राजपाट: कलह अनंत
लोकसभा में सूबे की सभी दस सीटों पर अपना परचम फहराने से भाजपा जहां बम-बम है वहीं तमाम विरोधी दल अंदरूनी कलह से ही नहीं उबर पा रहे।

कांग्रेस अब पूरी तरह भगवान भरोसे है। इस साल होने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव के लिए भी पार्टी की कोई तैयारी नजर नहीं आ रही। अलबत्ता टोटे में भी कांग्रेसी आपसी कलह में ही उलझे हैं। जहां पार्टी सत्ता में है वहां भी गुटबाजी बरकरार है। मध्यप्रदेश और राजस्थान की मिसाल सामने है। महाराष्ट्र में भी पार्टी छोड़ने वालों की कमी नहीं। पर सबसे दयनीय हालत तो राजधानी से लगे हरियाणा में है इस पार्टी की। लोकसभा में सूबे की सभी दस सीटों पर अपना परचम फहराने से भाजपा जहां बम-बम है वहीं तमाम विरोधी दल अंदरूनी कलह से ही नहीं उबर पा रहे।
पिछली दफा भाजपा ने अपने बूते चुनाव लड़ नब्बे में से 47 सीटें जीत कर नया इतिहास रचा था। इस बार आलाकमान ने 75 पार का नारा दिया है। लेकिन कांग्रेसी इसके बावजूद दिवास्वप्न देख रहे हैं। मनोहर लाल खट्टर की सरकार की कमियों के खिलाफ पांच साल में कांग्रेस एक भी बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर पाई। अलबत्ता भूपेंद्र सिंह हुड्डा अपने ही पार्टी सूबेदार अशोक तंवर की पांच साल तक टांग खींचते रहे। खट्टर से भिड़ने की तो सोची भी नहीं। बस अपने ही सहयोगी दलित नेता के खिलाफ बगावत पर आमादा हो गए। आलाकमान ने भी बीच का रास्ता निकाल कर फिलहाल लाज बचाई। सूबेदारी की हुड्डा की हसरत तो पूरी नहीं की पर उनके दबाव में तंवर को जरूर हटा दिया। हां, जातीय समीकरणों के मोह को फिर भी नहीं छोड़ा।
दलित तंवर की जगह दलित शैलजा को बना दिया नया सूबेदार। इसी तरह विधायक दल का नेतृत्व जाट किरण चौधरी की जगह जाट भूपेंद्र सिंह हुड्डा को सौंप दिया। बेचारे तंवर और किरण चौधरी खुड्डे लाइन लग गए। उनका क्या होगा, इस सवाल को पार्टी के प्रभारी महासचिव गुलाम नबी आजाद ने टाल दिया। उधर पत्नी के निधन पर अपने बिखरे कुनबे की एकता का ख्वाब संजोने वाले ओम प्रकाश चौटाला को भी निराशा ही हाथ लगी है। इनेलोद तो बिखरा हुआ है। बसपा और आम आदमी पार्टी का वजूद नहीं। ऐसे में खट्टर क्यों न सपना देखें दोबारा सिंहासन का।
(प्रस्तुति : अनिल बंसल)