राष्ट्रपति बनने के बाद द्रौपदी मुर्मू पहली बार उत्तराखंड के दौरे पर आईं और अपने मृदुभाषी व्यवहार से सबको गदगद कर गईं। दो दिन की इस यात्रा में हर कोई उनकी सादगी से प्रभावित दिखा। सबसे पहले मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अपने सरकारी आवास में राष्ट्रपति का नागरिक अभिनंदन किया, जिसमें विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं, मंत्रियों, विधायकों, पूर्व विधायकों, साधु-संतों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों व महिला आंदोलन से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ताओं सभी ने भाग लिया। मुख्यमंत्री धामी ने अपने भाषण से राष्ट्रपति मुर्मू को प्रभावित किया। राष्ट्रपति मुर्मू ने सबसे पहले उत्तराखंड के ऋषि-मुनियों, तपस्वी साधु-संतों, वीरों और पूर्व सैनिकों तथा महिलाओं को याद करते हुए देवभूमि उत्तराखंड को नमन किया। उन्होंने यहां के लोक कलाकारों की प्रस्तुतियों की सराहना की और राज्य सरकार से लोक कलाकारों को आगे बढ़ाने की बात कही।
साथ ही उन्होंने उत्तराखंड राज्य का विकास, यहां की प्राकृतिक संपदा को संरक्षित करने का राज्य सरकार को सुझाव दिया। अपने भाषण में राष्ट्रपति मुर्मू ने हर वर्ग को छुआ। मसूरी में लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी में आइएएस अधिकारियों को संबोधित किया और दून विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह में शिरकत की। मुर्मू ने उत्तराखंड के अपने पहले दौरे में अमिट छाप छोड़ी उनके भाषणों में महिलाओं का दर्द छलका और गरीबों की पीड़ा भी स्पष्ट दिखाई दी। मुख्यमंत्री आवास में पुष्कर सिंह धामी ने गरिमा पूर्ण आयोजन राष्ट्रपति के सम्मान में किया, जिसकी सभी ने तारीफ की। राष्ट्रपति का दौरा बहुत मार्मिक और भावुक रहा। महिलाओं, बच्चों, कलाकारों के साथ राष्ट्रपति ने जमकर फोटो खिंचवाई और अपने लिए इसे यादगार बना लिया।
दलित नायक
मैनपुरी, रामपुर और खतौली उपचुनाव के नतीजों से हर दल खुश है। भारतीय जनता पार्टी इसलिए इठला रही है कि उसने मोहम्मद आजम खान के किले को ध्वस्त कर दिया। रामपुर सीट पर पहली बार कोई हिंदू उम्मीदवार जीता है। हालांकि, जीत का गणित अलग है। इस नतीजे को आजम खान के जनाधार का खिसकना कहा जा रहा है। लेकिन, इसे दूसरे नजरिए से भी देखने की जरूरत है। समाजवादी पार्टी ने यहां शुरू से ही प्रशासन की दबंगई और भेदभाव के आरोप लगाए थे। केवल 31 फीसद वोट पड़ना ही हकीकत बयान करता है। जबकि मैनपुरी में 53 फीसद और खतौली में 56 फीसद से ज्यादा वोट पड़े। मैनपुरी की जीत पर सपा फूले नहीं समा रही। इतने अंतर से तो मुलायम सिंह यादव भी नहीं जीते थे।
जीत पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। एक तो सपा का गढ़ था। ऊपर से चाचा-भतीजे का मेल हो गया। इस मेल का समय सटीक था। जो भी हो, सपा की लाज तो बच ही गई। अन्यथा आजमगढ़ सीट तो भाजपा ने झटक ही ली थी सपा से। गढ़ तो वह भी था ही सपा का। खतौली सीट आम चुनाव में भाजपा ने जीती थी। इससे पहले भी इस सीट पर भाजपा का ही कब्जा चला आ रहा था। खतौली की जीत में बड़ा योगदान भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद का रहा। जो दलितों के नेता के तौर पर उभर रहे हैं। मायावती का दबदबा था तो आजाद उभर नहीं पाए। लेकिन जब से मायावती ने भाजपा के प्रति नरम रुख अपनाया है, उनका वोट बैंक सिमटा है।
विधानसभा के 2017 के चुनाव में बसपा को 22 फीसद वोट मिले थे। लेकिन इस साल हुए चुनाव में घटकर 13 फीसद रह गए। मायावती ने 2007 में बहुमत की सरकार बनाई थी पर एक दशक बाद उनका एक ही विधायक जीत पाया। बसपा ने रामपुर और आजमगढ़ में जानबूझकर उम्मीदवार नहीं उतारे। ताकि दलित वोट बंटने से बचे और भाजपा को मिल जाए। निष्क्रियता और गलत रणनीति ने मायावती का जादू अब खत्म कर दिया है। इससे चंद्रशेखर आजाद खुश हैं और दावा कर रहे हैं कि युवा दलित बसपा और मायावती दोनों की हकीकत समझ गए हैं।
खतरे की घंटी
गुजरात में भाजपा ने अब तक के चुनावी इतिहास में सबसे ज्यादा सीटें जीतने का कीर्तिमान रचा है। ज्यादा मतों के अंतर से जीत और 50 फीसद से ज्यादा यानि बहुमत के वोट हासिल करना। कांग्रेस वैसे तो भाजपा के मुकाबले यहां कमजोर थी ही, पर उसकी बुरी गत आम आदमी पार्टी के कारण हुई। आम आदमी पार्टी के खाते में गए 13 फीसद वोट कांग्रेस के खाते से ही घटे। भाजपा का वोट फीसद तो पिछले चुनाव की तुलना में बढ़ा ही। लेकिन, अल्पसंख्यकों के लिए ये नतीजे चौंकाने वाले हैं। सूबे की 182 सीटों में से केवल एक मुसलमान उम्मीदवार ही जीत पाया है। जमालपुर खड़िया सीट पर कांग्रेस के इकलौते मुसलमान विधायक खेड़ावाला जीते हैं। जबकि पिछली विधानसभा में तीन मुसलमान विधायक थे।
अतीत पर गौर करें तो 1980 में 12 मुसलमान विधायक चुने गए थे। उसके बाद से लगातार उनकी संख्या घटती गई। यों इस बार भी 73 सीटों पर 230 मुसलमान उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा। कांग्रेस के तीन विधायकों में से दो को हरवाने में असद्दुदीन ओवैसी की एमआइएम ने असली भूमिका निभाई। उम्मीदवार जमालपुर खड़िया में भी उतारा था ओवैसी ने पर खेड़ावाला फिर भी करीब 14000 वोट से जीत ही गए।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)