पूनम नेगी
सनातन हिंदू संस्कृति में नवरात्र साधना की संकल्पना बहुत सोच विचार कर की गई है। ऋतु परिवर्तन के बोधक चैत्र व आश्विन के महीने हमारी दो मुख्य फसलों रबी व खरीफ की पैदावार के होते हैं। नई कृषि उपज के हवन के द्वारा मां शक्ति की साधना-आराधना का विधान हमारे तत्त्वदर्शी मनीषियों की अनुपम जीवन दृष्टि का परिचायक है।
दैवीय शक्ति को पहचान कर तत्त्वदर्शन को आत्मसात करना उद्देश्य
नवरात्र के नौ दिनों में मां दुर्गा के नौ रूपों को जानना और हर नाम से जुड़ी दैवीय शक्ति को पहचान कर उसके तत्त्वदर्शन को आत्मसात करना ही इस देवपर्व का मूल उद्देश्य है। श्रीमद्देवीभागवतद महापुराण में मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की अत्यंत प्रेरक व्याख्या की गई है। मां शक्ति के पहले ईश्वरीय स्वरूप का नाम ‘शैलपुत्री’ है। इनका प्रमुख गुण है शैल यानी पत्थर के समान सुदृढ़ता। शास्त्रों में शैलपुत्री का पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप उल्लेख मिलता है। मां का यह स्वरूप जीवन साधना के पथ पर किसी भी विघ्न बाधा से विचलित हुए बिना शैल के समान अडिग रहने की सीख देता है।
ब्रह्मचर्य से परिपूर्ण सात्विक शक्ति का पर्याय मानी जाती हैं मां ब्रह्मचारिणी
आदि शक्ति दुर्गा का दूसरा स्वरूप है- ‘ब्रह्मचारिणी’। मां ब्रह्मचारिणी ब्रह्मचर्य से परिपूर्ण सात्विक शक्ति का पर्याय मानी जाती हैं। ब्रह्म अर्थात् सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व अंतहीन। ब्रह्म के इसी स्वरूप में सतत विचरण करने वाली दिव्य शक्ति का नाम है ब्रह्मचारिणी। मां का तीसरा ‘चंद्रघंटा’ स्वरूप चंद्रमा के समान मानसिक शीतलता का द्योतक है। मां चंद्रघंटा साधक को मानसिक सुदृढ़ता प्रदान करने वाली कारक शक्ति मानी जाती हैं। कारण कि चंद्रमा हमारे मन का प्रतीक है जो सामान्य तौर पर चंचल व चलायमान होता है।
मां चंद्रघंटा की कृपा से मन एकाग्र होता है और साधक को नकारात्मक विचारों से छुटकारा मिलता है। मां के चौथे ईश्वरीय स्वरूप को ‘कूष्माण्डा’ की संज्ञा दी गई है। वैदिक साहित्य में ‘कूष्माण्डा’ का शाब्दिक अर्थ गोलाकार कद्दू बताते हुए कहा गया है कि यह फल हमारी प्राणशक्ति, बुद्धिमत्ता और शक्ति को बढ़ाता है और प्राणों में तेज का संचार करता है।
इसीलिए पूर्वकाल में केवल ब्राह्मण, महाज्ञानी ही कद्दू का सेवन करते थे। कहा जाता है कि मां सीता को अत्यंत प्रिय होने के कारण इसे ‘सीताफल’ व ‘गंगाफल’ के नाम से भी जाना जाने लगा। तत्वदर्शी मनीषियों के ‘कू’ ‘ष्’ ‘अंडा’= कूष्माण्डा। ‘कू’ अर्थ है छोटा, ‘ष्’ का अर्थ है ऊर्जा और ‘अंडा’ से आशय है ब्रह्मांडीय गोला। इस तरह कूष्माण्डा का अर्थ हुआ संपूर्ण ब्रह्मांड में ऊर्जा का संचार करने वाला छोटा सा गोला। जीवन के मूल तत्व का बोध कराती हैं मां कूष्माण्डा।
मां का पांचवां स्वरूप ‘स्कंदमाता’ को भगवान कार्तिकेय (स्कंद) की माता के नाम से जाना जाता है जो ज्ञानशक्ति और कर्मशक्ति के समन्वय की सूचक हैं। ज्ञान और क्रिया के स्रोत की प्रतीक स्कंदमाता वे दैवीय शक्ति मानी जाती हैं जो व्यावहारिक ज्ञान को सामने लाती हैं और उस ज्ञान को कर्म में बदलती हैं।
मां का छठा ‘कात्यायनी’ स्वरूप उस सात्विक क्रोध का प्रतीक है जो सृष्टि में सृजनता, सत्य और धर्म की स्थापना करता है। मां कात्यायनी का दिव्य रूप सूक्ष्म जगत में नकारात्मकता का विनाश कर धर्म की स्थापना करता है। तभी तो ऐसा कहा गया है कि ज्ञानी का क्रोध भी हितकर और उपयोगी होता है जबकि अज्ञानी का प्रेम भी हानिप्रद हो सकता है। इस दृष्टि से मां कात्यायनी क्रोध का वह रूप है, जो सब प्रकार की नकारात्मकता को समाप्त कर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है।
मां शक्ति का सातवां ‘कालरात्रि’ स्वरूप का अति भयावह व उग्र है किंतु तब भी यह रूप मातृत्व को भी समर्पित है। देवी मां का यह रूप ज्ञान और वैराग्य प्रदान करता है। देवी मां का आठवां ‘महागौरी’ स्वरूप दिव्य सौंदर्य का उच्चतम प्रतिमान है। एक ओर मां कालरात्रि अति भयावह, प्रलय के समान हैं और दूसरी ओर पूर्ण करुणामयी देदीप्यमान मां महागौरी सबको आशीर्वाद देने वाली। देवी महागौरी भौतिक जगत में प्रगति के लिए आशीर्वाद देती हैं ताकि आप संतुष्ट होकर अपने जीवनपथ पर आगे बढ़ें।
देवी मां का नौवां व अंतिम ‘सिद्धिदात्री’ स्वरूप हमें जीवन में अद्भुत सिद्धि, क्षमता प्रदान करता है ताकि हम सब कुछ पूर्णता के साथ कर सकें। सिद्धिदात्री का अर्थ है आपके विचारमात्र से ही आपकी इच्छा का पूर्ण हो जाना। यही सिद्धि हमें जीवन के हर स्तर में संपूर्णता प्रदान करती है।
नवरात्र अनूठे साधनाकाल की महत्ता की व्याख्या करते हुए गायत्री महाविद्या के महामनीषी पं. श्रीराम शर्मा आचार्य अपने लोकप्रिय ग्रन्थ ‘गायत्री महाविज्ञान’ में लिखते हैं कि वैदिक मनीषी मानवी चेतना के मर्मज्ञ ही नहीं दैहिक और पर्यावरणीय विज्ञान के भी पारंगत विद्वान थे।
उन्होंने अपने सुदीर्घ साधनापरक शोधों के आधार पर यह तथ्य प्रतिपादित किया था कि ऋतुओं के संधिकाल की इस विशिष्ट बेला में सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह मानवीय चेतना को गहराई से प्रभावित करते हैं। जैसे कोई शिशु अपनी मां के गर्भ में नौ महीने रहकर एक पूर्ण जीव के रूप में दुनिया में जन्म लेता है। वैसे ही नवरात्र काल की नौ दिवसीय साधना साधक को नवजीवन देती है।
मानव की चेतना के अंदर सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण ये तीनों प्रकार के गुण व्याप्त रहते हैं। नवरात्र साधना साधक के मन, वाणी और कर्म तीनों में शुद्धता लाती है। फलस्वरूप अंतस से काम, क्रोध, मद, मत्सर, लोभ आदि राक्षसी प्रवृतियों का शमन होता है और शरीर के साथ मन और आत्मा का भी हो शोधन जाता है। इसीलिए नवरात्र के नौ दिनों में आंतरिक दृढ़ता के साथ संकल्पपूर्वक की गई मां शक्ति की छोटी सी भावपूर्ण उपासना से चमत्कारी नतीजे हासिल किए जा सकते हैं।
सनातन हिंदू दर्शन की मान्यता है कि जिस तरह यह संपूर्ण विश्व ब्रह्मांड सत-रज और तम इन तीन मौलिक गुणों से बना है, ठीक उसी तरह हमारी मानव देह भी इन तीनों मौलिक गुणों का सम्मिश्रण होती है। नवरात्र काल की नौ दिवसीय साधना मानवी काया में मौजूद इन तीनों गुणों में संतुलन साधकर साधक को एक अलौकिक आनंद की अनुभूति कराती है।