आजकल ज्यादातर शादियों में पैसा खर्च करने की कोई सीमा नहीं रह गई है। किसी भी तरह के इंतजाम में कोई कमी नहीं होती है। सम्पूर्ण कार्यक्रम सुव्यवस्थित होता है। ऐसे-ऐसे व्यंजन परोसे जाते हैं जो अत्यधिक स्वादिष्ट होते हैं। शादियों में आए ज्यादातर मेहमान यही महसूस करते हैं कि ऐसी शादी पहले नहीं देखी लेकिन कुछ ऐसे भी मेहमान होते हैं जो ऐसी शादियों में कमी निकाल ही लेते हैं। किसी को व्यंजनों का स्वाद पसंद नहीं आता तो किसी को शादी की रस्म और इंतजाम परम्परा के अनुरूप नहीं लगते।
सवाल उठता है कि लोग आलोचना और निंदा को इतना जरूरी क्यों बना देते हैं? गलत काम, खराब इंतजाम या गलत इनसान की निंदा तो समझ में आती है लेकिन सही इनसान या सही काम या सही इंतजाम भी की निंदा करने का हक आखिर उन्हें कौन दे देता है ? दरअसल हमारे व्यवहार में निंदा करने की प्रवृत्ति इस तरह समा गई है, जैसे दाल में नमक समा जाता है। नमक के बिना दाल फीकी लगती है। निंदा न करने से हमें जिंदगी भी फीकी लगनी लगती है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि निंदा, नमक नहीं है।
थोड़ा नमक दाल के लिए जरूरी है लेकिन निंदा जिंदगी के लिए जरूरी नहीं है। हम अपनी जिंदगी का फीकापन दूर करने के लिए निंदा रूपी नमक का चुनाव करते हैं जबकि सकारात्मक दृष्टिकोण एवं अन्य मानवीय गुणों के माध्यम से हमारी जिंदगी का फीकापन दूर हो सकता है। निंदा करने की प्रवृत्ति यह संकेत करती है कि हम अपने जीवन में सहज रहने की कोशिश नहीं करते हैं। अगर हम सहज रहेंगे तो निंदा करने की प्रवृत्ति स्वयं दूर हो जाएगी।
दरअसल हम अपने सुख का भरपूर आनंद नहीं ले पाते हैं और दूसरे के सुख से दुखी हो जाते हैं। यह प्रवृत्ति ही दूसरों की निंदा करने का आधार बनती है। हम अपनी संतुष्टि के लिए दूसरों की निंदा करते हैं। हम ऐसा महसूस करते हंै कि निंदा करने से हमें संतुष्टि मिल रही है लेकिन ऐसा होता नहीं है। तात्कालिक या क्षणिक रूप से हम जरूर संतुष्ट हो सकते हैं। लेकिन यह क्षणिक संतुष्टि अन्तत: हमें असंतुष्ट ही करती है।
कई बार हम निंदा को सुरक्षा कवच की तरह इस्तेमाल करते हैं। दरअसल हम न चाहते हुए भी किसी दूसरे व्यक्ति से अपनी तुलना करने लगते हैं। इस तुलना का स्वरूप कुछ भी हो सकता है। कोई कार्यक्रम, व्यक्तिगत हैसियत, मकान, सामाजिक प्रतिष्ठा, व्यक्तिगत संबंध या फिर किसी व्यक्तिगत बात के आधार पर हम अनावश्यक रूप से तुलना करने लगते हैं। यह तुलना इसलिए अनावश्यक होती है कि हर व्यक्ति की परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं। इसलिए किसी एक स्तर पर यह तुलना नहीं की जा सकती। जब हम इस तुलना में स्वयं को कमतर पाते हैं या कमतर भी नहीं, दूसरों को स्वयं से बहुत आगे पाते हैं तो हमारे पास निंदा ही एक हथियार बचता है। यह हथियार अन्तत: हमारी ही जड़े काटने का कार्य करता है।
दूसरे की निंदा कर हम स्वयं को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि दूसरा इनसान किसी भी रूप में जो तरक्की कर रहा है या उसके जो अच्छे गुण हैं, वह कोई बड़ी बात नहीं है। अगर हमें इस तरह का मौका मिला होता तो हम भी इस तरह के काम कर सकते थे। या फिर हमारे अंदर तो उससे भी ज्यादा गुण हैं। दूसरे से चिढ़कर जब हम उसे कमतर सिद्ध करने की कोशिश करते हैं तो हमारे अंदर निंदा की प्रवृत्ति स्वयं पैदा हो जाती है। यह प्रवृत्ति हमारे संबंधों में मन-मुटाव भी पैदा कर देती है। इसलिए अगर हम चाहते हैं कि हमारे व्यक्तिगत संबंध ठीक रहें तो हमें अनावश्यक रूप से निंदा करने की प्रवृत्ति से बचना होगा।