अविनाश चंद्र
इससे देश, समाज, जनता और संसाधनों का दुरुपयोग और बर्बादी तो होती है, देश की तरक्की भी प्रभावित होती है। शिक्षा का क्षेत्र इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस क्षेत्र की वर्तमान स्थिति यह है कि छात्र, अभिभावक, अध्यापक, स्कूल सभी परेशान हैं और किसी की भी समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा है।
एक तरफ शिक्षा के मद में सरकारी खर्च बढ़ता जा रहा है, जबकि स्कूल जाने वाले छात्रों का बड़ा हिस्सा गुणवत्ता युक्त शिक्षा से वंचित है। सरकार फीस नियंत्रित कर रही है, लेकिन अभिभावक फीस वृद्धि की समस्या से फिर भी परेशान हैं। उधर सरकारी स्कूलों में बदलाव लाने के लिए भी सरकारें तमाम जतन कर रहीं है। शिक्षा के मद में बजट और खर्चों में होने वाली वृद्धि इसका एक उदाहरण है। हालांकि स्कूलों के भवन और रंग-रोगन के अलावा कुछ खास बदलाव देखने को नहीं मिल रहे हैं।
तमाम सरकारी और गैर-सरकारी अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि सरकारी स्कूलों के छात्रों के सीखने का परिणाम अब भी मानक के अनुरूप नहीं है। बहुत सारे आठवीं के छात्र तीसरी कक्षा का गणित हल करने और पांचवी कक्षा की अंग्रेजी की किताब पढ़ने में सक्षम नहीं हैं। गुणवत्ता में सुधार के लिए अध्यापकों को प्रशिक्षित करने के तमाम उपाय किए जा रहे हैं, लेकिन यह गुणवत्ता युक्त शिक्षा के रूप में फिर भी दिखाई नहीं दे रही है।
उधर निजी स्कूल अलग परेशान हैं और दिनों-दिन बढ़ते लाइसेंस, परमिट और इंस्पेक्टर राज के कारण प्रशासनिक शोषण का शिकार हो रहे हैं। इसकी परिणति देश में बड़ी तादाद में बंद होते स्कूल और अभिभावकों तथा छात्रों के समक्ष उत्पन्न होती विकल्पहीनता की स्थिति देखने को मिल रही है। इन सभी समस्याओं की जड़ में शिक्षा संबंधी नीतियों का परिणाम आधारित होने के बजाय निवेश आधारित होना है। हमारी शिक्षा नीति इस बात की अनदेखी करती है कि यह क्षेत्र भी अन्य क्षेत्रों की भांति विविधताओं से युक्त है और सभी को एक खांचे में अंटाना संभव नहीं है।
ठीक उसी प्रकार जैसे कि बड़े और भारी उद्योगों और छोटे और लघु उद्योगों को समान प्रकार के नियमों से नियमित नहीं किया जा सकता। देश की शिक्षा-व्यवस्था केंद्र सरकार द्वारा संचालित स्कूल, राज्य सरकार द्वारा संचालित स्कूल, नगर निगम स्कूल, सरकारी सहायता प्राप्त, गैर-सहायता प्राप्त बड़े निजी स्कूल, इंटरनेशनल बैकालारिएट (आइबी) स्कूल और गैर-सहायता प्राप्त निजी बजट स्कूल जैसे कई रूपों में बंटी है। मोटे तौर पर इन्हें तीन वर्गों- सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त, गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में विभक्त किया जाता है।
आंकड़ों के मुताबिक स्कूल जाने वाले छात्रों की बावन से पचपन फीसद संख्या सरकारी स्कूलों में और पैंतालीस से अड़तालीस फीसद संख्या निजी स्कूलों में जाती है। हालांकि एक महत्त्वपूर्ण बात, जिसकी हमेशा अनदेखी की जाती है, कि निजी स्कूलों में नामांकित कुल छात्रों का अस्सी फीसद हिस्सा बजट स्कूलों में पढ़ता है। ये वे स्कूल हैं, जो सरकार द्वारा सरकारी स्कूलों में प्रतिछात्र प्रतिमाह खर्च की जाने वाली धनराशि के बराबर या उससे कम शुल्क लेते हैं।
समस्या शुरू होती है शिक्षा संबंधी नीतियों के चलते। दरअसल, नीति निर्धारण के समय अक्सर सभी स्कूलों और सभी छात्रों को समान खांचे में रखकर देखा जाता है, जबकि इन छात्रों की आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक और शैक्षणिक स्थितियों में अनेक भिन्नताएं होती हैं।
समय-समय पर अलग-अलग वर्ग के लिए अलग-अलग नीतियां तय करने की मांग होती रहती है। बजट स्कूलों द्वारा भी शिक्षा नीति के निर्धारण के दौरान अपने प्रतिनिधित्व की लंबे समय से मांग की जाती रही है। गौरतलब है कि देश में पचास रुपए से लेकर पंद्रह सौ रुपए प्रतिमाह फीस लेने वाले बजट निजी स्कूलों की संख्या कुल निजी स्कूलों की संख्या का अस्सी फीसद से अधिक है।
निजी स्कूलों में पढ़ने वाले कुल छात्रों का दो तिहाई हिस्सा इन्हीं स्कूलों में पढ़ता है। शिक्षाधिकार कानून के तहत आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के कोटे से वंचित रहने वाले अधिकतम छात्र, जो सरकारी स्कूलों में नहीं जाना चाहते, इन्हीं बजट स्कूलों में दाखिला लेते हैं। इस प्रकार, गुणवत्तायुक्त शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों के लिए सरकारी स्कूलों के वास्तविक विकल्प ये कम फीस वाले छोटे और बजट स्कूल ही हैं। पहली पीढ़ी के छात्रों का प्रतिनिधित्व भी वास्तव में ये छोटे और कम फीस वाले बजट स्कूल ही करते हैं।
जाहिर है कि छोटे बजट स्कूल, बड़े आभिजात्य स्कूलों के समान सुविधाएं, वेतन आदि देने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि स्कूल शैक्षणिक गतिविधियों के इतर आय अर्जित करने का बहना ढूंढ़ने लगते हैं और कापी-किताबें, पोशाक, जूते और अन्य वस्तुओं की बिक्री करने जैसे कदम उठाने लगते हैं। इससे नुकसान अभिभावकों और छात्रों का ही होता है।
छोटे स्कूल सरकार से लगातार आग्रह करते रहे हैं कि नीति निर्माण में उनका प्रतिनिधित्व भी सुनिश्चित किया जाए। जबकि नीति निर्धारण के दौरान आमतौर पर सरकारी और बड़े निजी स्कूलों के प्रतिनिधियों से ही सलाह-मशविरा करने का चलन रहा है। जब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गई थी तब भी बजट स्कूलों को उम्मीद जगी थी कि इस प्रक्रिया में उनका प्रतिनिधित्व भी शामिल किया जाएगा।
मगर ऐसा नहीं हुआ। शिक्षा नीति के मसविदा को तैयार करते समय जब जिले और ताल्लुका स्तर पर रायशुमारी की जा रही थी, तब भी इनकी अनदेखी की गई। परिणाम यह हुआ कि शिक्षा नीति के प्रस्तुत मसविदा में वे तमाम खामियां रह गर्इं, जिन्हें लेकर बजट स्कूल आशंकित थे। इनमें मुख्य रूप से सभी प्रकार के स्कूलों के लिए आवश्यक भूमि, शिक्षकों का वेतन, कमरों की संख्या और आकार, फीस वृद्धि से संबंधित नियम-कायदे, स्कूलों की मान्यता के लिए समान प्रक्रिया आदि को लेकर आशंका थी।
बजट स्कूलों के अखिल भारतीय संगठन, नेशनल इंडीपेंडेंट स्कूल्स अलायंस (निसा) का कहना है कि सरकार सभी प्रकार के स्कूलों के लिए समान नियम लेकर आती है, जो कि न केवल काफी निवेश आधारित, बल्कि अव्यावहारिक भी होते हैं। मसलन, स्कूलों को मान्यता प्रदान करने के लिए भूमि और भवन सहित अध्यापकों के वेतन आदि से संबंधित सभी नियम समान हैं। यह समझना कठिन नहीं है कि आठ हजार रुपए प्रतिमाह और आठ सौ रुपए प्रतिमाह फीस वाले स्कूल एक समान नियमों का पालन कैसे कर सकते हैं।
उसका कहना है कि भेदभावपूर्ण नियमों के कारण देश में बड़ी संख्या में स्कूल बंद हो चुके हैं और अनेक स्कूलों पर तालाबंदी का खतरा मंडरा रहा है। इससे उन छात्रों और अभिभावकों के चयन के अधिकार पर भी रोक लग रही है, जो अपने बच्चों को मुफ्त सरकारी स्कूलों में न भेजकर कम शुल्क वाले बजट स्कूलों में भेजने का फैसला करते हैं, ताकि गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान कर अपने बच्चों का भविष्य बना सकें। जबकि सरकार के नियंत्रणकारी दृष्टिकोण के कारण छात्रों और अभिभावकों के मनपसंद शिक्षा हासिल करने और चयन के अधिकार की हानि होती है।