बीसवीं सदी वैज्ञानिक और तकनीकी परिवर्तन की शताब्दी थी। इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में अनुमान था कि यह परिवर्तन की अप्रत्याशित गति की शताब्दी मानी जाएगी और इसके साथ समन्वय बनाने को लिए मनुष्य जाति को अपने को तैयार करना होगा। लेकिन तीसरे दशक में लगने लगा है कि मनुष्य जाति को अपना अस्तित्व बचाने के लिए ही एक अप्रत्याशित संघर्ष करना होगा। विश्वव्यापी तनाव, बंधन और जकड़न का एक वर्ष पूरा हो चुका है। अभी कोरोना के कहर से बाहर निकल पाने की अनिश्चतता बनी हुई है। कोविड-19 अपने स्वरूप बदल रहा है।
विकास और प्रगति की मानव-यात्रा में यह तथ्य स्पष्ट हो चुका है कि मनुष्य अपनी समस्याएं खुद पैदा करता है, फिर उनके समाधान निकालने में जुट जाता है। मनुष्य ने अनेक टीके विकसित कर लिए हैं। विश्वभर में अकल्पनीय टीकाकरण अभियान चल रहा है। गोलियां और नासिका में डालने की दवा भी कुछ महीनों में आ जाएगी। मनुष्य और वायरस के बीच का संघर्ष चलता रहेगा। वैज्ञानिक हर नई चुनौती को स्वीकार करेंगे और सफल होंगे। यह मानव जाति का मनोबल बढ़ाता रहेगा। इस समय जन चर्चा के बिंदु प्रतिदिन संक्रमितों की संख्या, मृत्यु के आंकड़े, आॅक्सीजन की कमी, दवाइयों की कालाबाजारी, आरोप-प्रत्यारोप, राजनीतिक लाभ लेने के लालच से न बच पाने के इर्द-गिर्द ही घूमते रहते हैं। हर तरफ दिखाई देता है कि स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है, इसे स्वीकार कर मनोयोग से सुधारों में लग जाना ही एकमात्र विकल्प है।
पिछले वर्ष के अचानक लगाई गई पूर्णबंदी की घोर आलोचना हुई थी। करोड़ों परिवारों को गहन कष्ट सहना पड़ा था। लेकिन कुछ महीनों के बाद जब आंकड़ा घटा तो देश ने राहत की सांस कुछ ज्यादा ही ले ली। कई महीनों से घरों में कैद लोग घरों से निकल पड़े। यह भुला दिया गया कि अनेक देशों में कोरोना की दूसरी लहर पहले से अधिक भयावह साबित हो चुकी है। संक्रमण फिर तेजी से बढ़ा और अब संक्रमितों की संख्या चार लाख तक पहुंचने को है। जिस तेजी से हमें स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार जारी रखना था, वह हमारी ‘चलता है’ संस्कृति की भेंट चढ़ गया। परिणामस्वरूप अप्रैल 2021 के तीसरे सप्ताह में ऑक्सीजन की कमी को लेकर जो स्थिति बनी, वह देश के लिए शर्मनाक थी। यह निश्चित रूप से अनेक मरीजों की मृत्यु का कारण बनी।
टीके बनाने में भारत विश्व का पहले नंबर का देश है, निश्चित रूप से उसके पास हर प्रकार के वायरस के व्यवहार का अध्ययन करने वाले सर्वश्रेष्ठ शोधकर्ता और विद्वान उपलब्ध हैं। कोरोना की पहली लहर के बाद जो योजनाएं बनी थीं, उनमें अधिक आक्सीजन की आवश्यकता की समझ शामिल थी। फिर भी वे ठंडे बस्ते में डाल दी गई थीं। यह अब उजागर हुआ है। कितने ही जीवन इस संवेदनहीनता की भेंट चढ़ चुके हैं! दूसरी लहर से मुकाबला करने के लिए जिस गति और गतिशीलता से तैयारी होनी थी, उसमें शिथिलता के कारण ही आज विश्व भर में भारत की स्थिति लगभग दयनीय हो गई है। केवल कुछ महीने भारत विश्व के अनेक देशों को टीके पहुंचा कर उनकी सद्भावना अर्जित कर रहा था!
अगर संबंधित विशेषज्ञ निर्णायक स्थिति में थे, तो भावी परियोजनाओं में आॅक्सीजन की कमी जैसी स्थितियां कैसे बनी? अगर वे निर्णय लेने वाले नहीं थे, तो कौन थे और भविष्य में तकनीकी और व्यावसायिक विषयों में निर्णय लेने की प्रक्रिया में क्या नए ढंग से सोचा जाएगा? दिल्ली की राज्य सरकार जिस प्रकार आॅक्सीजन संयंत्रों को, जिनके लिए स्वीकृति और धन दोनों उपलब्ध थे, कार्यशील कर पाने में क्यों असफल रही? अगर वहां उचित स्तर पर किसी ने इसके महत्त्व को समझा होता, तो दिल्ली में आॅक्सीजन की कमी से कोई मृत्यु नहीं होती।
सरकार किसी भी दल की हो, राज्य की हो या केंद्र की, उसकी प्रतिष्ठा से देश का सम्मान जुड़ा होता है। प्रजातंत्र में नीतिगत निर्णय लेना सरकारों का उत्तरदायित्व है। उसमें यह भी निहित है कि उसके पीछे विशेषज्ञ-समूह की राय अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। कोरोना संबंधित नीतिगत निर्णयों को नौकरशाही को क्रियान्वयित करना था। उसे शिथिलता की जिम्मेवारी क्यों नहीं लेनी चाहिए। रही विभिन्न स्तर पर राजनीतिक नेताओं की बात, तो उसके बारे में उत्तरदायित्व निर्धारण तो जनता ही करेगी।
कोरोना ने मनुष्यों को बहुत कुछ सिखाया-पढ़ाया है। अब यह मनुष्य पर है कि वह इसमें से कितना कुछ समझ पाता है और व्यावहारिक भविष्य दृष्टि विकसित कर पाता है। पहला पाठ तो हमारी कार्य-संस्कृति को लेकर ही उभरता है। भविष्य दृष्टि की अनुपस्थिति, कर्मठता की कमी, और क्रियान्वयन के स्तर पर संवेदनशीलता का अभाव व्यवस्था के अभिन्न बन चुके हैं। लोग इसे सामान्य मान चुके हैं और इसमें सुधार की कोई संभावना नहीं देखते हैं। यह अस्वीकार्य स्थिति है। इसे बदलना होगा। पारदर्शिता और हर स्तर पर उत्तरदायित्व-निर्धारण इसका उत्तर हो सकते हैं।
क्रियान्वयन में सकारात्मक सुधार की संभावना के लिए सबसे पहली आवश्यकता है हर स्तर पर सजग, समर्थ, योग्य और संवेदनशील नेतृत्व। नीतियां कितनी ही सशक्त और प्रभावी क्यों न हों, उनकी सफलता का परिमाण तो जमीनी स्तर पर कार्यरत लोग ही तय करेंगे। उन्हें उनके स्तर पर मनोबल बढ़ाने वाला व्यक्ति ही अपना सब कुछ लगा देने को प्रेरित कर सकता है।
सिंगापुर से संबंधित एक प्रकरण मुझे बार-बार याद आता है। वहां के एक सफल उद्योगपति से पूछा गया था कि वह क्या है जो सिंगापुर को सिंगापुर बनाता है! उत्तर था- सिंगापुर में हर कार्य और परियोजना के पूर्ण होने की गति नियत है, पारदर्शी है और सभी इसे जानते हैं। किसी भी दबाव में या किसी की अक्षमता, शिथिलता या आचरण-दोष के कारण उसमें देरी या जल्दी संभव नहीं है।
दूसरा उदाहरण जापान का है। समय और परिश्रम का महत्त्व प्रारंभिक स्कूलों में लागू कार्य संस्कृति से स्वत: ही बच्चों के मन-मष्तिष्क में बैठने लगता है। इसके साथ देश के लिए कार्य करने की संस्कृति को अंतरतम में उतार लेने में शिक्षा, शिक्षक, पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या और पालक, सभी अपना-अपना उत्तरदायित्व निभाते हैं।
कोरोना काल स्कूल और कॉलेज जाने वाले बच्चों और युवाओं के लिए अत्यंत तनावपूर्ण, जकड़न और अनिश्चितता से भरा रहा है। उनकी शिक्षा और उनका विकास इतना बाधित कभी नहीं हुआ था। पिछले साल से लेकर अभी तक आॅनलाइन शिक्षा का तेजी से प्रसार करने का प्रयास किया गया। कोई विकल्प बचा भी नहीं था। संसाधनों की अति सीमित उपलब्धता, इंटरनेट की दिक्कत, सीखने के लिए अनुपयुक्त वातावरण जैसी वास्तविकताएं शैक्षिक विभेद को बढ़ा कर नई चुनौतियां देश के समक्ष प्रस्तुत कर रही हैं।
शिक्षा में विभेद देश की बौद्धिक संपदा की बढ़त को कुंठित करता है और इसे कोई भी देश स्वीकार नहीं कर सकेगा। बच्चो ने जो बंधन और प्रतिबंध सहे, वे अकल्पनीय ही माने जाएंगे। मित्र नहीं, स्कूल नहीं, खेल का मैदान नहीं, परीक्षाएं नहीं। घोर अनिश्चितताएं, लगातार बढ़ता दबाव और भी बहुत कुछ उन्होंने सहा है। उन पर ध्यान देना ही देश के भविष्य को महत्त्व देना होगा।
देश ने गाड़ियों पर लाल बत्तियों का अंधाधुंध उपयोग बंद कर दिया है, मगर लाल-फीताशाही समाप्त नहीं हुई है। दिल्ली की राज्य सरकार ने जिस प्रकार एक पांच सितारा होटल में सौ बिस्तर माननीय न्यायाधीशों के लिए आरक्षित कर दिए, वह घोर आपत्तिकाल में संवेदनहीनता का दुखदायी उदाहरण था। उससे अधिक कष्टकर यह है कि किसी ने उस निर्णय की जिम्मेवारी लेने का साहस नहीं दिखाया। संवेदनशील, सजग और सतर्क कार्य-संस्कृति प्रजातंत्र की धुरी तभी बनती है, जब नैतिकता उसका सर्व-स्वीकार्य अभिन्न भाग बने।