एक दिन एक किसान नेता बोल्या : आरएलडी-सपा को जिताओ! अगले रोज उनसे मिलने एक भाजपा नेता गए तो किसान नेता के सुर बदल गए। कहने लगे कि हम किसी दल के लिए वोट देने की नहीं कह रहे! कहा भी और बाद में नहीं भी! इसे कहते हैं ‘दोनों हाथ लड्डू’! हर नेता जान गया है कि क्या बोलेंगे तो क्या मिलेगा, क्या हिलेगा? और जबसे चुनाव ‘आन लाइन’ हुए हैं, तबसे हर नेता अपनी ‘बाइट’ की ‘कीमत’ जान गया है!
राकेश टिकैत जब भी बोलते हैं, व्यंग्य में बोलते हैं और कई बार उनका व्यंग्य इतना महीन होता है कि रिपोर्टर तक भकुआ जाते हैं! एक चैनल के रिपोर्टर के सवाल के जवाब में जब राकेश टिकैत ने कहा कि हम तो चाहवैं हैं कि सारे नामी नेता जीतें, योगी जी भी जीतें, ताकि विपक्ष मजबूत रहे… तो वह रिपोर्टर उनकी मारक व्यंजना न पकड़ पाया, सो फिर पूछ बैठा। तो राकेश ने फिर दुहरा दिया कि हम चाहते हैं कि योगी भी जीतें, ताकि विपक्ष मजबूत बने! रिपोर्टर बाद में बोला कि आपका मतलब है कि योगी हार रहे हैं… तब तक टिकैत जा चुके थे! ऐसी चुटीली भाषा किसी नेता के पास नहीं है!
बहरहाल, इस सप्ताह की घृणावादी भाषा के रचयिता मौलाना तौकीर रजा खान रहे। जैसे कि तौकीर रजा की ‘हेट स्पीच’ कि ‘मुझे उस दिन का डर लगता है… जिस दिन मेरे नौजवान बेकाबू हो गए, उस दिन तुमको हिंदुस्तान में पनाह के लिए जगह तक न मिलेगी! नक्शा बदल जाएगा हिंदुस्तान का। हम पैदाइशी लड़ाकू हैं…’
एक एक वाक्य चाकू की तरह उतरता हुआ महसूस हुआ। ठीक उसी तरह जिस तरह धर्म संसद के एक बाबा का बयान महसूस हुआ था! ऐसा हर बयान सारे चुनाव को हिंदू बरक्स मुसलमान किए जाता है! अब घृणा के बीच भी स्पर्धा है! सरकारें नहीं चुननी हैं, बल्कि किसकी घृणा वरेण्य है, यही तय करना है!
एक राष्ट्रवादी अंग्रेजी एंकर रात के नौ बजे तौकीर रजा के उक्त बयान पर पेचो-ताब खाता हुआ लटयन्स छाप चैनलों को फटकारता चलता है कि आज उन चैनलों में से कोई भी इस मुद्दे पर नहीं बोल रहा! सब मामूली मुद्दों पर लगे हैं! अकेला यह चैनल है, जो इसे बिना चुनौती के नहीं जाने दे सकता!
मगर वाह रे घृणा की ताकत कि कई तो तौकीर के ‘घृणा-वाक्’ का भी सौंदर्यशास्त्र रचने में लगे रहे कि उनकी घृणा बुरी और इनकी घृणा अच्छी! एक घृणा-भक्त के जवाब में दूसरे घृणा-भक्त कह उठता है कि हम (हिंदू) अगर फूंक देंगे तो उड़ जाओगे तौकीर रजा! जब पुलिस सौ मारेगी और एक गिनेगी, तो सब भूल जाओगे… चैनल पर कांग्रेसी नेताओं के साथ खड़े तौकीर की फोटो दिखाई जाती रही।
ऐसी हर बहस के बाद घृणा किस तरह सुलगती रह जाती है, इसका एक उदाहरण अगले रोज उस एक घंटे की सनसनाती खबर से मिला, जिसमें दिल्ली की त्रिलोकपुरी में दो लावारिस पड़े थैलों को कई चैनल ‘आतकंवादी साजिश’ की तरह दिखाते रहे, फिर बीस मिनट बाद जब डीसीपी ने कहा कि ये ‘खोए थैलों’ का मामला है। एक में लैपटाप है, दूसरे में निजी सामान है और थैले वाले से संपर्क हो गया है, तब जाकर दर्शकों को चैन पड़ा!
यों एक चैनल रोजाना ही ‘ओपिनियन पोल’ दिखाता है, तब भी हर दल हिला हुआ नजर आता है और हर प्रवक्ता अपनी-अपनी सरकार बनाता नजर आता है!
इन दिनों सीट ही विचारधारा है! मिली तो साथ, न मिली तो चले! दलबदल शर्म की जगह गर्व की चीज है! हर दलबदल एक बेशर्म खबर है! सपा की छोटी बहू सपा छोड़ भाजपा में आती हैं, तो लगता है कि वे भाजपा के राष्ट्रवाद की प्रवक्ता हैं!
सीटों की रिपोर्टिंग संभालने के लिए हर दल के कार्यकर्ता रिपोर्टरों को घेरे रहते हैं और सब अपने को जिताते रहते हैं! नारे लगाने लगते हैं! फिर कुछ देर बाद ‘फ्री फार आल’ होने लगता है! बाइटों को मैनेज करने का दलों का यह गलीछाप तरीका जिंदाबाद!
एक खबर को यूएन में भारत के प्रतिनिधि ने चर्चा का विषय बनाया! उन्होंने यूएन फोरम में बोला कि यूएन की ‘फोबिया पदावली’ में ‘इस्लामोफोबिया’ (इस्लाम से खतरा) और (ईसाइयत विरोधी फोबिया) तो दर्ज है, लेकिन ‘हिंदू विरोधी फोबिया’, ‘सिख विरोधी फोबिया’ और, ‘बौद्ध विरोधी फोबिया’ भी फैलाया जाता है, लेकिन यूएन की सूची में इनका जिक्र नहीं है, जबकि होना चाहिए, ताकि ऐसे ‘धार्मिक फोबियाओं’ से लड़ाई में समांतरता लाई जा सके! कई चैनलों ने इस मुद्दे पर चर्चा कराई!
और अंत में, जब एक पत्रकार ने प्रियंका से पूछा कि कांग्रेस का सीएम का चेहरा कौन है, तो वे बोलीं कि आपको मेरे सिवा क्या कोई और चेहरा दिखता है कांग्रेस की ओर से? इसे कहते हैं अहंकार? अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना! अपनी ही पीठ ठोंकना! इस अहंकारी जवाब के बाद रिपोर्टर यह पूछने की ताब न ला सका कि यह चेहरा किस सीट से चुनाव लड़ेगा?