असहमति वाला यह फैसला कानून की विचार करने की भावना और भविष्य की बुद्धिमत्ता के लिए एक आकर्षण भर रहेगा।
कानूनी आयाम
उन छह सवालों को लेकर अदालत की क्या राय रही, जो उसी ने तय किए थे? आरबीआइ अधिनियम की धारा 26 की उपधारा (2) के तहत केंद्र सरकार को बैंक नोटों की सभी शृंखलाओं का (एक या अधिक मूल्य के) विमुद्रीकरण करने का अधिकार है। धारा (26), उपधारा (2) वैध है और इसे अत्यधिक प्रदत्त शक्तियों के उदाहरण के रूप में खत्म नहीं किया जा सकता।
तात्कालिक मामले में निर्णय प्रक्रिया दोषपूर्ण नहीं थी। पूर्ण हो चुकी नोटबंदी आनुपातिक परीक्षण पर खरी उतरी। नोट बदलने के लिए दिया गया समय पर्याप्त था। अनुबंधित समयसीमा के बाद बंद किए गए नोटों को स्वीकार करने का आरबीआइ को अधिकार नहीं है।
तकनीकी कानूनी सवालों को दरकिनार कर दें, तो सवाल एक और तीन के जवाब में ही पाठकों की दिलचस्पी होगी। केंद्र सरकार के नोटबंदी के अधिकार पर अदालत ने कहा कि यह संसद के अधिकार के समान था, बशर्ते इसके लिए आरबीआइ ने सिफारिश की हो। निर्णय प्रक्रिया पर अदालत ने कहा कि आरबीआइ के केंद्रीय बोर्ड ने सभी संबंधित पहलुओं पर विचार किया था और कैबिनेट ने भी सभी संबंधित पहलुओं पर विचार कर लिया था।
अदालत ने कुछ अन्य पहलुओं पर भी टिप्पणी की, जो पाठकों के लिए दिलचस्प होंगी। इस सवाल पर कि क्या नोटबंदी के लक्ष्यों को हासिल कर लिया गया या नहीं, अदालत ने कहा कि इस सवाल की गहराई में जाने के लिए उसके पास विशेषज्ञता नहीं है। लोगों को हुई मुश्किलों के बारे में अदालत ने कहा कि सिर्फ कुछ नागरिकों को परेशानी हुई, यह इस बात का आधार नहीं होगा कि निर्णय कानूनन बुरा था।
इस प्रकार कानूनी पहलुओं का फैसला सरकार के पक्ष में हुआ।
राजनीतिक आयाम
हो सकता है कि कानूनी सवालों के जवाबों से दलीलें बंद हो जाएं, लेकिन दो अन्य आधारों पर बहस शुरू हो जाएगी। द इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू और टाइम्स आफ इंडिया के संपादकीयों में इन पर गौर फरमाया गया है। पिछले दो मौकों पर- 1946 और 1978 में एक अध्यादेश, जो संसद के कानून की जगह लाया गया था, के जरिए उच्च वर्ग मूल्य के नोट बंद किए गए थे। ऐसा पूर्ण विधायी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए किया गया था। तब के रिजर्व बैंक गवर्नर ने नोटबंदी को समर्थन देने से इनकार कर दिया था। इसलिए संसद ने कानून पास किया।
इसके नतीजों, चाहे अच्छे हों या बुरे, की जिम्मेवारी और लोगों को हुई मुश्किलों के लिए सांसद जिम्मेदार हैं, जिन्होंने कानून पास किया। संसद में इस पर बहस हुई और मान लिया गया कि फैसले की पुष्टि से पहले जन प्रतिनिधियों ने सभी संबंधित पहलुओं पर विचार कर लिया था।
क्या यही बात आठ नवंबर, 2016 को कार्यकारी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए की गई नोटबंदी के मामले में भी कही जा सकती है? संसद को कोई भूमिका नहीं निभानी थी। तार्किक रूप से, नोटबंदी की नाकामी या उसके आर्थिक नतीजों के लिए जनप्रतिनिधियों को दोष नहीं दिया जा सकता। साल 2016 में चलन में नगदी सत्रह लाख बीस हजार करोड़ रुपए थी, जो 2022 में बढ़ कर बत्तीस लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गई।
‘काले धन’ (या बेहिसाब नगदी) का खुलासा तो अक्सर आयकर विभाग या अन्य जांच एजंसियां करती रही हैं, जो किसी को याद भी नहीं होगा। जाली नोटों का तो रोजाना ही पता चलता रहता है, जिसमें पांच सौ और दो हजार के नए नोट शामिल हैं। आतंकवाद, जिसमें आतंकियों के हाथों मारे जाने वाले निर्दोष नागरिकों और मारे गए आतंकी दोनों शामिल हैं, की घटनाएं हर हफ्ते देखने को मिल रही हैं।
आतंकवाद को वित्तपोषण लगातार जारी है और भारत सरकार ने ‘आतंकवाद के लिए धन नहीं’ (NMFT) पर मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के लिए स्थायी सचिवालय स्थापित करने की पेशकश की है। नोटबंदी से कौन से लक्ष्य हासिल हुए?
सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण एक और सवाल है। क्या सरकार को प्रदत्त कार्यकारी शक्तियां संसद की पूर्ण विधायी शक्तियों के समान हैं? आरबीआइ अधिनियम की धारा 26, उपधारा (2) के मामले में उठे सवाल का फैसला सरकार के पक्ष में दिया गया है। लेकिन क्या तब भी यही जवाब होगा जब दूसरे अधिनियमों के मामले में भी ऐसे सवाल उठेंगे? इस महत्त्वपूर्ण सवाल का जवाब खोजने के लिए संसद को बहस का अवसर खोजना चाहिए।
आर्थिक आयाम
अदालत ने नोटबंदी के मामले में समझदारी या इसके आर्थिक नतीजों और नोटबंदी के लक्ष्यों के मुकाबले इससे लोगों को हुई परेशानियों के बारे जाने से इनकार कर दिया। अदालत ने संयम बरतते हुए सरकार पर फैसले को टाल दिया। हालांकि जहां तक लोगों का सवाल है, उनके लिए सबसे बड़ा मसला नोटबंदी के फैसले की बुद्धिमानी और मध्यवर्ग तथा गरीब वर्ग, तीस करोड़ दिहाड़ी मजदूरों और किसानों, जिनकी फसलों के दाम गिर गए थे, को हुई मुश्किलों से जुड़ा है। इससे भी ज्यादा 2016-17 की तीसरी तिमाही (जब नोटबंदी हुई थी) के बाद हर साल 2017-18, 2018-19 और 2019-20 में जीडीपी की वृद्धि दर गिरती चली गई। उसके बाद कोरोना महामारी आ गई और उससे भी आर्थिक संकट बढ़ता गया। लोग इन मसलों पर लगातार बहस करते रहेंगे।
कानूनी बहस में सरकार की व्यापक रूप से जीत हुई है। राजनीतिक तौर पर बहस खत्म नहीं हुई है और संसद को यह करनी चाहिए। आर्थिक दलीलों पर देखें तो सरकार काफी पहले हार चुकी है, लेकिन इसे वह मानेगी नहीं।