किसी भी देश के विकास और प्रगति का आकलन वहां की शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के आधार पर किया जा सकता है। इसलिए इन सुविधाओं को मानव विकास सूचकांक के महत्त्वपूर्ण संकेतक के रूप में देखा जाता है। इसलिए शिक्षा का अधिकार और स्वास्थ्य का अधिकार मानवाधिकार के रूप में उभर कर आए। मगर उपभोक्तावादी संस्कृति और विकास की आधुनिक प्रक्रिया ने जीवन-रक्षा से जुड़े पेशे में लालच उत्पन्न कर इस पेशे को अमानवीय बना दिया है। पिछले कुछ वर्षों से चिकित्सा के पेशे में अमानवीयता के अनेक मामले सामने आए हैं। चिकित्सक को ईश्वर के रूप में स्वीकारने का विचार अब लगता है कि बीते दिनों की बात हो गई।
भारत में जीडीपी का बहुत कम हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर व्यय किया जाता है। नतीजतन, सार्वजानिक अस्पतालों की स्थिति अत्यंत शोचनीय बनी हुई है। चिकित्सक और रोगी का असंतुलित अनुपात, महंगी दवाइयां, आपातकालीन सेवाओं की दुर्दशा, अस्पतालों में आधुनिक तकनीक का अभाव, चिकित्सकों और रोगी के परिजनों के बीच तनावपूर्ण संबंध आदि कुछ ऐसे पक्ष हैं, जो देश की समूची स्वास्थ्य प्रणाली के सामने प्रश्न खड़ा करते हैं।
अनेक बार ऐसी खबरों ने सुर्खियां बटोरी हैं कि पैसे की कमी और सरकारी अस्पतालों में पर्याप्त आधुनिक सुविधाओं के अभाव में गरीब जनता अपने नजदीकी निजी अस्पतालों में इलाज नहीं करा पाती। दूर-दराज के स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचने से पहले ही उपचार के अभाव में उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। जबकि चिकित्सा के पेशे में प्रवेश के समय चिकित्सकों को शपथ दिलाई जाती है कि वे मानवता की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित करेंगे। वे अपने चिकित्सीय ज्ञान का उपयोग मानवता के नियमों के विपरीत नहीं करेंगे। इसके बावजूद चिकित्सक और रोगी के संबंध हमेशा से विवादों के घेरे में रहे हैं।
इन दिनों राजस्थान में स्वास्थ्य का अधिकार कानून चर्चा का विषय बना हुआ है। पिछले कई दिनों से निजी अस्पतालों के डाक्टर इस कानून के विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं। उनके विरोध प्रदर्शन के बावजूद राजस्थान विधानसभा में यह कानून पारित हो गया। यह कानून विशेष रूप से इस बात पर केंद्रित है कि अस्पतालों में उपचार के लिए मरीजों को मना न किया जाए। अगर आपातकाल में इलाज का खर्चा संबंधित मरीज वहन करने की स्थिति में नहीं है, तो उसकी भरपाई राज्य सरकार करेगी।
भारत एक कल्याणकारी राज्य है और समग्र नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना और उनके हितों के अनुरूप नीतियां और कानून बनाना राज्य का प्रमुख दायित्व है। इसी कल्याणकारी नीति के तहत सरकार निजी अस्पतालों और विद्यालयों को रियायती दर पर जमीन उपलब्ध कराती है। इसलिए इन अस्पतालों का यह परम दायित्व बनता है कि वे गरीब जनता के हितों को समझें और उन्हें उचित सुविधाएं प्रदान करें। हो सकता है कि जो लोग स्वास्थ्य सुविधाओं का खर्च वहन करने में समर्थ होते हैं, उनके लिए यह कानून ज्यादा महत्त्वपूर्ण न हो, लेकिन देश की वह आबादी जो गरीबी में जीवन जीने को अभिशप्त है, जिसे दो वक्त का खाना भी नसीब नहीं होता, उसके लिए स्वास्थ्य का अधिकार कानून वरदान साबित हो सकता है।
इस कानून में राज्य के नागरिकों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण अधिकारों को केंद्र में रखा गया है, जैसे स्वयं को स्वस्थ बनाए रखने के लिए जानकारी लेने का अधिकार, निर्धारित सभी सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों में निशुल्क परामर्श, दवाओं, उपचार, आपातकालीन परिवहन और आपातकालीन देखभाल का अधिकार, निवासियों को अधिसूचित सभी सार्वजनिक अस्पतालों में सर्जरी के लिए निशुल्क देखभाल का अधिकार, चिरंजीवी योजना के तहत लक्षित किए गए निवासियों को बीमा योजना के तहत सूचीबद्ध अस्पतालों की सेवाओं का लाभ उठाने का अधिकार, भूमि आबंटन के माध्यम से स्थापित निजी चिकित्सालयों में रियायती दरों पर या निशुल्क सेवाएं प्राप्त करने का अधिकार, किसी भी शिकायत के मामले में सुनवाई का अधिकार, भुगतान बाकी होने के बावजूद मृतक के परिवार के सदस्य या अधिकृत व्यक्ति को शव प्राप्त करने का अधिकार आदि।
सरकार के इस कदम की आवश्यकता चिकित्सीय उपेक्षा के अनेक साक्ष्यों से सिद्ध होती है। मसलन, एक मामले में प्रसव के दौरान बच्चे के पैर इतनी जोर से खींचे गए कि उसका शरीर दो टुकड़ों में बंट गया। परिजनों को जानकारी दिए बिना एक मरीज को दूसरे जिले में भेज दिया गया, अस्पताल में भर्ती एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाने के बाद भी उसे वेंटीलेटर पर रखा और 15.88 लाख का बिल उसके परिजनों को थमा दिया। एक अस्पताल ने तो जिंदा बच्चे को मृत बता कर परिजनों को उसका शव लपेट कर सौंप दिया। अस्पताल में आक्सीजन की कमी से हुई बच्चों की मौत के भी ऐसे उदाहरण हैं, जो इस कानून की सार्थकता को सिद्ध करते हैं।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य विवरण के अनुसार भारत उन देशों में शामिल है जहां स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी खर्च सबसे कम है। यहां प्रति एक हजार की जनसंख्या पर केवल 0.9 बिस्तर उपलब्ध हैं और इनमें से केवल तीस फीसद ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध हैं। फिलहाल सरकारी अस्पतालों में ग्यारह हजार से अधिक रोगियों पर एक चिकित्सक की सेवा उपलब्ध है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुशंसा से काफी कम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बहुत से लोग अब भी ऐसी बीमारियों से मर रहे हैं, जिनका आसान इलाज मौजूद है और जिन्हें बड़ी आसानी से रोका जा सकता है। बहुत से लोग केवल इलाज पर खर्च की वजह से गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं और बहुत से लोग स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठा पाने में असमर्थ हैं।
चिकित्सीय प्रशिक्षण का अभाव और रोगी के प्रति संवेदनहीनता क्या किसी रुग्ण समाज की ओर संकेत करते नजर नहीं आते? स्वास्थ्य विभाग द्वारा कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, पर क्या ग्रामीण या दूर-दराज के इलाकों तक उनका लाभ पहुंच रहा है? चिकित्सा कर्मियों, खासकर महिला कर्मियों और चिकित्सकों की संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत कम है। चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण ने प्रशासन और चिकित्सकों की मानसिकता को बाजार में बदल दिया है। राज्य और समाज अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते।
एडम स्मिथ का यह कथन कि जब पेशेवर लोग पैसा कमाने में लग जाते हैं, तो वे धीरे-धीरे सामाजिक दायित्वों से कट जाते हैं, इस संदर्भ में सही प्रतीत होता है। निजी क्षेत्र धनी जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं और इसके चलते भारत सहित विश्व के सभी देशों में शिक्षा और स्वास्थ्य ऐसा बाजार बन गए हैं, जहां लालच चरम पर है। महानगरों में पांच सितारा और सात सितारा जैसे अस्पतालों की चर्चा अब आम बात हो गई है। जांच केंद्र, मेडिकल हाल और दवा उद्योग चिकित्सकों के सहयोग से लगातार लाभ कमा रहे हैं। चिकित्सक निर्धन रोगी की इसलिए उपेक्षा करते हैं, क्योंकि वे उनकी सेवाओं के बदले बड़ी राशि दे पाने में असमर्थ हैं।
इन पेशों का यह अमानवीय चेहरा देश की लगभग सत्तर फीसद जनसंख्या के लिए आक्रोश का कारण बन रहा है। इन पेशों में राज्य द्वारा तत्काल संरचनात्मक सुधार की आवश्यकता है। समाज असहाय है, क्योंकि वह इन विशेषज्ञों की सेवाओं का लाभ नहीं उठा पाता। यह सही है कि इस पेशे से जुड़े लोगों को अपने साथ हुए अशिष्ट व्यवहार का लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करने का अधिकार है, पर सेवाओं को बंद कर देना बहुत घातक हैं, क्योंकि यह इन पेशों का अपमान भी है।