प्रधानमंत्री की छवि के इन चौकीदारों को क्या इतनी भी समझ नहीं है कि इंटरनेट के आने के बाद किसी फिल्म पर पाबंदी लगाना बेकार हो गया है? इस बात को साबित करने की जरूरत वैसे तो है नहीं, लेकिन पिछले सप्ताह छात्रों ने कई विश्वविद्यालयों में साबित करके दिखाया कि आज के दौर में सेंसरशिप लगाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। दिल्ली से लेकर जादवपुर तक छात्रों को जब पाबंदी की खबर मिली, तो उन्होंने इंटरनेट से डाउनलोड करके इस वृत्तचित्र को सामूहिक तौर पर दिखाने का काम किया।
जब जेएनयू में मोदी के भक्तों ने बिजली काट दी, तो छात्रों ने अपने कंप्यूटरों की बैटरी पर इस फिल्म के दोनों हिस्से देखे। जामिया मिल्लिया में जब पाबंदी को सख्ती से लगाने की कोशिश हुई, तो छात्र खुल कर विरोध जताने लगे। बड़े-बड़े विदेशी अखबारों में वृत्तचित्र नहीं, उस पर पाबंदी सुर्खियां बन गईं। जिन लोगों को मालूम नहीं था इस फिल्म के बारे में, उनको भी मालूम हो गया। और प्रधानमंत्री के मीडिया मैनेजर गलती पर गलती करते रहे।
मोदी की भक्ति में जो टीवी चैनल लगे रहते हैं, उन पर पहुंच कर प्रधानमंत्री के प्रवक्ताओं ने ऐसी बातें की, जिनसे प्रधानमंत्री ही नहीं, भारत भी बदनाम हुआ। सोशल मीडिया पर मोदी के सबसे कट्टर भक्तों ने मोदीजी की बदनामी बढ़ाई, यह कह कर कि बीबीसी की यह फिल्म भारत के खिलाफ साजिश का हिस्सा है।
जाने-माने अभिनेता कहने लगे कि अंग्रेजों को कोई अधिकार नहीं है भारत के बारे में फिल्में बनाने का। उनकी भक्ति ने उनको इतना अंधा बना दिया कि उनको यह भी समझ में नहीं आया कि इस तरह के बेबुनियाद आरोप मोदी की छवि को और बिगाड़ने का काम करते हैं। सुधारने का नहीं।
मैंने वृत्तचित्र के दोनों हिस्से देखे हैं, सो कह सकती हूं कि इसमें कोई ऐसी बात नहीं है, जो पहले नहीं कही गई है गुजरात के 2002 वाले दंगों के बारे में, और मोदी के बारे में। हंगामा न किया होता प्रधानमंत्री के भक्तों ने, तो शायद यह वृत्तचित्र कोई देखता भी नहीं। पहले हिस्से में मोदी का एक साक्षात्कार दिखाया गया है, जिसमें वे बीबीसी के एक पत्रकार से कहते हैं कि उनको तकलीफ सिर्फ एक बात से हुई है दंगों को लेकर और वह यह कि उन्होंने मीडिया को ‘मैनेज’ नहीं किया।
यह बात जब मैंने सुनी तो याद आया कि कुछ ऐसी ही बात उन्होंने मुझसे भी कही थी, जब मैं उनसे 2016 में मिलने गई थी प्रधानमंत्री निवास में अपनी नई किताब देने। उस वक्त मैं खुद मोदीभक्त हुआ करती थी और प्रधानमंत्री ने मुझे कोई एक घंटे का समय दिया। जैसी उनकी आदत है, उन्होंने इस पूरे घंटे में न अपने किसी अधिकारी को आकर दखल देने दी और न ही किसी का फोन लिया।
बातचीत लंबी चली थी और आखिर में उन्होंने माना कि मीडिया को ‘मैनेज’ करना वे अभी तक सीखे नहीं हैं। मैंने उनको सुझाव दिया था विनम्रता से कि जितनी पारदर्शिता दिखाएंगे, उतना उनको फायदा होगा। मैंने यह भी सुझाव दिया था कि जिस तरह अमेरिका के राष्ट्रपति के प्रवक्ता रोज खुल कर पत्रकारों के साथ वार्ता करते हैं, उस तरह की कोई कोशिश उनको करनी चाहिए।
मेरी बात मान लिए होते, तो शायद पिछले हफ्ते वाला तमाशा न होता। ऐसा कह रही हूं, इसलिए कि मीडिया को ‘मैनेज’ करना मुश्किल है, जब तक पूरी पारदर्शिता से प्रधानमंत्री के प्रवक्ता पेश नहीं आते हैं। लेकिन ‘मैनेज’ करने की कोशिश करते हैं उनके मीडिया मैनेजर, सो साक्षात्कार जब देते हैं मोदी, तो सिर्फ उन पत्रकारों को, जो उनके भक्त माने जाते हैं।
उनके मीडिया मैनेजर इतने नादान हैं कि महत्त्वपूर्ण विदेशी अखबारों के दफ्तरों में जाकर दलीलें देते फिरते हैं कि मोदी के बारे में अच्छी खबरें ही छापी जाएं। इस तरह मीडिया को ‘मैनेज’ करने की कोशिश अक्सर विफल रहती है।
मोदी का रिश्ता मीडिया से इतनी दूरियों का है कि आज तक उन्होंने प्रेस वार्ता नहीं बुलाई है। विदेशी राजनेता जब भारत आते हैं और अपने प्रधानमंत्री से मिलने के बाद पत्रकारों के सवालों के जवाब देते हैं, तो उनके साथ मोदी आज तक नहीं दिखे हैं। इन दूरियों ने मोदी का नुकसान किया है, फायदा नहीं। ऐसा लगता है कि मोदी अभी तक समझ नहीं पाए हैं कि मीडिया को ‘मैनेज’ करना असंभव है और नुकसानदेह भी।
सबूत हम सबने देखा पिछले हफ्ते, जब इतनी नासमझी दिखाई मोदी के मीडिया मैनेजरों ने कि प्रधानमंत्री की छवि पर फिर से वह दाग दिखने लगा है, जो 2002 के दंगों के बाद दिखा था। उस समय उन पर आरोप था दंगे कराने का, लेकिन जबसे सर्वोच्च न्यायालय में साबित हुआ है कि दंगों में मोदी की कोई व्यक्तिगत भूमिका नहीं थी, तबसे वह दाग काफी हद तक मिट गया था पिछले हफ्ते तक।
आज फिर से वे पुराने सवाल उठने लगे हैं दुनिया के मीडिया में, तो सिर्फ इसलिए कि पारदर्शिता दिखाने के बजाय उनके प्रवक्ता लगे रहे हैं पाबंदियां लगाने में। अब क्या हम, कम से कम इतनी उम्मीद कर सकते हैं कि उन मीडिया प्रबंधकों की छुट्टी करके प्रधानमंत्री ऐसे प्रवक्ता रखें, जो पत्रकारों से डरने के बजाय उनसे दोस्ती का रिश्ता बनाने की कोशिश करेंगे? मोदी के लिए यह बहुत जरूरी हो गया है।