इस बार गुजरात के चुनाव में हर दल मुफ्त की रेवड़ी बांटने में प्रतियोगिता करता दिख रहा है। सब सब कुछ देने पर उतारू हैं कि हम ये देंगे कि ये और देंगे कि ये अतिरिक्त देंगे और एक दिन हम सबको स्वर्ग भी देंगे, वो भी मुफ्त! जनता भी मजे लेती है। दिल्ली नगर निगम के चुनावों में भी एक से एक दानवीर निकल पड़े हैं! अगर सब सब कुछ देने लगे, तो एक दिन दिल्ली जीता-जागता स्वर्ग बन जानी है। लेकिन इस स्वर्ग की हवा का न प्रदूषण कम होना है, न कूड़ा बनना कम होना है, न कलह कम होनी है!
गुरुवार के दिन गुजरात में पहले चरण का मतदान शुरू हुआ, तो चैनल हर घंटे के हिसाब से मतदान का फीसद बताते रहे कि सुबह तक इतना फीसद मतदान हुआ, कि दोपहर तक इतना हुआ और शाम तक इतना, फिर यह खबर दी जाती रही कि इस बार का मतदान 2017 की अपेक्षा काफी कम रहा!
इसे देख एक विपक्षी नेता ने आरोप लगाया कि मतदान की गति को जानबूझ कर धीमा किया गया है… यह कुछ ज्यादा ही दूर की कौड़ी रही! अरे भइए! जनता का वोट, जनता चाहे दे या न दे या जितना चाहे दे! ये उसकी मर्जी! वोट जबर्दस्ती तो नहीं डलवाया जा सकता न! इस बीच सप्ताह की एक बड़ी बहस अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के निर्णायक मंडल के प्रमुख द्वारा ‘कश्मीर फाइल्स’ को ‘अश्लील (वल्गर) प्रचार’ और ‘फासिस्ट’ कहने के कारण बनी!
कई भक्त चैनल और कई भक्त एंकर तथा चर्चक फैल गए कि ‘जूरी’ प्रमुख की इतनी हिम्मत कैसे हुई कि हमारी ही जूती हमारे ही सिर कर दी! हमी ने उसे ‘जूरी’ का ‘चीफ’ बनाया और उसने हमी को ठोका! ‘कश्मीर फाइल्स’ पर चली बहसें लौट आर्इं। एक ने याद दिलाया कि जिनको हिटलर का ‘होलोकास्ट’ झेलना पड़ा, वे ऐसा कह रहे हैं! कैसा आश्चर्य! मगर ‘जूरी चीफ’ लापिद को सबसे सही जवाब दिया इजराइल के राजदूत ने ही, कि वे भारत से अपनी कुंठा न निकालें और कि उनका कथन कश्मीरी पंडितों का अपमान है… कई बहसों में जूरी के पक्षधर भी दिखे।
कई कहते रहे कि ‘कश्मीर फाइल्स’ का सच सच नहीं है, जिसके जवाब में बार-बार यही कहा जाता रहा कि क्या हजारों कश्मीरी पंडितों की हत्याएं और कश्मीर से उनका जबरिया निष्कासन सच नहीं है? इसके जवाब में आलोचक कहने लगते कि निष्कासितों को फिर से बसाने के लिए सरकार क्या कर रही है? बहस करने वाले अक्सर पाला बदलते रहते हैं। मुद्दों को बदलते रहते हैं। वक्त निकालते रहते हैं। बहसों में निर्लज्जता तर्क बन कर छाई रहती है! अपने चैनलों में बहसों के नाम पर यही होता दिखता है।
लेकिन श्रद्धा के हत्यारे आफताब की कहानी अब तक रहस्य बनी है। ‘पालीग्राफ टेस्ट’ हो गया। ‘नारको’ के बाद का ‘नारको’ हो गया। कभी खबर आती है कि काटने वाली आरी मिल गई, कि कुछ हड्डियां मिल गईं, लेकिन पूरा-पक्का कुछ नहीं लगता। इस बीच एक दिन जैसे ही पुलिस आफताब को जांच के लिए गाड़ी में लेकर निकलती है, वैसे ही कुछ ‘हिंदू सेना’ वाले युवक तलवारें लहराते हुए गाड़ी पर हमला करते हैं। एक पुलिस अफसर पिस्तौल लहरा कर उनको रोकता है।
युवक गुस्से में कहता दिखता है कि ये हमारी बहू-बेटियों को निशाना बनाते हैं, मैं इसको तलवार से काट डालूंगा। पुलिस उनको हिरासत में ले लेती है। अंत में हिंदू सेना के अध्यक्ष कहते हैं कि इस घटना से उनका कोई संबंध नहीं! इसी बीच दिल्ली के पांडव नगर से एक शव के टुकड़े मिलने से किसी अंजन दास नामक व्यक्ति की नृशंस हत्या की कहानी टूटती है, लेकिन इसमें वैसा मोड़ नहीं है, जो आफताब की हत्यारी कहानी में है, इसीलिए वह अब तक जारी है।
फिर एक दिन सुप्रीम कोर्ट कह देता है कि जबरन धर्मांतरण के खिलाफ कानून जरूरी… और धर्मांतरण पर बहसें खड़ी हो जाती हैं। शुक्रवार को जेएनयू की दीवारों पर लिखी जातिमूलक घृणावादी इबारतें मीडिया में बड़ी खबर बनती हैं… ‘ब्राह्मण बनिया भारत छोड़ो।… ब्लड विल फ्लो।’ एंकर इसे आतंकी कार्रवाई कहता है। हाय, इतना अग्रणी विश्वविद्यालय और ऐसी जाति-घृणा!