विधानसभाओं के चुनाव होते हैं। उनमें क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों से विभिन्न दलों के चुने गए सदस्य होते हैं। सबसे बड़ी पार्टी के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है और उसे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाई जाती है।
मुख्यमंत्री राज्य की जनता का चुना हुआ नेता होता है। मुख्यमंत्री की सलाह पर ही मंत्रियों की नियुक्ति की जाती है। यह वेस्टमिंस्टर संसदीय प्रणाली है। भारत में लगभग तीस वर्षों तक इसी प्रणाली का पालन किया जाता रहा। इस प्रणाली ने अच्छी तरह से काम किया और छोटी-मोटी गड़बड़ियों को तुरंत ठीक कर लिया गया।
एक सरकार
मगर यहां ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें वेस्टमिंस्टर प्रणाली पसंद नहीं है। स्पष्ट रूप से कहें तो, उन्हें राज्य पसंद नहीं; वे निर्वाचित विधानमंडलों को पसंद नहीं करते; और न उन्हें मुख्यमंत्री पसंद हैं। संक्षेप में, वे राज्य सरकारों से छुटकारा पाना चाहते हैं।
वे मानते हैं कि अगर 142.6 करोड़ आबादी वाले चीन में एक सरकार हो सकती है, तो 141.2 करोड़ की आबादी वाले भारत में क्यों नहीं? वेस्टमिंस्टर माडल के खिलाफ रुझान बढ़ रहा है। ऐसा ही रुझान रखने वाले कुछ लोगों को राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया गया है।
एक राज्य का राज्यपाल नाममात्र का प्रमुख (ब्रिटिश सम्राट की तरह) होता है और सरकार राज्यपाल के नाम पर चलाई जाती है। संविधान में राज्यपाल की शक्तियों (अनुच्छेद 163) की व्याख्या और सीमाएं निर्धारित हैं: ‘राज्यपाल को अपने कार्यों के निष्पादन में सहायता और सलाह देने के लिए मुख्यमंत्री के साथ एक मंत्रिपरिषद होगी, सिवाय इसके कि जब तक वह संविधान द्वारा या उसके तहत अपने कार्यों या उनमें से किसी का प्रयोग करने के लिए अपने विवेक के इस्तेमाल को बाध्य न हो।’
भाषा सहज और सरल है। वेस्टमिंस्टर माडल की पृष्ठभूमि में, जिसे हमने अपनाया, अनुच्छेद 163 के अर्थ ग्रहण में कोई संदेह नहीं है। इंग्लैंड में सम्राट की तरह, राज्यपाल के पास कोई वास्तविक शक्तियां नहीं होती हैं। वह केवल उन्हीं मामलों में अपने विवेक से काम कर सकता है, जहां संविधान में उससे ऐसा करने की अपेक्षा की गई है। फिर भी, थोमस जैसे कुछ लोग इस पर संदेह करते रहे हैं।
न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य के अपने फैसले में उन्हें किनारे करते हुए कहा: ‘हम अपने संविधान की इस शाखा के कानून की घोषणा करते हैं कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपनी औपचारिक संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग केवल कुछ जानी-पहचानी असाधारण स्थितियों को छोड़कर, अपने मंत्रियों की सलाह के अनुसार ही करेंगे।’
हद पार करना
फिर भी हमारे यहां कुछ ऐसे राज्यपाल हैं, जो मुख्यमंत्रियों पर अपना प्रभुत्व जमाना चाहते हैं। वे मुख्यमंत्री बनने के इच्छुक हैं। विधेयक के कानून बनने के लिए राज्यपाल की सहमति आवश्यक है। अनुच्छेद 200 में प्रावधान है कि राज्यपाल अपनी सहमति दे सकता है या उसे वापस कर सकता या राष्ट्रपति को विचार के लिए भेज सकता है।
अगर किसी विधेयक पर सहमति नहीं दी जाती, तो उसे पुनर्विचार के लिए विधानमंडल को लौटा दिया जाना चाहिए। अगर विधेयक फिर से संशोधनों के साथ या बिना संशोधन के पारित हो जाता है, तो राज्यपाल उस पर अपनी सहमति देने को बाध्य होता है। मगर कुछ ऐसे राज्यपाल हैं जो विधेयकों पर बस ‘बैठे’ जाते हैं।
फिर ऐसा दिखावा किया जाता है कि राज्यपाल विधेयक पर ‘विचार’ कर रहे हैं। एक राज्यपाल कितनी बार किसी विधेयक को पढ़ेगा और उस पर विचार करेगा? अगर वह विधेयकों को समझने में असमर्थ है, तो उसे अपनी अक्षमता का हवाला देते हुए इस्तीफा दे देना चाहिए।
राज्यपाल राज्य सरकारों का विरोध करते देखे जाते हैं। एक राज्य सरकार नई शिक्षा नीति और तथाकथित त्रिभाषा फार्मूले का विरोध कर रही है। राज्य के राज्यपाल ने राज्य सरकार के कदम का विरोध किया और नई शिक्षा नीति और त्रिभाषा सूत्र के गुणों की प्रशंसा की।
राज्यपाल ने अन्य मुद्दों पर भी राज्य सरकार का विरोध किया। फिर राज्य सरकार के समर्थन में उस राज्य के सांसदों ने राज्यपाल को वापस बुलाने के लिए राष्ट्रपति को एक हस्ताक्षरित ज्ञापन सौंपा।
राज्यपाल असंगत और भड़काऊ टिप्पणी करते हैं। एक राज्यपाल ने कहा कि छत्रपति शिवाजी ‘पुराने दिनों के प्रतीक’ थे। उसे लेकर पूरे राज्य में विरोध है और मुख्यमंत्री की पार्टी ने, हालांकि इसके अलावा राज्यपाल और केंद्र सरकार के साथ उसका दोस्ताना है, उनकी वापसी की मांग की है।
राज्यपाल अभद्र टिप्पणी करते हैं। एक राज्यपाल ने मुख्यमंत्री के बारे में कहा कि ‘अगर मुख्यमंत्री को इस बात की जानकारी नहीं थी कि उनके कार्यालय का कोई व्यक्ति कुलपति को अपने किसी रिश्तेदार को नियुक्त करने का निर्देश दे रहा है, तो इससे पता चलता है कि वे कितने अक्षम हैं। अगर उन्हें इसके बारे में पता था, तो फिर वे भी उतने ही दोषी हैं।’
इससे पहले, उसी राज्यपाल ने कहा था कि वे मुख्यमंत्री के पिछले राजनीतिक रिकार्ड के बारे में जानते हैं और एक मौके पर तो पार्टी के युवा नेता (अब सीएम) को अपने कपड़े बदलने पड़े थे (इसका मतलब है कि उन्होंने खुद अपना कपड़ा गीला कर लिया था)।
राज्यपालों को मुख्यमंत्री के विरोधी दल के नेताओं का ‘स्वागत’ करने के लिए पुरस्कृत किया जा चुका है और उन्हें ‘अभिभावक’ कहा गया है। दूसरी ओर, संवैधानिक मानदंडों का पालन करने के लिए राज्यपालों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है।
खुजली
राज्यपाल ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं, जिससे लगता है कि वे मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं? डा. सी. रंगराजन, जो एक प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री और आरबीआइ के पूर्व गवर्नर हैं, एक राज्य के राज्यपाल भी रह चुके हैं, उन्होंने अपनी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘फोर्क्स इन द रोड’ में कहा है कि: ‘विशुद्ध रूप से राजनीतिक नियुक्तियों वाले लोगों को उन मुख्यमंत्रियों के साथ काम करने में बड़ी दिक्कत होती है, जो उनकी पार्टी के नहीं हैं।
उन्हें प्रशासकीय चुटकी काटने की आदत हो जाती है… स्पष्ट रूप से, ऐसे राज्य में सत्ता के दो केंद्र बन जाते हैं और उनमें संविधान का पालन नहीं किया जाता। इसके अलावा, जब ऐसे लोगों को राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जाता है, जो पहले किसी जिम्मेदार पद का निर्वाह कर चुके होते हैं।
वे ‘व्यावहारिक’ प्रशासक रह चुके होते हैं और अपनी ताकत का प्रयोग करने के अभ्यस्त होते हैं। उनमें कभी-कभी पुराने ढंग से काम करने की ‘खुजली’ उभर आती है। उन्हें इसको नियंत्रित करना सीखना चाहिए।’ हालांकि इसकी संभावना नहीं है, क्योंकि वेस्टमिंस्टर-विरोधी समुदाय के राज्यपालों को मुख्यमंत्री बनना पसंद है।