कोरोना संक्रमण के इस कठिन समय में लोगों के सामने सबसे बड़ा सवाल है कि दुर्भाग्य से अगर वे इसकी चपेट में आ जाएं, तो किस अस्पताल में, किस डॉक्टर में पास जाएं और कैसे उनका इलाज हो। इसी अफरातफरी के बीच आयुर्वेद और एलोपैथी की सर्जरी पद्धतियों को लेकर उठा विवाद अनावश्यक और ध्यान भटकाने वाला है।
सरकार ने करीब दो हफ्ते पहले एक अधिसूचना जारी की, जिसके तहत आयुर्वेद की कुछ शाखाओं के स्नातोकोत्तर छात्रों को सुदम्य ट्यूमर, गैंगरीन हटाने, मोतियाबिंद, कान, नाक, गले संबंधी कुछ आपरेशन करने की अनुमति दी जाएगी। इस फैसले के पीछे एक सक्रिय आयुर्वेदिक समूह भी है। अक्सर एमबीबीएस करने की कोशिश में विफल छात्र बीएएमएस करके आयुर्वेदिक डॉक्टर बन जाते हैं। एमबीबीएस डिग्री धारकों की तुलना में उनकी प्रतिष्ठा और आय काफी कम होती है।
इसके अलावा आयुर्वेद के प्राइवेट कॉलेज रसूखदार और धनी लोगों के हाथ में होते हैं। आयुर्वेद और खासकर इसकी सर्जरी को लोकप्रिय बनाने से उन्हें सीधा फायदा मिलेगा। शल्य चिकत्सा को इसमें शामिल करने से ज्यादा छात्र इन कॉलेजों में भर्ती होने के लिए लालायित होंगे और आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेजों की लोकप्रियता बढ़ेगी।
आयुर्वेद को अधूरा और अपर्याप्त इसलिए भी माना जाता है, क्योंकि इसमें शल्य चिकित्सा विकसित नहीं हुई। ऐसी मशीनें नहीं बनीं, जिनकी मदद से अंदरूनी अंगों को देखा-समझा जा सके। एलोपैथी में अल्ट्रासाउंड, एक्स रे, एमआरआई जैसे कई तरीके हैं, जिनकी मदद से उसने काफी विकास किया है।
आयुर्वेद में संज्ञाहरण या एनेस्थेशिया को लेकर भी कई विवाद हैं, क्योंकि आयुर्वेदिक डॉक्टर और एलोपैथी के सर्जन आपरेशन के लिए एक ही तरह की संज्ञाहरण दवा का इस्तेमाल करते हैं। बगैर कुशल संज्ञाहरण विशेषज्ञ के कोई भी सर्जरी संभव नहीं। एलोपैथी में इस पर कई शोध हुए हैं, जो आयुर्वेद में नहीं हो सके हैं।
आयुर्वेद के वैद्य और छात्र इसकी तारीफ करते नहीं थकते। ईसा से करीब छह सौ साल पहले जन्मे सुश्रुत प्राचीन भारत के चिकित्साशास्त्री और शल्यचिकित्सक थे, जिन्हें आयुर्वेदिक शल्य चिकित्सा का जनक भी कहा जाता है। उन्होंने शल्य चिकित्सा को लेकर कई प्रयोग किए। किसी भी शल्य चिकित्सक को मानव देह के बारे में गहरी जानकारी होनी चाहिए और इसके लिए सुश्रुत ने मृत देह पर प्रयोग किए।
मृत देह को बहते हुए पानी में करीब दस या पंद्रह दिन के लिए छोड़ दिया जाता था और इसके बाद उस पर प्रयोग किए जाते थे। सर्जरी के समय कोई संक्रमण न हो, इसके लिए उनका सुझाव था कि यह काम इंसानों की बस्ती से दूर किया जाए, वहां वातावरण साफ हो, पर्याप्त मात्रा में स्वच्छ पानी उपलब्ध रहे।
आज के समय में आयुर्वेद को लेकर मरीज के भरोसे का प्रश्न बहुत बड़ा है। ऐसा कोई मरीज शायद ही मिले, जो अपनी मोतियाबिंद जैसी मामूली सर्जरी के लिए भी किसी आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास जाना पसंद करे। पहले मोतियाबिंद के आपरेशन के लिए अस्पताल में पूरा कुनबा इकठ्ठा हो जाता था। परिवार वाले प्रार्थना करते थे कि रोगी सकुशल घर लौट आए। अब जब तक रोगी आॅपरेशन टेबल पर लेटता है, उसके नीचे उतरने और वापस घर जाने का समय हो जाता है। मोतियाबिंद जैसी मामूली दिखने वाली सर्जरी हृदय संबंधी जटिलताओं को भी जन्म दे सकती है।
कोई भी आपरेशन सरल नहीं होता और इसलिए हर आॅपरेशन के जोखिम को समझाते हुए रोगी के निकट संबंधियों से लिखित अनुमति ले ली जाती है। पित्ताशय में पथरी के लिए अब सिर्फ की-होल सर्जरी की जाती है, न कोई लंबा चीरा लगता है, न ही ढेरों टांके। यह मामूली आॅपरेशन भी पित्ताशय के संकुचित हो जाने की वजह से बहुत जटिल हो जाता है। यह जानना जरूरी है कि हर सर्जरी एक गंभीर घटना है, भले वह बहुत साधारण-सी दिखती हो।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या आयुर्वेद में लगातार शोध होते रहे हैं, जो शल्य चिकित्सा पर केंद्रित हों। एलोपैथी में आज से डेढ़ सौ साल पहले तक बगैर किसी संज्ञाहरण के सर्जरी की जाती थी। आज एनेस्थेशिया एलोपैथी की एक अलग विधा है और किसी भी सर्जरी के दौरान एक संज्ञाहरण विशेषज्ञ की निरंतर उपस्थिति बनी रहती है। रोगी को बेहोश करने के क्षण से लेकर उसके होश में आने तक।
इससे पहले कि आयुर्वेदिक वैद्य को सर्जरी जैसी गंभीर विधा में प्रवेश की अनुमति दी जाए, यह आवश्यक है कि इस चिकित्सा पद्धति के बारे में आम लोगों के प्रश्नों और दुविधाओं के समाधान किए जाएं। जैसे एलोपैथी दवाइयों के साइड इफेक्ट को लेकर लोग चिंतित रहते हैं, वैसे ही आयुर्वेदिक औषधियों के भी साइड इफेक्ट होते हैं। इनमें धातु आयनों के कारण होने वाली विषाक्तता एक सामान्य बात है। सीसा, पारा और आर्सेनिक की विषाक्तता काफी सामान्य है और इनका आयुर्वेदिक औषधियों में उपयोग किया जाता है।
आर्सेनिक का उपयोग कैंसर के इलाज में होता है, जबकि यह खुद त्वचा, फेफड़े और ब्लाडर के कैंसर का कारण बनता है। साथ ही पारे का उपयोग एंटी बायोटिक की तरह किया जाता है, जबकि इसकी अपनी खुद की विषाक्तता है। कई औषधियां दूषित मिट्टी में पैदा होती हैं, मिट्टी के हानिकारक रसायन उन जड़ी-बूटियों में भी पहुंच जाते हैं, खासकर ऐसे समय में जब इन जड़ी-बूटियों का बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक उत्पादन हो रहा हो। इस संबंध में आयुर्वेद में गंभीर काम होना चाहिए।
गौरतलब है कि बीमारी में चिकित्सक का चयन बहुत व्यक्तिगत मामला है, जिसका संबंध मरीज के भरोसे और डॉक्टर के साथ उसके पीढ़ियों के साथ चलते आ रहे रिश्तों के साथ भी है। डॉक्टर किसी पर थोपे नहीं जा सकते। आयुर्वेदिक चिकित्सकों की विशेष जिम्मेदारी है कि वे मरीजों का भरोसा जीतें, और इसके लिए उन्हें पहले से स्थापित एलोपैथी के डॉक्टर के सामने अपनी कुशलता साबित करनी होगी।
पिछले दो दशकों में सभी आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेजों में आयुर्वेदिक सर्जन द्वारा किए गए आपरेशन की विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए। आयुर्वेदिक सर्जन को प्रशिक्षण देने वाले क्या एलोपैथिक सर्जन होंगे या आयुर्वेदिक शल्य चिकित्सक?
एलोपैथी की तकनीक और विज्ञान पर भी पांच-सितारा दवा कंपनियों की मजबूत पकड़, शुद्ध वाणिज्यिक तौर-तरीके और अमानवीय मुनाफाखोरी लोगों को इसके प्रति प्रश्न उठाने पर बाध्य करती है। आने वाले समय में अलग-अलग चिकित्सीय तरीकों के संश्लेषण पर जरूर कुछ लोग गंभीरता से काम करेंगे। हर विधा में कुछ है जो अनूठा है, गंभीर शोध का परिणाम है।
तिब्बती चिकित्सीय पद्धति की कई अद्भुत विशेषताएं हैं। एक्यूप्रेशर और एक्यूपंक्चर की भी अपनी खूबियां हैं। प्राकृतिक चिकित्सा का अपना सौंदर्य है। गांधीजी शुरू से वे प्राकृतिक चिकित्सा के हिमायती थे, पर उन्हें 1919 में पाइल्स के लिए डॉ. दलाल से और 1924 में डॉ. मैडोक से अपेंडिसाइटिस का आपरेशन करवाना पड़ा था। 1921 में दिल्ली में एक मेडिकल कॉलेज का उद्घाटन करते हुए उन्होंने आधुनिक एलोपैथी प्रणाली के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया और इस बात पर बहुत खुश हुए कि नए अस्पताल में आयुर्वेद और यूनानी दवाओं के अलावा एलोपैथी का भी इंतजाम है।
वे चाहते थे कि चिकित्सा की सभी विधाएं मिलजुल कर समरसता के साथ काम करें। चिकित्सा का भविष्य शायद सभी तरह की पद्धतियों के संश्लेषण में ही है। एक तरह की चिकित्सीय मतनिरपेक्षता में, या चिकित्सकीय दृष्टि से सर्वधर्म-समभाव में।