मगर मनुष्य तब तक आराम से नहीं बैठता, जब तक कि वह जहां तक पहुंच चुका है, उससे आगे और उच्चतर स्तर की ओर न बढ़ता रहे। वह सबसे श्रेष्ठ प्राणी इसलिए है, क्योंकि वह सबसे अधिक असंतुष्ट है। आगे बढ़ने की इच्छा और लगनशीलता उसे रास्ते के सारे अवरोध हटाने की प्रेरणा देती है!’ आज मनुष्य प्रकृति के रहस्यों को जानने-समझने के अनवरत प्रयासों के आधार पर विकास और प्रगति के उस वर्तमान स्तर पर पहुंच गया है, जिसमें हर व्यक्ति क्षण मात्र में विश्व में कहीं भी किसी भी अन्य व्यक्ति से संपर्क कर सकता है।
इस समय प्रगति की गति इतनी तेज है कि अगले पांच-दस साल में कैसे-कैसे और परिवर्तन, अविष्कार तथा नवाचार करने में मनुष्य सफल होगा, यह कहना या इसका अनुमान लगाना कठिन है।
विकास और प्रगति की बढ़ती गति से अपेक्षित परिणाम तो यह होना चाहिए था कि प्रत्येक देश में, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, अत्यंत उत्साहजनक वातावरण निर्मित होता, हर घर-परिवार में प्रसन्नता दिखाई देती, विश्व शांति स्थापित हो चुकी होती, युद्ध और हिंसा मिट जानी चाहिए थी! लेकिन न तो ऐसा हो सका है, और न ही होने की संभावना दूर-दूर तक दिखाई पड़ती है।
विश्व में अरब-खरबपतियों की सूची लगातार लंबी होती जा रही है, लेकिन कितने ही देश भुखमरी, बीमारी, गरीबी से आज भी जूझ रहे हैं। ऐसा तब है जब मनुष्य ने वह ज्ञान और आवश्यक कौशल तो बहुत पहले ही प्राप्त कर लिया था, जिसके उचित उपयोग से गरीबी, भुखमरी, बीमारी, कुपोषण आदि से विश्व की सारी जनसंख्या को छुटकारा दिलाया जा सकता है।
मगर यह छुटकारा पाया नहीं जा सका है। वृद्धि हुई, विकास हुआ, प्रगति भी हुई, मगर करोड़ों लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी मानव जाति आज तक नहीं कर सकी है। कारण अनेक हैं, लेकिन शायद सबसे प्रमुख कारण है हिंसा, युद्ध, आतंकवाद जनित असुरक्षा और रक्षा उपकरणों, युद्ध तथा हिंसा का प्रबंधन करने जैसे मदों पर वैश्विक संसाधनों का अनावश्यक दुरुपयोग।
अपेक्षा तो यह थी कि जैसे-जैसे शिक्षा का वैश्वीकरण होगा, समाज में चेतना बढ़ेगी, जानकारी ही नहीं, ज्ञान के साथ बुद्धि और विवेक का स्तर और परिमाण भी बढ़ेगा। विश्व की बौद्धिक संपदा बढ़ेगी, और उस कारण मानवता बढ़ेगी, मानवीय मूल्यों की समझ बढ़ेगी, सभी को मानवीय गरिमा और उससे जुड़ी स्वायत्तता उपलब्ध हो सकेगी।
यही तो प्रजातंत्र का वैश्विक वादा रहा है। लगभग आठ दशक पहले यह स्वीकार्य था कि संवाद से सभी प्रकार की समस्याओं का हल संभव है, इससे जन-धन की हानि रोकी जा सकेगी, युद्ध और हिंसा नियंत्रित किए जा सकेंगे और शिक्षा के विस्तार से जो विद्वत समाज बनेगा वह मनुष्य जाति के वैश्विक भाईचारे के दर्शन और दैनंदिन जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं को आत्मसात कर समादर और सद्भाव की संस्कृति को बढ़ावा देगा, जिसमें हर प्रकार की विविधता का सम्मान किया जाएगा, उसके सौंदर्य को सराहा जाएगा!
लगभग आठ दशक पहले यह तय हो गया था कि साम्राज्यवाद को अब समाप्त होना ही है, और तभी भविष्य में उसके विकल्पों की चर्चा जन-सामान्य के स्तर तक पहुंच चुकी थी। एक तरफ पराधीन रहे शोषित देशों में नई आशाएं जन्म ले रहीं थीं, वहीं दूसरी ओर जिन शोषणकर्ता देशों के वर्चस्व समाप्त हो रहे थे, वे नवस्वतंत्र देशों में अपनी पैठ बनाने के तरीके ईजाद करने में लगे थे।
यह सभी को दिखाई देने लगा था कि प्रत्येक नए स्वतंत्र देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती होगी: विकास की अवधारणा का क्या स्वरूप होगा। इसका निर्धारण और क्रियान्वयन दुरूह लगता था, क्योंकि उनके पास विरासत में मिली अवधारण को बदल कर अपने देश से जुड़ी व्यवस्था निर्मित करने और लागू करने के लिए न भौतिक संसाधन थे, न ही पर्याप्त मानवीय शक्ति और उचित प्रशिक्षित लोग! दूसरी ओर, ‘चतुर’ देश अपने लिए विकास की अवधारणा पहले से ही बनाए बैठे थे।
भारत में प्राथमिक स्तर पर विज्ञान शिक्षा के सुधार के लिए एक परियोजना का गहराई तक अध्ययन करने पर पाया कि जो अनुदान दिया जा रहा था, उसी में दाता-देश विशेषज्ञ भी दे रहा था, अपनी मशीनें भी दे रहा था, पाठ्यक्रम निर्माण में अग्रणी होकर भाग ले रहा था। देश के अनेक वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने इसे अपमानजनक माना, कहा भी, लेकिन वह योजना चलती रही। 1990-91 में जब उसके विस्तार का प्रस्ताव भारत सरकार के समक्ष आया, तब वह बंद की गई।
देश के प्रसिद्ध वैज्ञानिक और शिक्षाविद दौलत सिंह कोठारी विकास की उस देशज अवधारणा की आवश्यकता के पक्षधर थे, जिसमें ज्ञान सर्जन की परंपरागत निरंतरता को बनाए रखा जाय और उसके साथ ही नए ज्ञान को स्वीकार किया जाय, उसका सृजन किया जाय। उन्हीं की अगुआई में 1968 की शिक्षा नीति बनी थी, जिसमें पहली बार यह कहा गया था कि कक्षा दस तक लड़के और लड़कियां आवश्यक रूप से विज्ञान और गणित पढ़ेंगे।
प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा के साथ ही वे गांधी दर्शन के भी गंभीर अध्येता थे। वे बार-बार दोहराते थे कि इस देश के समग्र और समेकित विकास और विश्व शांति में अपेक्षित योगदान के लिए- उपयुक्त अवधारण के निर्माण के चार स्तंभ होने चाहिए: ‘एसटीपीजी’, विज्ञान, तकनीक, उत्पादन और गांधी’! उत्पादन में बढ़ोतरी कर लेना, मनमाने ढंग से उसका मूल्य बढ़ाकर बाजार में उतारना और उसे उपलब्धि बताना वृद्धि हो सकती है, उसे प्रगति नहीं कहा जा सकता है।
भारत को इस सारी प्रक्रिया में नैतिकता का तत्त्व लाना आवश्यक है, क्योंकि इसी के सहारे भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति ने आध्यात्मिकता में अपनी श्रेष्ठता स्थापित की थी। 1909 में ‘हिंद स्वराज’ में गांधी ने भविष्य के चिंताजनक परिवर्तनों का अनुमान लगा लिया था और पश्चिम की सभ्यता की कलई खोली थी। 1922 में उन्होंने सात सामाजिक पापों की सूची प्रकशित की थी, जिसमें ‘नैतिकता-विहीन व्यापार’ और ‘श्रम-विहीन संपत्ति’ भी शामिल थे। जो शिक्षा चरित्र निर्माण न कर सके, उसे भी उन्होंने पाप की श्रेणी में रखा था, ठीक वैसे जैसे सिद्धांतविहीन राजनीति को शामिल किया था।
इसी तरह मनुष्यता-विहीन विज्ञान की विध्वंसक आशंकाओं को उन्होंने बहुत पहले ही अनुमानित कर लिया था। प्रत्येक देश को अपनी विकास की अवधारणा को अपनी संस्कृति की जड़ों, उसकी ज्ञान परंपराओं से जोड़ना होगा। इसकी पहली कड़ी है वह शिक्षा, जो देशज ज्ञान परंपरा से जुड़ी हो, जमीन से जुड़ी हो, और व्यक्तित्व विकास में चरित्र निर्माण को सबसे बड़ा लक्ष्य स्वीकार करती हो। देर से ही सही, भारत उस रास्ते पर चलने का प्रयास कर चुका है। उसके पैर डगमगाएं नहीं, यह शिक्षा में सुझाए गए परिवर्तनों में निहित गांधी तत्त्व की समझ और उसके क्रियान्वयन का परिमाण ही तय करेगा।