बहस की शैली और तत्त्व दोनों में ही गिरावट आई है। विशेषकर टीवी स्टूडियो की बहसें अपने सुनने-देखने वालों की भी रचनात्मकता को कम करने में अधिक कारगर हो रही हैं। यही कारण है कि हल्की, ऊटपटांग, उलाहनापूर्ण, व्यंग्य और अपशब्दों वाली, जिन्हें संक्षेप में अमर्यादित और असंसदीय कह सकते हैं, चर्चाएं अधिक रुचिकर लगने लगी हैं और ये बड़ी संख्या में दर्शकों को लुभाती हैं।
पचास और साठ के दशक में संसद से लेकर आम सभाओं तक विमर्श में गंभीरता, मर्यादा और ठोस वैचारिक तत्त्वों की बहुलता होती थी। समाजवादी नेता आचार्य जेबी कृपलानी महात्मा गांधी के अनुयायी और 1947 तक कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे थे। एक बार लोकसभा में जब वे कांग्रेस की आलोचना कर रहे थे, तब एक सदस्य एमएन लिंगम ने उनसे व्यंग्यात्मक अंदाज में पूछा कि आपने कांग्रेस कब छोड़ा?
कृपलानी ने जो उत्तर दिया वह संवाद की प्रकृति को दर्शाता है- ‘कांग्रेस छोड़ना उनके लिए वैसा ही है जैसा कोई व्यक्ति अपना घर छोड़ता है… लेकिन मैंने उस दिन छोड़ा, जब कांग्रेस में कमीशन और करप्शन की संस्कृति आ गई। महात्मा गांधी के आदर्शों का बखान करते हुए उनकी आत्मा को कुचलने लगी।’
संवाद से समाज का चरित्र उजागर होता है। इसे सुनकर समकालीन समाज के लोगों की बौद्धिकता, बौद्धिक साहस और सांस्कृतिक चेतना को समझा जा सकता है। बहस में गिरावट के लिए सिर्फ राजनीति को दोषी मानना समस्या के समाधान पर ताला लगाने जैसा होगा। निश्चित तौर पर राजनीतिक चरित्र में करिअर और व्यवसायवाद का प्रवेश हुआ है और वह अमरबेल की तरह फैल रहा है। फिर उसे रोकने की जगह समाजशास्त्री, साहित्य-संस्कृतिकर्मी और अन्य बौद्धिक जगत के लोग या तो सारथी, बाराती या उदासीन दर्शक बन जाएं तो इस गिरावट के लिए उनकी भी जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती है।
सच्चाई यह है कि प्रश्रयवादी राजनीति ने अपना विस्तार इस हद तक कर लिया है कि बौद्धिक जगत की जो एक स्वायत्तता और समालोचना का सामर्थ्य होता था, वह समाप्त नहीं हुआ है, तो कम से कम कमजोर जरूर हुआ है। करिअरवाद का सबसे पहला असर चेतना पर होता है, व्यक्ति या समाज अपनी चेतना को अपने तात्कालिक लाभ या हानि के दायरे में समायोजित (एडजस्ट) करता है।
संवाद और विमर्श के लिए उपयुक्त पात्रता समाप्त होने लगती है। भारतीय समाज के लिए विमर्श की क्षति इसके अपने विरासत और स्वभाव के अनुकूल नहीं है। हमारा सभ्यतायी इतिहास प्रयोगधर्मिता का रहा है, जो जीवन के हर क्षेत्र में प्रचुर विविधता को प्रकट होने का स्वाभाविक और सहज रास्ता देता है। इसलिए दर्शनों, सिद्धांतों, विचारों और दृष्टिकोणों में टकराव अस्वाभाविक नहीं रहा है। प्राचीन काल के उदाहरणों को अगर छोड़ भी दें, तो उन्नीसवीं शताब्दी के अनेक गर्व करने लायक दृष्टांत मौजूद हैं।
काशी में स्वामी दयानंद और बाल शास्त्री तथा मिथिला के बच्चा झा और काशी के पंडित दामोदर शास्त्री के बीच शास्त्रार्थ और उसे सुनने-समझने वालों की बड़ी संख्या भारतीय समाज के तर्क, ज्ञान और चेतना आधारित बौद्धिकता को दर्शाता है। विधायिका से लेकर टेसीविजन और स्टूडियो की बहस दिखाती है कि बड़े भवन, चमकता बाजार, विश्वविद्यालयों की बढ़ती संख्या, साक्षरता में उछाल विमर्श के सूचकांक को रोकने में सार्थक भूमिका नहीं निभा पाए हैं। बाजारवादी मन-मानसिकता ने उसे नुकसान ही पहुंचाया है।
चेतना और बौद्धिकता व्यक्ति को कागज की नाव ही नहीं बनने देती है, उसमें जोखिम उठाने और हस्तक्षेप करने का जोखिम उठाने की क्षमता पैदा करती है। संवाद मुंह चलाना नहीं, चेतना का प्रदर्शन करना होता है। एक रोचक घटना इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। लार्ड कर्जन, जो बंगाल का गवर्नर था, के पास संस्कृत के श्लोक उच्चारण में आक्सफोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालयों के दो विद्वानों के बीच मतभेद का प्रश्न आया। उसने काशी के सरकारी कालेज के अंग्रेज प्राचार्य से इसके समाधान के लिए किसी प्रामाणिक विद्वान की राय जानना चाहा।
पंडित दामोदर शास्त्री का नाम आया। कर्जन और शास्त्री के बीच 1903 में लंबी बातचीत हुई। अंत में जब कर्जन ने उनसे उनकी डिग्री जानना चाहा, तो शास्त्री का उत्तर था- ‘अपनी विद्या उपलब्धियों का स्वयं थाह नहीं है। हम अनुगृहित होंगे अगर इस भूमंडल में कोई परीक्षक नियुक्त कर देंगे।’
संस्कृति, समाजशास्त्र और साहित्य समाज को जागृत करता है और जगा समाज विमर्श को प्रतिक्रियावाद से बचाता है। राजनीति में रहना बौद्धिकताशून्य होने के लिए विशेषाधिकार की तरह नहीं है। डा. आंबेडकर सक्रिय राजनीति में थे और हजारों पृष्ठ लिख गए, जवाहरलाल नेहरू की ‘भारत एक खोज’, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की दर्जनों स्तरीय रचनाएं, विनोबा भावे का ‘गीताई’, गांधी के हजारों पृष्ठों का लेखन, बाल गंगाधर तिलक का ‘गीता रहस्य’, इस बात का उदाहरण हैं कि स्वाध्याय, विद्यार्जन और चिंतन हमारी राजनीति का अभिन्न हिस्सा रहा है।
उससे कटी हुई राजनीति दलदल की तरह होती है। प्रधानमंत्री का कार्यक्रम ‘मन की बात’ एक उदाहरण है, जिसमें वे सामाजिक, सांस्कृतिक और रचनात्मक पहलुओं से समाज को रूबरू कराते हैं। विमर्श की संस्कृति की बुनियाद बर्बर अभिव्यक्ति बन जाती है तब वर्तमान से अधिक पीढ़ियों को नुकसान होता है। आज विमर्श के आयामों पर पारदर्शी और गैरदलीय आधार पर चर्चा की आवश्यकता है। भारतीय विमर्श को हमारे पूर्वजों ने अत्यंत प्रतिकूलता में सींचा है। इसके अनंत उदाहरण हैं।
इन्हीं में एक नाम रवींद्रनाथ ठाकुर का है। उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन के दुखों से अपने समाज के प्रति प्रतिबद्धता को परास्त होने नहीं दिया। आरंभिक वर्षों में उनके पिता और प्रिय पत्नी का देहावसान हो गया। 1902 में उनकी पुत्री, फिर बाद में पुत्र का निधन हुआ। दुख को पीते रहे, पीढ़ियों के लिए चेतना का बीज बोते गए। पुरुषार्थ और कर्मठता से ही विमर्श की गिरावट को हम रोक सकते हैं।
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)