानी संस्कृति, विरासत, इतिहास और ज्ञानार्जन परंपरा में गहराई तक गई हुई होनी चाहिए। आज के नीति निर्धारकों के समक्ष यही चुनौती है।