समझना होगा कि प्रकृति के विरुद्ध विकास का ढांचा कैसा हो? समय रहते, कम से कम पहाड़ों पर घट रही आपदाओं के इशारों को समझना ही होगा। अब भले पहाड़ों के भार सहने की क्षमता की बातें होने लगी हों, सेटेलाइट तस्वीरें से पहाड़ों के खिसकने के माप मिलने लगे हों, तमाम वैज्ञानिक कारणों से अनगिनत पन्ने भरने लगें हों, लेकिन इस सच्चाई से इंकार भला कौन करेगा कि मानव बस्तियों की त्रासदियां हमने ही आमंत्रित की हैं?
बीते डेढ़-दो दशक की तमाम प्राकृतिक आपदाओं को लेकर इतना तो समझ आता है कि इनसे न तो हमारे नुमाइंदे, न प्रशासन और न ही वैज्ञानिक अनभिज्ञ थे। संवेदनशील स्थानों पर भारी-भरकम उद्योग, कारखाने, गिट्टियों, सड़कों और सुरंगों की खातिर पहाड़ों को तोड़ती दहाड़ती भारी-भरकम मशीनें तथा बारूदी विस्फोट अरबों वर्षों की प्रकृति के विरुद्ध तात्कालिक लाभ है और चंद वर्षों का मौजूदा विकास जवाबदेह है।
साथ ही, यह भी कि स्थान विशेष के मौसम और उर्वरा शक्ति के विरुद्ध बाहरी और विदेशी पेड़ों से बने मौजूदा जंगल भी काफी हद तक ऐसी आपदाओं को बुलाते हैं। इनको लेकर कई जगह स्थानीय लोग सक्रिय हैं, जो यह सब समझते हैं। मगर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती से ज्यादा नहीं होती।
भारत की प्रमुख पर्वत शृंंखलाएं हिमालय, अरावली, विंध्य प्लेटों के आपस में टकराने से बनी हैं। जबकि विंध्य और पश्चिमी घाट ज्वालामुखी के लावे से बने हैं। उम्र के लिहाज से भी इन पहाड़ों की प्रकृति काफी कुछ समझ आती है जहां विंध्य और अरावली पर्वत शृंखला की उम्र करीब तीन अरब वर्ष तक मानी जाती है, वहीं हिमालय की उम्र महज पांच-छह करोड़ वर्ष है। जाहिर है कि हिमालय सबसे युवा पर्वत शृंखला है।
हिमालय भारत और एशिया के नीचे की टेक्टोनिक प्लेटों के टकराने से बना है और आज भी ये प्लेटें एक-दूसरे के खिलाफ जोर लगाती हैं। तह में इंडियन प्लेट अब भी यूरेशियन प्लेट के नीचे घुस रही है। इसकी गति बीस मिलीमीटर प्रति वर्ष है। इसी गुरुत्वाकर्षण बल के चलते अक्सर पहाड़ों में क्षरण भी होता है। जबकि यह भी पता है कि नया पर्वत होने के कारण मजबूत न होकर भुरभुरा है। वहीं देखते ही समझ आता है कि इन पहाड़ों में बेहद ढलान हैं, तो नदियों में तेज बहाव भी।
जाहिर है, न तो पानी रोका जा सकता है और न ही बांधा। इन्हीं सब कारणों से भूस्खलन होता है, जिसकी परिणिति कई दुर्घटनाओं के रूप में सामने आती है। शायद ऐसे पानी रोकना, पहाड़ों पर सड़कें बनाना और लगातार आबादी बसने देना ही वह बड़ी गलती है, जिसका दुष्परिणाम समय-समय पर दिखता है।
इसके अलावा पहाड़ों का पारिस्थितिकी तंत्र बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। वजह सामान्य तौर पर अनियंत्रित चराई, वनों की कटाई या अत्यधिक विकास है। जनसंख्या घनत्व और कृषि गतिविधियां, बिना कीमत चुकाए जलधारा का दोहन, भारी मशीनरी का कंपन, सड़कों से गुजरते वाहन और प्रदूषण ने पहाड़ों को बुरी तरह प्रभावित किया है। उत्तराखंड के पहाड़ों का एक सच सर्वविदित है कि पहाड़ नए हैं। 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद बनी तमाम जांच समितियों की अनुशंसाओं की अनदेखी भी जोशीमठ के पीछे मुख्य वजह है।
अगस्त, 2022 में एक भूगर्भीय सर्वेक्षण हुआ था, जिसकी रिपोर्ट नवंबर, 2022 में आई। इसमें भूधंसाव की मुख्य वजह जोशीमठ के नीचे अलकनंदा नदी में जारी कटाव और जलनिकासी व्यवस्था का न होना बताया गया। वहीं वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलाजी के अध्ययन में पाया गया कि वहां भूधंसाव के लिए काफी हद तक बेतरतीब जलनिकासी व्यवस्था जिम्मेदार है। बारिश के दौरान नालों का बहता पानी आसपास या ऊपर काफी निर्माण हो जाने से अलकनंदा नदी में जाने के बजाय जमीन में घुस रहा है, जो भूधंसाव का बड़ा कारण बनेगा। दोनों सच निकले।
ऐसा नहीं कि पहाड़ों के दरकने या खिसकने का खतरा केवल उत्तराखंड में है। पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग और पड़ोसी सिक्किम में भी वैज्ञानिकों ने चेताया है कि जल्द ही कुछ नहीं किया तो उत्तराखंड सरीखे हालात होंगे। यहां बढ़ते पर्यटन, अनियंत्रित शहरीकरण, वाहनों की बढ़ती संख्या और बढ़ती जनसंख्या पर ध्यान देना जरूरी है।
हालात कुछ यों हैं कि जहां एक ओर जमीन धंसने से दरवाजे और खिड़कियां बंद नहीं होते, उन्हें बार-बार ठीक करवाना पड़ता है, वहीं आबादी भी बढ़ रही है। ऊपर से भूगर्भीय कोयले के लिए जमीन खुदाई ने संकट बढ़ाया है। प्रकृति की चेतावनी समझने के लिए इतना ही काफी होगा कि दार्जिंलिंग हिमालय रेलवे के तिनधरिया वर्कशाप इलाके में कई बार जमीन धंसती है, जिससे प्राय: रेलवे पटरियां नए सिरे से बिछानी पड़ती हैं। दार्जिलिंग और सिक्किम में बीते साल के भूस्खलन के बावजूद पहाड़ों की खुदाई जारी है। दिनोंदिन अवैध बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो रही हैं। सिक्किम की राजधानी गंगटोक घनी आबादी वाला पहाड़ी शहर है। दार्जिलिंग खुद भूकंप के लिहाज से संवेदनशील भूकंप संवेदी क्षेत्र-चार में आता है।
इस सच को भी समझना होगा कि अंग्रेजों ने अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए चीड़ के जंगलों को बढ़ाया, जो तेजी से बढ़ कर तैयार होता है। चालीस-पचास मीटर तक सीधा जाकर कुछ वर्षों में आठ से दस फीट तक तना मोटा हो जाता है। इससे तब रेल लाइनों के स्लीपर बनने लगे। पक्की सड़कों के लिए कोलतार में इसके चिपचिपे गोंद लीसा का उपयोग होने लगा। लेकिन चीड़ मूल जंगलों का दुश्मन बना। इसे न पशु खाते हैं, न भेड़ बकरियां और न ही पक्षी और कीट पतंग।
इसके नीचे कुछ उगता भी नहीं, उल्टा खूब पानी सोखता है। इसके सूखे पत्ते, तने जंगल में दावानल का कारण बनते हैं। इसमें लंबा पूंछ जैसा पंख होता है, जिसमें भरे बीज सैकड़ों मीटर दूर उड़ कर पनपते हैं। चीड़ किसी भी भौगोलिक परिस्थिति में उगता और जिंदा रहता है। जबकि बांज और बुरांस के बिना उत्तराखंड उजाड़ लगता है।
अंधाधुंध शहरीकरण के बजाय तत्काल हिमालयी पारिस्थितिकी को ध्यान में रख कर विकास का माडल बनाया जाए। सौर ऊर्जा का ज्यादा उत्पादन हो, जहां पानी का तेज बहाव हो वहां सुरक्षा के साथ छोटे-छोटे विद्युत उत्पादक यंत्र लगें। सड़कों को बनाते समय विशेष एहतियात बरती जाए, ताकि काटे गए पहाड़ों के नुकसान की भरपाई भी हो।
इसके अलावा सबसे ज्यादा जरूरी है कि स्थान विशेष के अनुकूल वनपस्तियां और पेड़ के जंगल पनपाएं, ताकि पर्यावरण की रक्षा हो सके। इसके अलावा पहाड़ी पर्यटन पर भी पारिस्थितिकी नियंत्रण के साथ आबादी पर भी नजर रखनी होगी। इसके लिए समय बहुत कम है, जो भी करना है जल्दी करना होगा, वरना देरी हमारे पहाड़ों की शृंखला के लिए बहुत भारी पड़ सकती है।