राकेश चक्र
सभी धर्मों की मूल शिक्षा है – मनुष्य की निरहंकारिता, अर्थात मनुष्य में अहंकार नहीं आए, वह जीवनभर विनम्र रहे, चाहे उसके पास धन दौलत का अंबार हो या वह कितना ही बड़ा पद पाकर प्रतिष्ठावान बन जाए या किसी भी क्षेत्र में सुविख्यात हो जाए। यही है एक श्रेष्ठ मनुष्य की परिभाषा। लेकिन आदिकाल से ही ऐसा होता आया है कि मनुष्य धन, प्रतिष्ठा और पद पाकर अहंकार का लबादा ओढ़कर अपने कर्तव्यों से विलग होकर ऐसे अनीति पूर्ण कार्य करने लगता है कि विनाश उसके मस्तक पर लिख जाता है। उसे फिर अपनी गलतियां भी गलतियां नहीं लगतीं।
वह अपनी अवहेलना भी कभी बर्दाश्त नहीं करता। इसीलिए हम अहंकारी व्यक्ति की कार्यशैली पर पीठ पीछे टिप्पणी कर देते हैं कि अहंकार तो महाप्रतापी रावण का भी नहीं रहा। यही सोलह आना सत्य भी है। आज भी अनेकानेक मनुष्यों को हम देखते हैं कि अहंकार के कारण वे स्वयं ही कब्र खोदकर नष्ट हो रहे हैं. आज तक जितने भी युद्ध, अपराध और हिंसा की घटनाएं हुई हैं या अब भी हो रही हैंष उसके मूल में अहंकार ही तो है। अहंकार ही असुरक्षा, भय, घृणा और गलत धारणाओं को पालता पोसता है।
अहंकार के मूल में जाएं तो यह तथ्य सामने आता है कि अहंकारी मनुष्य की जन्म जन्मांतरों की आदतें उसे बदलने का अवसर प्रदान नहीं करतीं। तब तक बहुत देर हो जाती है और मनुष्य स्वयं ही शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। अहंकार मनुष्य के अंतर्मन पर इस तरह बैठ जाता है कि उसे अस्वीकार करने का साहस मनुष्य नहीं जुटा पाता है। यदि हम अपनी त्रुटियों को स्वीकार कर अपने विवेक को जागृत करें तो अहंकार पर कुछ सीमा तक लगाम लग सकती है कि उचित और अनुचित का ज्ञान।
इसीलिए सदैव हमें अपनी कमियों की समीक्षा करते रहना चाहिए, ताकि हम मनुष्यता को कभी न छोड़ें , अपने कर्तव्यों का पालन निष्ठा भाव से कर मानवीय दृष्टिकोण अपनाते रहें, साथ ही कर्तापन के भाव को मन से त्याग दें। क्योंकि यही अहंकार का उत्पत्तिकर्ता है। जब हम पद, प्रतिष्ठा या धन को ईश्वर का दिया हुआ उपहार मान लेते हैं, तो हमारा अहंकार और अभिमान स्वयं ही नष्ट हो जाता है। हम सच्चे मानव बनकर समाज में कुछ अच्छा कर पाते हैं , जिसके लिए ईश्वर ने धरा पर हमें भेजा था।