अखिलेश यादव सियासी तौर पर मंज चुके हैं। राज्यसभा उम्मीदवारों के चयन में उन्होंने साबित कर दिया कि वोट बैंक पुख्ता रखने का हुनर उनके पास है। आजम खान से उनके मतभेद तो जरूर हैं पर ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता कि आजम समाजवादी पार्टी छोड़ेंगे। आजम खान की जेल से रिहाई के वक्त अखिलेश यादव के नहीं पहुंचने को लेकर तमाम कयास लगाए गए। मीडिया में अटकलें भी शुरू हो गई कि शिवपाल, ओमप्रकाश राजभर और आजम खान मिलकर अलग पार्टी बनाएंगे। लेकिन हकीकत कुछ और है।
अखिलेश यादव खुलकर मुसलमानों के मुद्दों पर बेशक आक्रामक नहीं दिखते हों पर मुसलमान उनके एजंडे में अभी भी सबसे ऊपर है। तभी तो संभल के जावेद अली को दूसरी बार राज्यसभा भेजने का फैसला किया। आजम खान की इच्छा का आदर करते हुए कांग्रेस छोड़कर आए वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल की उम्मीदवारी को निर्दलीय की हैसियत से भी सिर माथे लगाया। कपिल सिब्बल की कोशिशों से ही तो आजम खान जेल से बाहर आ पाएं हैं। भाई लोग भूल रहे हैं कि सीतापुर जेल पर आजम खान की अगवानी के लिए अखिलेश ने अपने चहेते सहारनपुर के मुसलिम विधायक आशू मलिक को भेजा था। वे ही एक तरह से अखिलेश और आजम के बीच दूत की भूमिका में हैं।
शिवपाल यादव का अब कोई जनाधार नहीं बचा है, आजम खान यह जानते हैं। अखिलेश ने आखिरी वक्त पर राज्यसभा की तीसरी सीट की उम्मीदवार बनाई गई अपनी पत्नी डिंपल यादव का पत्ता भी साफ कर दिया। उनकी जगह सहयोगी दल रालोद के मुखिया जयंत चौधरी को उम्मीदवार बना दिया। राज्यसभा की एक सीट के लिए उत्तर प्रदेश में कम से कम 37 विधायकों का समर्थन चाहिए।
जयंत के पास तो अपने महज आठ ही विधायक हैं। एक तरफ सहयोगी दल को वरीयता देकर नेतृत्व कौशल का परिचय देने की कोशिश की है। दूसरी तरफ भाजपाइयों के परिवारवाद के आरोप का करारा जवाब दिया है। परिवार के किसी भी सदस्य को न तो विधानसभा चुनाव में टिकट दिया था और न अब राज्यसभा की हसरत पूरी की।
नीतीश-नीति
लालू यादव ने एक बार मजाक में कहा था कि नीतीश कुमार के पेट में दाढ़ी है। इस मुहावरे का मतलब होता है अति चतुर होना। कम बोलने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सियासी पैंतरेबाजी में माहिर माने जाते हैं। जातीय जनगणना के मुद्दे पर उन्होंने इसे फिर साबित कर दिखाया है। भाजपा इस मांग से बचने की कोशिश करती रही है।
बिहार के तमाम पिछड़े तबके के नेता इसे अरसे से मुद्दा बनाए हैं। नीतीश ने इस मुद्दे पर एक जून को सर्वदलीय बैठक बुलाई है। भाजपा साझा सरकार का हिस्सा होने के बावजूद इस बैठक से किनारा करती दिख रही थी। अंत में पार्टी के सूबेदार ने ट्वीट किया कि वे मुख्यमंत्री की बुलाई बैठक में जाएंगे। हां, यह तथ्य छिपा लिया कि बैठक जातीय जनगणना के सवाल पर हो रही है। बहरहाल भाजपा को झुकना पड़ा है। अब तो नवीन पटनायक ने भी समर्थन कर दिया है इस मांग का।
नीतीश कुमार ने अभी तक राज्यसभा के अपने उम्मीदवार का नाम घोषित नहीं किया है। जद (एकी) के मोदी सरकार में इकलौते मंत्री आरसीपी सिंह की धड़कनें तेज हैं। उनका राज्यसभा का कार्यकाल खत्म हो रहा है। उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया तो मंत्रिपद छोड़ना होगा। आरसीपी सिंह नीतीश की कुर्मी जाति के ठहरे। नीतीश के कभी सबसे करीबी माने गए। आजकल दोनों के मतभेद की खबर जगजाहिर है।
नीतीश को संदेह है कि वे भाजपा से पींगे भिड़ा रहे हैं। वे देखना चाहते होंगे कि उन्होंने उम्मीदवार नहीं बनाया तो कहीं भाजपा तो नहीं बना देगी आरसीपी सिंह को उम्मीदवार। साझा सरकार तो जरूर चल रही है बिहार में पर भाजपा और जद (एकी) दोनों में ही भरोसे का भारी टोटा है। शह और मात के इस खेल में अपने मोहरे को पिटता कैसे देख सकते हैं नीतीश?
क्या होगा अंजाम-ए-आवाज?
कम बोलने वाले अपनी आवाज बुलंद करते हैं तो उसकी गूंज दूर तलक जाती है। दिल्ली के नवनियुक्त उपराज्यपाल के शपथ ग्रहण समारोह में पूर्व केंद्रीय मंत्री हर्षवर्धन का गुस्सा फूटा जो अपनी शांत छवि के लिए जाने जाते हैं। हर्षवर्धन ने तब भी गरिमामयी चुप्पी ओढ़ रखी थी जब कोरोना महामारी की पहली लहर के बाद मंत्रिमंडल फेरबदल में उन्हें केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के पद से हटा दिया गया था।
एक तरफ केंद्र सरकार वैश्विक स्तर पर प्रचार कर रही थी कि उसने बेहतर तरीके से कोरोना प्रबंधन किया और दूसरी तरफ अपने स्वास्थ्य मंत्री को ही पद से हटा दिया वह भी बिना कोई कारण बताए। इस विरोधाभास के बाद से हर्षवर्धन खामोशी से अपनी सांसदी के दायित्वों को निभाते रहे। इसलिए उपराज्यपाल के शपथ ग्रहण समारोह में उनके मुखर विरोध को राजनीतिक हलके में हैरानी से देखा जा रहा है।
पिछले कुछ समय से भाजपा का इतिहास रहा है कि अपनी अनदेखी पर उसके वरिष्ठ नेता जब भी बोले हैं, उसके बाद किसी दूसरी पार्टी में सम्मानित पद पर रहे हैं। यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, नाना पटोले कुछ उदाहरण हैं। वरुण गांधी अपनी अलग वैचारिक राह बना ही चुके हैं। दिल्ली के राजनीतिक इतिहास में हर्षवर्धन मानीखेज जगह रखते हैं। कहीं वे भी भाजपा के उन नेताओं से मार्गदर्शन तो नहीं लेंगे जिन्होंने पार्टी की उपेक्षा के कारण रास्ता बदल लिया? हर्षवर्धन की उठाई इस आवाज के अंजाम पर नजर रहेगी।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)