दुनियाभर के लोग उन्हें कृष्ण चैतन्य के प्रतिनिधि और दूत के रूप में देखते हैं। श्रील प्रभुपाद ने एक असाधारण लेखक, शिक्षक व संत होने के नाते अपने उपदेशों से कृष्ण भावनामृत को पूरी दुनिया में फैलाया। साल 1896 में 1 सितंबर को कोलकाता के एक कायस्थ बंगाली परिवार में जन्म लेने के बाद उनके माता-पिता ने उनका नाम अभय चरण रखा। नंदोत्सव के दिन जन्म होने के कारण उन्हें ‘नंदलाल’ भी कहा जाता था। उनके पिता गौर मोहन दे और मां रजनी दे वैष्णव थे।
अभय चरण दे की शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबद्ध स्काटिश चर्च कालेज में यूरोपीय शैली में हुई थी। इसके अधिकांश प्राध्यापक यूरोपीय थे। अभय चरण शांत स्वभाव व अनुशासित छात्र के रूप में जाने जाते थे। कालेज में अभय चरण दे अंग्रेजी के साथ संस्कृत की भी पढ़ाई करते थे, जिसके कारण ही उनकी शिक्षा ने उनके भविष्य की नींव तैयार करने में मदद की।
श्रील प्रभुपाद ने साल 1920 में अंग्रेजी, दर्शन और अर्थशास्त्र में स्रातक की उपाधि प्राप्त की थी। गांधीजी के स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी उपाधि को अस्वीकार कर दिया था। जब वे 22 वर्ष के थे, तब उन्होंने राधारानी देवी से माता-पिता के आदेश पर विवाह किया। कलकत्ता में साल 1922 में श्रील प्रभुपाद पहली बार अपने आध्यात्मिक गुरु श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी से मिले। तब वे अभय चरण के नाम से जाने जाते थे।
भक्तिसिद्धांत सरस्वती ने अभय चरण के भीतर विलक्षण प्रतिभा को पहचान लिया और उनसे वैदिक ज्ञान की शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित करने के लिए कहा। विशेष रूप से अंग्रेजी बोलने वाली दुनिया के लोगों के बीच जाकर उन्हें भगवान चैतन्य के संदेश का प्रचार-प्रसार करने का आदेश दिया। साल 1936 में उन्होंने अपने गुरु से दीक्षा ग्रहण पूर्ण किया।
तदोपरांत, श्रील प्रभुपाद ने भगवद्गीता पर टिप्पणी लिखी और गौड़ीय मठ की सहायता की। साल 1944 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान श्रील प्रभुपाद ने ‘बैक टू गाडहेड’ नामक एक पत्रिका शुरू की। यह पत्रिका आज भी छप रही है। साल 1950 में श्रील प्रभुपाद ने वानप्रस्थ जीवन को अपनाया। तीन साल बाद वर्ष 1953 में उन्होंने अपने गुरु भाई से भक्तिवेदांत की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने वृंदावन की यात्रा की, जहां पर वे राधा-दामोदर मंदिर में बहुत लंबे समय तक रहे। उन्होंने यहां कई साल तक रहकर शास्त्रों का अध्ययन और लेखन कार्य किया।
प्रभुपाद का मथुरा और वृंदावन से गहरा संबंध रहा है। वे मथुरा में होलीगेट के बाहर गौड़ीय मठ में रहते थे। गौड़ीय मठ के स्वामी नारायण महाराज उनके समकक्ष व गुरुभाई भी थे, जिसके कारण अक्सर यहां आकर रुकते थे और यहां ग्रंथ लिखने और अध्ययन का कार्य किया करते थे। उन्होंने अकेले ही भागवत पुराण के 17 अध्याय की पहली पुस्तक प्रकाशित की।
इसमें प्रत्येक में चार सौ पृष्ठों के तीन खंड थे, जो एक विस्तृत टिप्पणी से समृद्ध थे। इसके बाद उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेशों को पूरा करने के लिए अपने को तैयार किया और श्रीकृष्ण भावनामृत के संदेश को लेकर अमेरिका जाने का फैसला किया। उस समय वहां हिप्पियों का चलन था। वहां जीवन व्यतीत करने वाले वे सभी लोग जो अपनी जीवन शैली से निराश होकर जीवन तत्व की तलाश में इधर खिंचे चले आए और ‘स्वामीजी को’ अनुसरण करने लगे।
धीरे-धीरे लोग उनके प्रति अधिक गंभीर होते गए। श्रील प्रभुपाद के अनुयायी पार्कों में नियमित रूप से कीर्तनों का आयोजन करने लगे। उस समय वहां के युवा अनुयायियों ने श्रील प्रभुपाद से दीक्षा लेनी प्रारम्भ की, जो वैदिक व वैष्णव सिद्धांतों का पालन करने का वादा करते थे और प्रतिदिन हरे कृष्ण महामंत्र का 16 माला जाप करते थे। जुलाई 1966 में, श्रील प्रभुपाद ने अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ-इस्कान की स्थापना की।
उनका उद्देश्य इस संघ के द्वारा दुनियाभर में कृष्ण भावनामृत को बढ़ावा देना था। 1967 में, उन्होंने सैन फ्रांसिस्को का दौरा किया और वहां इस्कान समाज की शुरुआत की। इसके बाद, उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के संदेश को फैलाने के लिए मांट्रियाल, बोस्टन, लंदन, बर्लिन और उत्तरी अमेरिका, भारत और यूरोप के अन्य शहरों में नए केंद्र खोलने के लिए दुनियाभर में अपने शिष्यों को भेजा।
श्रील प्रभुपाद ने 11 वर्षों के दौरान भारत में लिखित अपनी सभी ग्रंथों को प्रकाशित किया। श्रील प्रभुपाद बहुत कम सोते थे और वे सुबह का समय लिखने में बिताते थे। उन्होंने बोलकर लिखना शुरू किया, जिसे उनके शिष्यों ने टंकण और संपादित किया। श्रील प्रभुपाद मूल श्लोकों का संस्कृत या बांग्ला से शब्दश: अनुवाद और टीका करते थे।
उनकी रचनाओं में भगवद्गीता यथारूप व श्रीमद् भागवत के अनेक खंड, चैतन्य-चरितामृत, श्रीउपदेशामृत, कृष्ण: भगवान, चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएं, कपिलदेव की शिक्षाएं, महारानी कुंती की शिक्षाएं, श्री ईशोपनिषद, श्री उपदेशामृत और अन्य कई छोटी पुस्तकें शामिल हैं। उनके लेखन का 50 से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। साल 1972 में कृष्ण कृपामूर्ति के कार्यों को प्रकाशित करने के लिए भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट स्थापित किया गया। आगे चलकर यह ट्रस्ट वैदिक धर्मग्रंथो और दर्शन के क्षेत्र में दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाशक बन गया। लेखन के व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद भी श्रील प्रभुपाद ने कृष्ण भावनमृत के प्रचार कार्यों को लेखन के कार्यों के बीच में कभी आने नहीं दिया। केवल 12 वर्षों में उन्होंने 14 बार विश्वभर की यात्रा की।
उन्हें एक करिश्माई धार्मिक नेता माना जा सकता है। उनका मिशन दुनियाभर में गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय का प्रचार प्रसार करना था। साल 1977 में 14 नवंबर को 81 वर्ष की उम्र में वृंदावन में उनकी मृत्यु के बाद इस्कान के काम में निरंतर वृद्धि हो रही है। फरवरी 2014 में, इस्कान की समाचार एजंसी ने 1965 से उनकी आधी अरब से अधिक पुस्तकों को वितरित करने के लक्ष्य को पूरा किया है।
एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि यदि आज भगवद गीता की लाखों प्रतियों में भारतीय भाषाओं में छपी हुई मिलती है तो इस महान पवित्र सेवा का श्रेय मुख्यत: इस्कान को जाता है। उन्होंने विश्व में 108 मंदिरों की स्थापना की। दिव्य ग्रंथो के साठ से अधिक खंड लिखे। पांच हजार शिष्यों को दीक्षित किया। भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट की स्थापना की। एक वैज्ञानिक अकादमी भक्तिवेदांत इंस्टीट्यूट शुरू किया और इस्कान से संबंधित अन्य ट्रस्ट भी बनाए।