ल्लिकार्जुन खड़गे का ताज कांटों भरा है। गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में तो उनके नेतृत्व की पहली परीक्षा होगी ही, असली हुनर तो उन्हें राजस्थान में दिखाना होगा, जहां सत्तारूढ़ होने के बावजूद पार्टी अशोक गहलोत और सचिन पायलट की भयंकर गुटबाजी से जूझ रही है। खड़गे को सूबे का प्रभारी तय करने के लिए भी मशक्कत करनी होगी। अजय माकन ने 25 सितंबर की अप्रिय घटना के बाद प्रभारी पद से इस्तीफा दे दिया था। गहलोत समर्थक महेश जोशी, शांति धारीवाल और धर्मेंद्र राठौड़ ने उन पर सचिन पायलट को फायदा पहुंचाने और अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री पद से हटाने की साजिश तक का आरोप लगाया था। तीनों को पार्टी ने कारण बताओ नोटिस भी जारी किया था, जिसका वे जवाब भी दे चुके हैं।
अनुशासन समिति के मुखिया तारिक अनवर की रिपोर्ट भी खड़गे को मिल चुकी होगी। खड़गे खुद भी माकन के साथ जयपुर गए थे। तब तो धारीवाल, जोशी और राठौड़ ने उनसे मिलने तक से इनकार कर दिया था। हालांकि अध्यक्ष बनने के बाद तीनों बधाई देने दिल्ली तक पहुंच गए। खड़गे को अगर गहलोत की नाराजगी का डर सताएगा तो सचिन पायलट को दिए गए राहुल गांधी के आश्वासनों के झूठे साबित होने की चिंता भी। चर्चा है कि शैलजा और अंबिका सोनी जैसे गांधी परिवार के वफादार को ही बनाएंगे राजस्थान कांग्रेस का प्रभारी खड़गे।
परंपरा के बहाने
महाराष्ट्र में शिवसेना के दोनों धड़ों के बीच एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला लगातार जारी है। चुनाव आयोग के चुनाव चिह्न को जब्त करने और दोनों धड़ों को नया चुनाव चिह्न आबंटित करने के फैसले के बाद असली शिवसेना कौन सी है, यह विवाद थम गया है। अलबत्ता उद्धव ठाकरे ने दशहरे की परंपरागत रैली के जरिए यह संदेश देने की कोशिश जरूर की कि एकनाथ शिंदे ने उन्हें धोखा दिया है। सूबे की जनता उन्हें इसकी सजा देगी। विधायकों की संख्या बेशक उनके साथ ज्यादा है पर बाला साहब ठाकरे के प्रति निष्ठा भाव रखने वाली महाराष्ट्र की जनता उनके साथ है। ताजा मामला उद्धव ठाकरे गुट के मुखपत्र सामना में छपे लेख से गरमाया है।
लेख में आशंका जताई गई है कि शिंदे गुट के 40 में से 22 विधायक मुख्यमंत्री से नाखुश हैं। वे किसी भी समय भाजपा में शामिल हो जाएंगे। शिंदे तो भाजपा के मोहरे ठहरे। पद भले फडणवीस का उपमुख्यमंत्री हो पर सरकार के सारे फैसले वे ही लेते हैं। शिंदे की गत जल्द ही घर के रहे न घाट के जैसी हो जाएगी। इससे पहले अंधेरी ईस्ट विधानसभा सीट के उपचुनाव में ठाकरे गुट की उम्मीदवार रुतुजा लटके की निर्विरोध जीत को भले भाजपा अपनी रणनीति का हिस्सा बताए पर हकीकत दूसरी है।
इस सीट का उपचुनाव रमेश लटके के निधन के कारण हुआ। रमेश लटके उद्धव समर्थक थे। उद्धव ने उपचुनाव में उनकी पत्नी रुतुजा को उम्मीदवार बनाया तो भाजपा ने मुर्जी पटेल को। रुतुजा मुंबई नगर पालिका में क्लर्क थी। राज्य सरकार ने उनका इस्तीफा मंजूर नहीं किया। भाजपा को भरोसा था कि चुनाव आयोग रुतुजा का नामांकन खारिज कर देगा। पर रुतुजा हाईकोर्ट चली गई। हाई कोर्ट ने उनका इस्तीफा स्वीकार करने का निर्देश दिया तो भाजपा-शिंदे गुट की चिंता बढ़ गई। भाजपा उम्मीदवार गुजराती था जबकि रुतुजा मराठी।
इस सीट पर गुजराती मतदाताओं की तुलना में मराठी कई गुना ज्यादा हैं। उत्तर भारतीय भी मराठियों का ही साथ देते हैं। हार सामने देख भाजपा ने अपने उम्मीदवार को मैदान से हटा दिया। बहाना बनाया राज ठाकरे, शरद पवार और शिंदे गुट के विधायक प्रताप सरनाईक की अपील को कि दिवंगत विधायक के परिवार का मैदान में हो तो उसके मुकाबले उम्मीदवार खड़ा नहीं किया जाए।
विरोध वाणी
भाजपा के पीलीभीत के सांसद वरुण गांधी भी देर सवेर मेघालय के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक की राह पर चल सकते हैं। वैसे 2019 से ही वे पार्टी में घुटन महसूस कर रहे हैं जब उनकी मां मेनका गांधी को केंद्रीय मंत्रिपरिषद में जगह नहीं मिल पाई थी। वरुण गांधी इस समय पीलीभीत से और मेनका सुल्तानपुर से सांसद हैं। मेनका ने पार्टी या सरकार की कभी खुलकर आलोचना नहीं की। पर, वरुण गांधी के तौर तरीके सत्तारूढ़ दल के सांसद से ज्यादा विपक्षी नेता के लगते हैं। उन्हें यह आभास तो हो ही चुका है कि नई भाजपा में उनके लिए ज्यादा अवसर उपलब्ध होने वाले नहीं हैं। तभी तो खुलकर भड़ास निकालते हैं।
मुलायम सिंह यादव के निधन पर सैफई में वे न केवल अपनी मां के साथ श्रद्धांजलि देने पहुंचे बल्कि अखिलेश यादव से देर तक गले भी मिले। दोनों इस अवसर पर भावुक दिखे। इससे पहले किसानों के आंदोलन का भी उन्होंने न केवल समर्थन किया था बल्कि संसद में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के कानून वाला निजी विधेयक भी पेश किया था। स्वतंत्रता दिवस पर सरकार के हर घर तिरंगा अभियान के तहत तिरंगा खरीदने पर ही राशन मिलने वाली सरकारी शर्त की भी उन्होंने मुखर आलोचना की थी। इन दिनों विभिन्न जगहों पर उनके अकादमिक लेख मिल जाते हैं जो सरकार पर सवालिया निशान लगाते हैं। (संकलन : मृणाल वल्लरी)