शास्त्री कोसलेंद्रदास
वह परिवार और कबीलों से निकल कर समाज और देश के रूप में परिवर्तित हो गया है। मानव जीवन की इस विकास यात्रा में इतिहास की कुछ कथाएं ऐसी हैं, जो उसे शताब्दियों से प्रभावित कर रही है। इनमें एक से एक करुणामय चेहरे हैं, जिनके भीतर जिम्मेदारियों से परिपूर्ण रहस्य हैं। पारंपरिक अध्ययन के अभाव में ये रहस्य ही आगे चलकर मिथकीय अज्ञान की भेंट चढ़ जाते हैं। परंतु तथ्यात्मक इतिहास जो घटनाओं का विस्तार मात्र है, महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्व है उसके भीतर बैठी चेतना का, जो उसे संजीवनी देती है और वह चलता जाता है। उसका यह चलना ही उसे असंख्य लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बनाता है।
महाकवि ग्येटे ने कहा था कि इतिहास का निचोड़ है मिथक और मिथक का निचोड़ है रहस्य बोध। रामायण एक ऐसा मानक रहस्य है, जिसके भीतर संदेह के निवारण के सटीक प्रयोग हैं। यह स्वस्थ धारणा है कि किसी भी देश के शासक को संदेह से परे होना चाहिए। उनमें भी राम, जो मर्यादावतार हैं उन पर संदेह करने से पहले उनके कर्तव्यों को जानना चाहिए। वे जिस उदात्त वंश पर गर्व प्रकट करते हैं वह समाज के लिए मानक है। आज भी लोग प्राण के चले जाने पर भी वचन के नहीं टूटने को लेकर रघुकुल की दुहाई देते हैं। ऐसे में राम अपने और सीता के विषय में कोई संदेह नहीं छोड़ना चाहते, जिससे मानव समाज के लिए प्रेरक रघुकुल की परंपरा पर कोई प्रश्न उठे!
महामुनि वाल्मीकि की घोषणा है कि रामायण राम का नहीं बल्कि पूरी तरह से सीता का चरित यानी उनका जीवन वृत्त या जीवन लीला है। कथन और क्रियाओं में एकरूपता के वाहक राम को प्रत्युत्तर देतीं सीता ने उन्हें जो कहा, उसमें वे राम को उलाहना देती हैं कि कठोर, अनुचित, कर्णकटु और रूखी बातें राम उन्हें क्यों कह रहे हैं। राम के समक्ष सीता अपने उज्ज्वल कुल का बखान करती हैं और कहती हैं कि वे महाराज जनक की पुत्री होने से जानकी कहलाती हैं। वे जन समुदाय के सामने पूरी दृढ़ता से अपनी बात रखती हैं, जो किसी महाकाव्य की नायिका के सर्वथा अनुरूप है। वे राम के कहे वचनों का प्रतिवाद कर उनके संदेह के निवारण के लिए अकाट्य तर्क प्रस्तुत करती हैं।
प्रजा शासक के हरेक आचरण को संदेह से परे देखने की अभ्यासी होती है। इस हिसाब से रामायण से चला आ रहा एक पुरुष, एक नारी का सिद्धांत आज तक भारतीय जन मन में गहरा बैठा हुआ है। राम अपनी पाणिगृहीती पत्नी सीता के प्रति संपूर्ण समर्पित हैं। वे एक पत्नीव्रत के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं, वह भी तब जब कि उनके पिता दशरथ के तीन पत्नियां हैं। दुनिया के किसी साहित्य ने दांपत्य जीवन को लेकर आदर्श महाकाव्य नहीं रचा, जबकि भारतीयों का राष्ट्रीय महाकाव्य ही रामायण है। दुनिया की किसी जाति ने नारी के सतीत्व पर इतना जोर नहीं दिया, जितना हमारे पूर्वजों ने दिया।
लंका विजय के उपरांत राम चाहते हैं कि लंका में एक वर्ष बिता चुकीं सीता को संदेह से सौ फीसद परे होना चाहिए। वे नहीं चाहते कि सीता के लंका निवास पर कभी कोई अंगुली उठाए। इसलिए जितने सवाल कोई आम नागरिक उस समय सीता पर उठा सकता था, उससे कहीं अधिक सवाल अकेले श्रीराम ने ही सीता पर खड़े कर दिए। वह भी पति पत्नी के एकांत में नहीं बल्कि सार्वजनिक स्थान पर जन समुदाय के बीच।
आखिर राम ने ऐसा क्यों किया? जरा सोचिए कि क्या किसी की मजाल थी कि कोई व्यक्ति संसार के सबसे पराक्रमी निशाचर रावण का वध कर देने वाले श्रीराम के समक्ष उनकी भार्या सीता के विषय में लेशमात्र भी संदेह उठा सके? आदिकवि वाल्मीकि इस जगह सजग हैं कि वे महाकाव्य रामायण की नायिका सीता के विषय में इस जनप्रवाद को यहां उपस्थित कर देते हैं। उनकी जागरूकता सीता के लंका से लौटने पर भारी जन समुदाय के बीच राम से मर्मस्पर्शी बातें कहलाती हैं, जिन्हें सुनकर हर कोई आश्चर्यचकित हो जाए। उन्होंने ऐसा कर लोगों के मन में बैठे सीता संबंधित संदेह को श्रीराम से शब्द दिलवाए। प्रश्न है कि रामायण के धीरोदात्त नायक पुरुषोत्तम राम ने ऐसा क्यों किया? इसका समाधान राम स्वयं युद्धकांड के 118वें सर्ग के श्लोक 13 से 21 तक करते हैं।
श्रीराम जानते हैं कि संदेह की हीनता ही संबंध की श्रेष्ठता होती है। पूरी रामायण में वे आरंभ से अंत तक संदेह से परे जाकर संबंधों की स्थापना करते हैं। वे वन जाकर माता कैकेयी के संदेह को दूर करते हैं। भगवान परशुराम के संदेह मिटाते हैं। सुग्रीव और विभीषण को संदेह से रहित करते हैं। राम समझते हैं कि सीता संबंधित संदेह के अंकुर जन समुदाय के भीतर नहीं उगें, इसीलिए वे सीता से ऐसी सारी बातें कह डालते हैं जो कोई भी सामान्य व्यक्ति सोच सकता है।
श्रीराम तो सीता की शुचिता के विषय में पूरी तरह आश्वस्त हैं फिर भी लोक संदेह को दूर करने के लिए वे सीता पर प्रश्न खड़े करते हैं। राम कहते हैं यदि मैं जानकी के विषय में परीक्षा नहीं करता तो लोग यही कहते कि दशरथ का पुत्र राम बड़ा ही मूर्ख है। वे आगे कहते हैं सीता तीनों लोकों में पवित्र हैं। जैसे मनस्वी पुरुष कीर्ति का त्याग नहीं कर सकता, उसी तरह मैं भी सीता को कभी नहीं छोड़ सकता। उत्तररामचरित में भवभूति के राम भी ऐसे ही हैं।श्रीराम सीता के सामने अपने जिस उत्तम कुल की बात करते हुए रावण पर विजय का बखान करते हैं, वे इसीलिए हैं कि राम का कुल मूल्यों की स्थापना और उनकी सुरक्षा के प्रति सतत सजग है। इस कुल के उत्तराधिकारी होने के नाते राम एक साथ दो मोर्चों पर युद्धरत हैं। पहला रघुकुल के स्थापित मूल्यों की पालना और दूसरा है उस कुल की कीर्ति की समृद्धि के लिए खुद पर कठोर बंदिशें लगाकर मर्यादा के सर्वोत्तम प्रतिमान की समाज में प्रतिष्ठा करना।
रामायण महाकाव्य के निर्माण को समझना चाहिए कि उसमें ऐसा क्या है कि वह आज तक मानव मन को निर्मल बनाए रखने में उपयोगी है। राम के विचार ही नहीं बल्कि उन पर उपजे विवाद भी भारतीय जन मन को सम्मोहित करते हैं। उनके आनंदमय चेतन स्वरूप के भावात्मक और बौद्धिक स्वरूप के उद्घाटन के लिए रामायण के अध्ययन में एकाग्र होना जरूरी है। भारतीय साधना शिखर पर स्थित राम और उनके विचार को पहचानने का अर्थ ही भारतीयता के सारे स्तरों के आदर्श रूप को पहचानना है। इसके लिए रामकथा में निहित आर्ष भावना और विचारों का विस्तृत एवं गंभीर विवेचन आवश्यक है।