हमने अंग्रेजों से आजादी 1947 में ले ली थी, फिर भी भारत में हमारा एक ‘शासक’ है। यह शासक भारत की सरकार है। इसे युद्ध शुरू करने, शांति स्थापित करने, अंतरराष्ट्रीय संधियां और सम्मेलन करने, पैसा उधार लेने और इन सबसे ऊपर धन का सृजन करने की सर्वोच्च शक्ति प्राप्त है। धन सृजन से मतलब टकसालों में सिक्के बनाने या नोट छापने से है।
सर्वोच्च सरकार के अलावा भी संस्थाएं हैं जो अर्ध-शासकीय निकाय हैं, जिसके विस्तार में मैं जगह की कमी के कारण नहीं जाऊंगा। इनमें केंद्रीय बैंक (आरबीआइ) और सरकार के स्वामित्व वाले बड़े बैंक हैं जैसे एसबीआइ। इतना बताना इसलिए जरूरी है क्योंकि भारत में अर्ध-शासकीय निकाय असाधारण रूप से उन मुद्दों के प्रति ज्यादा चिंतित नजर आती हैं, जिन्हें लेकर लोग उद्वेलित हैं, जबकि सरकार यह सोचती दिखती है कि अगर वह मुंह फेर लेगी तो मुद्दे गायब हो जाएंगे। मैं महंगाई की बात करता हूं, जो सभी लोकतांत्रिक सरकारों के लिए हौवा है।
डरावने तथ्य
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के 12 जुलाई, 2021 के प्रेस बयान के अनुसार भारत की उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति (सीपीआइ) सरकार और आरबीआइ द्वारा निर्धारित ऊपरी सीमा को भी पार कर गई है। इसका दायरा दो से छह फीसद का है। लेकिन सीपीआइ 6.23 फीसद हो गया। शहरी सीपीआइ जो मई में 5.91 फीसद था, वह जून में बढ़ कर 6.37 फीसद पर जा पहुंचा। एक महीने में मूल मुद्रास्फीति 5.5 फीसद से बढ़ कर 5.8 फीसद हो गई।
खाद्य महंगाई 5.58 फीसद पर है।
दालों की महंगाई 10.1 फीसद पर है।
फलों की महंगाई 11.82 फीसद पर है।
परिवहन की मुद्रास्फीति 11.56 फीसद पर है।
ईंधन और बिजली की महंगाई 12.68 फीसद पर है।
और तेलों तथा वसा की महंगाई 34.78 फीसद पर है।
मेरे विचार से यह महंगाई अचानक मांग बढ़ने से नहीं बढ़ी है। बल्कि निजी खपत की मांग कम है। यह महंगाई नगदी की अधिकता या लोगों के हाथ में बहुत ज्यादा पैसा आ जाने से भी नहीं बढ़ी है। यह महंगाई सरकार की गलत नीतियों का नतीजा है, खासतौर से कर नीतियां।
रिजर्व बैंक का विश्लेषण
जुलाई 2021 के बुलेटिन में आरबीआइ ने कुछ-कुछ बचते हुए स्वीकार किया कि खाद्य पदार्थों और ईंधन के दाम बढ़े हैं। लेकिन अनुकूल आधार प्रभाव जो पिछले साल इसी अवधि में नीचे आ गया था, के लिए यह सीपीआइ मुद्रास्फीति को बढ़ाएगा। बुलेटिन कहता है- कपड़े, जूते-चप्पल, घरेलू सामान तथा सेवाओं और शिक्षा में महंगाई में काफी उछाल आया। इसमें यह भी कहा गया है कि पेट्रोल के दाम सौ रुपए लीटर के पार निकल गए हैं, डीजल 93 रुपए 52 पैसे लीटर है, और कैरोसिन तथा एलपीजी के दाम भी काफी बढ़ गए हैं। ज्यादा उल्लेखनीय तो यह है कि पूरे निर्माण और सेवा क्षेत्र में लागत बढ़ गई है।
सारे आंकड़े एक ही दिशा में जा रहे हैं- सरकार की गलत कर नीतियां। तीन कर हैं, जिन्होंने भारी तबाही मचा दी है। पहला, पेट्रोल और डीजल पर कर, खासतौर से केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए उपकर। इन ईंधनों पर केंद्र और राज्य सरकारों को कर लगाने की इजाजत हम इसलिए दे सकते हैं, क्योंकि उन्हें राजस्व की जरूरत होती है। लेकिन उपकरों के लिए इसका कोई औचित्य नहीं है। पेट्रोल पर उपकर तैंतीस रुपए प्रति लीटर है और डीजल पर बत्तीस रुपए लीटर। एक अनुमान यह है कि केंद्र सरकार को अकेले इन उपकरों से चार लाख बीस हजार करोड़ रुपए सालाना मिल जाते हैं और यह सारा पैसा केंद्र अपने पास रखता है। आमतौर पर उपकर किसी खास मकसद के लिए और खास अवधि के लिए लगाया जाता है। इन दोनों ही सीमाओं को सरकार ने खिड़की से बाहर फेंक दिया है और पेट्रोल तथा डीजल पर उपकरों को थोप कर इस उपाय का दुरुपयोग किया जा रहा है। शोषण और लालच का यह सबसे बदतर रूप है।
दूसरा, उच्च आयात शुल्क हैं। साल 2004 में शुरू की गई व्यवस्था को पलटते हुए सरकार ने तमाम तरह के सामान पर आयात शुल्क बढ़ा दिया है। इसका नतीजा यह हुआ कि विनिर्माण में काम आने वाली तमाम चीजों से लेकर पाम आॅयल, दालें और कई तरह के घरेलू सामान महंगे हो गए।
तीसरा, जीएसटी की अतार्किक दरें हैं। बुनियादी दिक्कत जीएसटी की कई तरह की दरें अभी तक बने रहना है। बड़े पैमाने पर खपत वाले उत्पादों जैसे प्रसाधन सामग्री, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ, अन्य खाद्य सामान, घरेलू इस्तेमाल के उपकरण आदि हैं, जिन पर जीएसटी दर बारह से अठारह फीसद है। इस तरह जीएसटी की ऊंची दर अंतिम दामों को बढ़ा देती है।
क्रूर ईंधन उपकर
सरकार ने जिस चीज की अनदेखी की है, वह यह कि उपरोक्त सारे कर- उपकर, आयात शुल्क और जीएसटी अप्रत्यक्ष कर हैं, जो इस मायने में प्रतिगामी हैं कि अमीरों और गरीबों पर इनका असर अलग-अलग पड़ता है। नतीजतन, गरीब पर ज्यादा बोझ पड़ता है। दूसरा पहलू जिसकी अनदेखी कर दी गई वह यह कि इन सारे करों का बोझ निवेश पर पड़ता है और एक मूल्य शृंखला को बनाते हुए अंत में ये उत्पादों और सेवाओं की अंतिम लागत को बढ़ा देते हैं। ईंधन के दाम ही लें।
ईंधन के दाम बढ़ने से व्यावहारिक रूप से हर तरह की मानवीय गतिविधि प्रभावित होती है, जैसे- यात्रा, परिवहन, खेती (डीजल ट्रैक्टर और पंप), उद्योग (बिजली), सेवाएं और घरेलू बिजली। भारतीय स्टेट बैंक ने चेताया है कि ईंधन पर खर्च ने स्वास्थ्य, किराना और उपयोग सेवाओं जैसे जरूरी खर्चों पर भारी दबाव डाला है। एसबीआइ के शोधकर्ताओं ने पाया है कि बैंक जमाओं में भारी गिरावट आई है, लोगों पर घरेलू खर्च का कर्ज बढ़ रहा है और उनकी बचत तेजी से नीचे जा रही है। इसलिए उन्होंने करों को तार्किक बनाते हुए तेल के दामों में तत्काल कटौती करने की मांग की है और चेताया है कि ऐसा नहीं किया गया तो अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में और देर हो जाएगी।
सरकार का रवैया ‘लोग मरें मैं परवाह नहीं करता’ वाला है और लोगों का यह कि ‘यह हमारी तकदीर है’। इससे एकमात्र जो संभावित निष्कर्ष निकलता है वह यह कि लोकतंत्र पूरी तरह विकृत हो चुका है, जिसके बारे में कहा जाता है कि ‘लोगों की, लोगों द्वारा और लोगों के लिए सरकार’।