कहते हैं कि जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की तो उन्होंने पृथ्वीलोक की प्रथम राजधानी कनखल की स्थापना की और पृथ्वी लोक का प्रथम राजा अपने मानस पुत्र प्रजापति दक्ष को बनाया। कनखल में ब्रह्मांड का प्रथम स्वयंभू शिवलिंग दक्षेश्वर महादेव हैं जिसकी स्थापना स्वयं भगवान शंकर ने की थी और ब्रह्मा जी ने कनखल में ही दक्षेश्वर महादेव मंदिर के ठीक सामने ब्रह्मेश्वर शिवलिंग की स्थापना की थी
मान्यता है कि ब्रह्मा जी ब्रह्म मुहूर्त में प्रतिदिन दक्षेश्वर महादेव की पूजा करते हैं और दक्षेश्वर महादेव मंदिर की पूजा करने का पूर्ण फल जब मिलता है जब शिवभक्त पहले ब्रह्मेश्वर शिवलिंग की पूजा करते हैं। उसके बाद दक्षेश्वर महादेव की पूजा अर्चना करते हैं इस तरह दक्षेश्वर महादेव मंदिर में ब्रह्मा जी स्वयं साक्षात रुप से भगवान शंकर की उपासना में सदैव लीन रहते हैं। कहते हैं कि ब्रह्म मुहूर्त में जो श्रद्धालु दक्षेश्वर महादेव मंदिर में पूजा अर्चना में शामिल होते हैं उन्हें ब्रह्मलोक और शिवलोक दोनों का फल प्राप्त होता है।
पौराणिक मान्यता है कि भगवान शंकर के ससुर और उनकी पत्नी सती के पिता प्रजापति राजा दक्ष ने कनखल तीर्थ नगरी में एक बहुत बड़ा यज्ञ का आयोजन किया था जिसमें उन्होंने ब्रह्म, विष्णु सहित सभी देवी देवता और सभी ऋषि-मुनियों को आमंत्रित किया था। परंतु उन्होंने अपने दामाद और अपनी पुत्री सती के पति भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया सती को जब अपने मायके कनखल में अपने पिता प्रजापति राजा दक्ष द्वारा यज्ञ के आयोजन का समाचार मिला तो वह भगवान शंकर से यज्ञ में भाग लेने की जिद करने लगीं।
परंतु भगवान शंकर ने उन्हें वहां जाने से मना कर दिया। सती की जिद को देख कर भगवान शंकर सती के साथ कैलाश पर्वत हिमालय से कनखल प्रस्थान कर गए परंतु वे कनखल जाने की बजाय चंडी देवी पर्वत माला में ही रुक गए और वहां से उन्होंने अपने गणों के साथ सती को कनखल में यज्ञ स्थल पर भेज दिया। जब सती अपने मायके कनखल में यज्ञ स्थल पर पहुंची तो उन्होंने वहां पर अपने पति भगवान शंकर का आसन नहीं पाया जिस पर उन्होंने अपने पिता प्रजापति राजा दक्ष से अपने पति भगवान शंकर का आसन रखने की बात कहीं।
इस पर राजा दक्ष ने उनके पति भोलेनाथ के बारे में अपशब्दों का इस्तेमाल किया और उन्हें आमंत्रित ना करने की बात कही। अपने मायके में पति भगवान शंकर का अपमान होते देख सती क्रोधित हो गर्इं और उन्होंने पिता की बातों का प्रतिकार किया और वे यज्ञ कुंड में कूद गर्इं। उन्होंने योगाग्नि से अपने शरीर को जला दिया। अपने प्राण त्याग दिए जिससे यज्ञ स्थल में हाहाकार मच गया। राजा दक्ष का यज्ञ विध्वंस हो गया।
जब सती के निधन का समाचार चंडी पर्वत पर ठहरे भगवान शंकर को पता चला तो उन्होंने क्रोधित होकर अपनी जटाओं से वीरभद्र नामक गण की उत्पत्ति की। वीरभद्र को कनखल में यज्ञ स्थल पर भेजा। यज्ञ कुंड में माता सती की पार्थिव देह देख कर वीरभद्र अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने यज्ञ स्थल पर खड़े भृगु ऋषि का अपमान किया। उसके बाद वीरभद्र ने प्रतिशोध में राजा दक्ष की गर्दन काट कर यज्ञ कुंड में डाल दी।
इससे राजा दक्ष का सिर जलकर भस्म हो गया। इस घटना से पूरा यज्ञ स्थल हाहाकार और विलाप में बदल गया। सभी देवी-देवताओं ऋषि-मुनियों और राजा दक्ष की पत्नी ने भगवान शंकर की स्तुति की। आशुतोष भगवान शंकर यज्ञ स्थल पर प्रकट हुए। सभी देवी देवताओं और राजा दक्ष की पत्नी ने राजा दक्ष को जीवन दान देने की कामना की।
भगवान शंकर ने राजा दक्ष की गर्दन की जगह पर बकरे का सिर लगाया और उन्हें जीवनदान दिया। राजा दक्ष ने भगवान शंकर से अपने किए पर क्षमा मांगी और उनसे कनखल में ही निवास करने की प्रार्थना की। तब भगवान शंकर ने स्वयंभू शिवलिंग प्रकट किया और उसका नाम दक्षेश्वर महादेव रखा। भगवान शंकर की यह दशा देखकर और उन्हें इस दशा से मुक्त कराने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती की पार्थिव देह के 52 टुकड़े किए जो पृथ्वी में जिस जिस स्थान पर गिरे वहां पर शक्तिपीठों की स्थापना हुई। इस तरह भारत में 50 तथा पाकिस्तान और नेपाल में एक शक्ति पीठ स्थापित है।
श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा के सचिव और श्री दक्षेश्वर महादेव मंदिर के प्रबंधक संचालक महंत रविंद्रपुरी महाराज कहते हैं कि पृथ्वी लोक में शक्तिपीठों की स्थापना के बाद ब्रह्मलोक से ब्रह्मा जी कनखल पहुंचे और उन्होंने अपने मानस पुत्र प्रजापति राजा दक्ष और उनकी पत्नी को सांत्वना प्रदान की।क