हाल के कुछ दिनों में उत्तर प्रदेश की सियासत में माहौल ठंडा नजर आ रहा। बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद से तो यूपी में जैसे विपक्षी दलों के हौसले पस्त हो गए हैं। बिहार चुनाव परिणाम के बाद से ही यूपी के प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के अंदर ही अंदर कुछ पक रहा है।

सपा और कांग्रेस के बीच का आपसी तालमेल बिहार चुनाव के नतीजों के बाद बदला-बदला नजर आ रहा। बिहार में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के बाद समाजवादी पार्टी में एक मजबूत धड़ा चाहता है कि 2027 के चुनाव के लिए अखिलेश यादव कांग्रेस से अलग होकर चुनाव लड़े।

यूपी में सपा क्यों परेशान?

कांग्रेस से गठबंधन बना गले की हड्डी – उत्तर प्रदेश में सपा के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन एक रणनीतिक दुविधा है। यह दुविधा 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले से है। अखिलेश यादव पर एक ओर, विपक्षी एकजुटता बनाए रखने का दबाव है। सपा को यह आशंका है कि कांग्रेस के अलग लड़ने से मुस्लिम मत बटेंगे और इसका सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा या फिर मुस्लिम मत बसपा के साथ जा सकते हैं।

बिहार में ओवैसी की पार्टी ने कुछ सीटों पर बसपा उम्मीदवारों को समर्थन दिया। कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर अखिलेश यादव की दुविधा यह है कि कांग्रेस यूपी में विधानसभा चुनाव के लिए करीब 100 से ज्यादा सीटें मांग रही। कांग्रेस के पास यूपी में कोई वोटबैंक नहीं जिसका फायदा सपा को मिले। सपा के लिए यह स्वीकार्य नहीं। लेकिन सपा के लिए मुश्किल यह है कि अलग होने पर कांग्रेस भले कुछ अच्छा न कर पाए लेकिन कई सीटों पर अखिलेश का समीकरण बिगाड़ सकती है।

मुस्लिम मतों की अनिश्चितता – कांग्रेस को लेकर सपा की सबसे बड़ी वजह मुस्लिम मत हैं। सपा, पारंपरिक रूप से यूपी के मुस्लिम मतों पर निर्भर रही है, जो कांग्रेस से टूटकर उसके पास पहुंचा। कांग्रेस भी अब अपने इसी वोटबैंक को वापस पाने की जद्दोजहद में है। कांग्रेस ने पश्चिम यूपी में इमरान मसूद और पूर्वी यूपी में इमरान प्रतापगढ़ी जैसे बड़े चेहरों को आगे किया है। और भी बड़े मुस्लिम चेहरों को बड़ी जिम्मेदारियाँ दी गई हैं।

मुस्लिम राजनीति के मुद्दों पर सपा की तुलना में कांग्रेस हाल के दिनों में ज्यादा मुखर नजर आई है। वह चाहे नागरिकता कानून वगैरह का विरोध रहा हो या सपा के वरिष्ठ नेता आजम खान के जेल जाने का मुद्दा। आजम खान के मुद्दे पर रणनीतिक रूप से कांग्रेस का सपा से अधिक मुखर होना, सपा की मुस्लिम नेतृत्व वाली छवि को चुनौती दे रहा है।

बसपा-ओवैसी गठजोड़ का खतरा– मायावती और ओवैसी के बीच सहयोग की संभावना सपा के लिए चिंता का विषय है। हालांकि चर्चाएं कितना सही और गलत हैं यह देखने वाली बात है। लेकिन बिहार में ऐसा सहयोग दिखा। अगर ऐसा होता है तो दलित-मुस्लिम वोटों का एकजुट होकर बसपा की ओर जाना संभव है, जो सपा की सामाजिक समीकरण वाली पीडीए राजनीति के लिए बहुत बड़ा झटका साबित होगा।

अखिलेश यादव की नेतृत्व चुनौतियां– अखिलेश यादव फैसला नहीं ले पा रहे हैं कि कांग्रेस के साथ रहें या अलग हों। पार्टी के भीतर एक मजबूत धड़ा गठबंधन तोड़ने के पक्ष में है। एक धड़ा, जिसमें मुस्लिम मुद्दों की राजनीति करने वाले हैं वे चाहते हैं कि सपा कांग्रेस का गठबंधन बना रहे।

सपा में ठीक यही विरोधाभास हिन्दुत्व की राजनीति के मुद्दे पर भी है। एक धड़ा चाहता है कि सपा सॉफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति करे। अखिलेश का पूजा पाठ करना, मंदिर आदि बनवाना- इसी प्रक्रिया के तहत नजर आ रहा। जबकि एक दूसरा धड़ा चाहता है कि सपा को हिन्दुत्व की राजनीति का तीखा विरोध करना चाहिए ताकि उसका मुस्लिम यादव समीकरण जमीन पर मजबूत बना रहे।

अभी कुछ रिपोर्ट्स आई थीं जिसमें कहा गया कि अखिलेश यादव ने अपने नेताओं को मायावती पर आक्रामक टिप्पणियाँ करने से रोक रखा है। आजम खान जैसे नेताओं के बयानों से भी पता चलता है कि अखिलेश यादव विवश हैं। इन चीजों का मतलब साफ है कि अखिलेश यादव फैसला नहीं ले पा रहे और असमंजश का शिकार हैं।

अखिलेश के सामने इधर कुआं, उधर खाई वाले हालात

कुल मिलाकर सपा और अखिलेश यादव एक ऐसी स्थिति में फंसे नजर आ रहे हैं जहां वह न तो कांग्रेस के साथ पूरी तरह तालमेल बिठा पा रहे, और न ही अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम उठाते नजर आ रहे। उलटे मुस्लिम और दलित बहुल सीटों पर बसपा-ओवैसी की चुनौती भी गंभीर है।

यह साफ नजर आ रहा कि यूपी में कांग्रेस सपा को मुस्लिम मतों के विभाजन के डर से दबाव बनाकर अधिक सीटें हासिल करना चाहती है। वह यूपी में अपनी पुनरुत्थान की रणनीति के तहत सपा को कमजोर करने का प्रयास कर रही है। 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा मिला और कांग्रेस की सीटें बढ़ गईं।

उत्तर प्रदेश बीजेपी भी उत्साहित

बिहार चुनाव नतीजों के बाद यूपी बीजेपी के नेता भी उत्साहित नजर आ रहे हैं। बीजेपी के प्रवक्ता आलोक वर्मा कहते हैं कि बिहार के नतीजों ने धुंधलका हटा दिया है। वहां के चुनावी समीकरण कमोबेश वैसे ही थे, जैसे अखिलेश यादव यूपी में बना रहे हैं। नतीजे गवाह हैं कि सक्षम चेहरे और विकास के हकीकी काम हर समीकरण को बिगाड़ देते हैं। हम बेशक 2027 के लिए उत्साहित हैं।