शुरू में स्पष्ट करती हूं कि छात्रों को गिरफ्तार करना बेवकूफी है मेरी राय में। छात्रों को तभी गिरफ्तार करना चाहिए जब बंदूक उठा कर देश के खिलाफ लड़ने पर उतर आते हैं। इस बात को कहने के बाद मैं वापस जाना चाहती हूं नौ फरवरी की रात, जब जेएनयू कैंपस में ऐसे नारे लगे थे, जिनको सुनने के बाद मुझे सख्त तकलीफ हुई। पटियाला हाउस के हादसे ने इन नारों से ध्यान हटा दिया है, इसलिए उनको यहां दोहराना जरूरी है। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह, इंशाअल्लाह’। ‘कश्मीर की आजादी तक, भारत की बर्बादी तक, जंग रहेगी, जंग रहेगी’।
मुझे नहीं मालूम कि ये नारे किसने लगाए, लेकिन इतना जरूर मालूम है कि लगे थे जेएनयू में, क्योंकि मैंने इनका वीडियो देखा और देखने के बाद ऐसा लगा कि इस देश के दुश्मन प्रवेश कर गए हैं हमारे विश्वविद्यालों में। मेरा मानना है कि हमारे सबसे बड़े दुश्मन सीमा के उस पार वे जिहादी तंजीमें हैं, जिनको पाकिस्तान की सेना ने इस मकसद से कायम किया है कि वे भारत को बर्बाद करने के काम आएं। मुझे यकीन है कि नारे लगाने वाले छात्र प्यादों की भूमिका अदा कर रहे हैं उस जंग में जो मैदान-ए-जंग में नहीं लड़ी जा रही है हमारे शहरों में, बाजारों में, विश्वविद्यालों में।
मैं उन भारतीयों में हूं जो पाकिस्तान के जिहादियों के वक्तव्यों को बहुत गंभीरता से लेते हैं। सो, पूरा यकीन करती हूं जब हाफिज सईद जैसे लोग पाकिस्तानी टीवी पर बार-बार कहते हैं कि भारत को बर्बाद करके रहेंगे और कश्मीर को छीन के लेंगे। पाकिस्तानी टीवी पर यह भी देखा है मैंने कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उस देश के राजनीतिक पंडित और आर्थिक विशेषज्ञ कई बार इस बात को कहते हैं कि अगर मोदी की आर्थिक नीतियां कामयाब हो जाती हैं, तो भारत बहुत आगे निकल सकता है, पाकिस्तान से। क्या सिर्फ इत्तिफाक समझें हम कि जेएनयू वाला हादसा उसी हफ्ते हुआ जब प्रधानमंत्री मुंबई में मेक इन इंडिया वीक का उद्घाटन कर रहे थे?
अफसोस की बात है कि उनके अपने गृह मंत्रालय ने कन्हैया कुमार पर राजद्रोह का आरोप लगा कर मेक इन इंडिया वीक को गायब करवा दिया सुर्खियों से। कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी से शुरू हुई बात पटियाला हाउस अदालत तक जा पहुंची और वहां जब किसी भाजपा विधायक ने मारपीट शुरू की तो जेएनयू के नारे बिल्कुल भुला दिए गए। और चूंकि इस मारपीट में कुछ पत्रकारों को भी चोटें लगीं, दिल्ली शहर के वरिष्ठ पत्रकारों और प्रख्यात टीवी एंकरों ने जलूस निकाला अपना गुस्सा व्यक्त करने के लिए। फिर अगले दिन जब कन्हैया कुमार की पेशी के समय दुबारा पटियाला हाउस में मारपीट हुई तो चर्चा पटियाला हाउस की होने लगी और हम बिल्कुल भूल गए उन नारों को जो नौ फरवरी को लगे थे।
पटियाला हाउस में जो हुआ शर्मनाक जरूर है, लेकिन उन हादसों से इस देश को मेरी नजर में कोई खतरा नहीं है। खतरा है, उन नारों से जो जेएनयू में गूंजे थे और फिर जादवपुर विश्वविद्यालय में भी। पश्चिम बंगाल के छात्रों को कब से कश्मीर की आजादी को लेकर चिंता हुई है, जो आजादी के नारे वहां भी सुनने को मिले? अफवाह है कि उमर खालिद नाम के जेएनयू छात्र ने साजिश रची थी अठारह विश्वविद्यालों में इस तरह के जुलूस निकालने की। जाहिर है कि उमर खालिद के पास इतनी शक्ति नहीं है कि वह ऐसा कर सके अपने बल पर, तो सवाल उठता है कि उमर खालिद के पीछे कौन है? जेएनयू में दो और नारे लगे थे, जिनको सुन कर मुझे पाकिस्तान का हाथ साफ नजर आने लगा, क्योंकि मैंने इन दो नारों को सिर्फ पाकिस्तान में सुना है। बेनजीर भुट््टो ने जब 1988 में अपना पहला चुनाव जीता तो कराची में मैंने सुना था यह नारा। भुट््टो हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं। और बेनजीर भुट््टो की हत्या के बाद लाहौर में सुना था मैंने यह नारा- हर घर से भुट््टो निकलेगा, तुम कितने भुट््टो मारोगे। जेएनयू में भुट््टो को बदल कर अफजल का नाम लिया गया, लेकिन नारे वही थे। कैसे? क्यों? कौन थे वे लोग, जो इन नारों को सीमा पार से लेकर आए थे?
पटियाला हाउस में तमाशे न करते कुछ जरूरत से ज्यादा देशभक्त वकील तो मीडिया में पूछे जाते ऐसे सवाल, लेकिन शायद ऐसा न भी होता, क्योंकि अक्सर हम पत्रकार लोग हमदर्दी रखते हैं वामपंथियों से, जो कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद अपने बिलों से ऐसे निकल कर आए हैं कि जैसे उनकी एक पूरी फौज तैयार हो गई हो। इस देश में अक्सर बुद्धिजीवी और इतिहासकार भी वामपंथी सोच के होते हैं तो इनकी भी फौज निकल कर आई है दिल्ली की सड़कों पर इन दिनों। मोदी के खिलाफ ये लोग 2002 से रहे हैं, लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद और भी ज्यादा।
रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद इनका ध्यान विश्वविद्यालों पर केंद्रित हुआ है। रोहित का बेमौत मरने का इन लोगों नेसारा दोष प्रधानमंत्री और आरएसएस पर लगाया था और अब भी ऐसा हो रहा है। इनकी दुश्मनी इतनी पक्की है कि मोदी को नीचा दिखाने में वे जिहादी ताकतों को भी अनदेखा करने को तैयार हैं। क्या कुछ ऐसा नहीं हुआ है जेएनयू में? न हुआ होता तो कम से कम उन नारों को इतनी आसानी से न भुला दिया जाता, जिनमें स्पष्ट शब्दों में भारत की बर्बादी की बातें कही गई हैं। ऐसा करने से एक बात जो बिलकुल साफ दिखती है मुझे, वह यह कि हम मीडियावाले गलत मुद्दों को अहमियत देकर इस देश के साथ नाइंसाफी कर रहे हैं। पटियाला हाउस में जो हुआ, शर्मनाक था, लेकिन जेएनयू में जो हुआ वह कहीं ज्यादा गंभीर था।